Tuesday, April 30, 2024

मनोज बाजपेयी पूछत बाड़े बम्बई में का बा?

कोरोना वायरस का प्रकोप हुआ, जी बिल्कुल वही जिस पर हम 21 दिन के लॉकडाउन में विजय प्राप्त करनेवाले थे और थाली, ताली, गाली और दिया-बत्ती करके और भाषण देके भागनेवाले थे, बिल्कुल वही। सरकार ने बिना किसी प्लानिंग के बोला – लॉकडाउन, सब बंद। जो जहां है वहीं रुक जाओ, हिले तो – – – – लेकिन झुंड के झुंड लोग निकल पड़े मन में एक ही विचार था कि जब भूखे ही मरना है तो अपने गांव में मरेंगे, इहां का बा! लोग निकल पड़े, पैदल, सवारी जो भी मिला जैसे भी। ज़िद्द केवल एक ही कि घर जाना है। कुछ पहुंचे तो कुछ कहीं और पहुंच गए। वैसे घर पर भी क्या था और क्या है; अगर होता तो इतना-इतना दूर अपनी बोली, बानी, घर, द्वार छोड़कर क्यों आते परदेस? यह दृश्य देखकर कुछ लोगों को थोड़ा बहुत फर्क पड़ा, कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर ज़रूरत से ज़्यादा दुःखी हुए, कुछ ने गालियां दी और नाली के कीड़े कहा, कुछ को विरोधियों की साजिश लगी, कुछ दाना-पानी लेकर इन्हें खिलाने दौड़ पड़े, बड़ी-बड़ी क्रांतियों और मजदूरों की बात करने वाले एक चुल्लू पानी भी न पिला सके आदि आदि बहुत कुछ हुआ। भांति-भांति के लोग, प्रजाति प्राजाति की प्रतिक्रिया भी आई। किसी ने कूट, किसी ने पीटा तो कोई मुर्गा बनाकर दौड़ाने लगा, किसी ने तो पूरा कैमिकल ही उड़ेल दिया शुद्धिकरण के नाम पर। ना किसी ने सवाल किया, ना किसी ने जवाब दिया और सब एक्ट ऑफ गॉड हो गया। 

इसको लेकर कुछ जगह चिंतन भी हुआ और कुछ सृजन भी। कुछ छोटी-छोटी फिल्में बनीं, कुछ कविताएं लिखीं गईं और कुछ अन्य रचनाएं भी हुई; हाँ, नाटक वाले लाइव प्रवचन में मस्त रहे, व्यस्त रहे और मीडिया लोकतंत्र की कब्र खोदने में! कुल मिलाकर मामला इतना कि बोले ज़्यादा महसूस कम किए गए और वक्त बीतता रहा। इसी बीच यह वीडियो आया है – बम्बई में का बा

अब यह वीडियो कई मायने में एक ज़रूरी वीडियो है। पहला, कि यह भोजपुरी भाषा का रैप है, अब कोई रैप का मतलब मत पूछिएगा। एक बार भारत के आदिकालीन रैपर बाबा सहगल से रैप का मतलब किसी ने पूछा तो वो बोले – रहें आप परेशान। तो मान लीजिए कि यह रैप है। अब आते हैं भाषा पर तो आजकल भोजपुरी मनोरंजन उद्योग का जो पॉपुलर ट्रेंड है वो एकदम घटिया, भद्दा, अश्लील और सड़ा हुआ है लेकिन वही सबसे ज़्यादा चलता और बजता है – खुलेआम। मतलब कि ज़्यादातर भोजपुरी मनोरंजन उद्योग बीमार है बाकी समाज के बारे में कुछ कहने की अपनी औक़ात नहीं इसलिए इस मामले में चुप ही रहा जाए तो बेहतर। अब लोग सुनते हैं तो बनता है या बनता है इसलिए सुनते है, यह वैसा ही सवाल है कि पहले मुर्गी कि पहले अंडा। इस मामले में बम्बई में का बा एक बेहद ज़रूरी और सार्थक काम है, इसमें जो कविता/गीत गाया गया है उसे सबको समझना जरूरी है और सोचना ज़रूरी है कि आख़िर इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? 

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दूसरा, अमूमन कोई भी बड़ा स्टार और निर्देशक भोजपुरी के नाम पर नाक सिकोड़ लेता है, वहीं मनोज बाजपेयी और अनुभव सिन्हा की इस जोड़ी ने यह काम किया है, उन्हें इस बात के लिए बधाई देना चाहिए और उम्मीद किया जाना चाहिए कि भोजपुरी या अन्य बोली/भाषा में और ज़्यादा सार्थक काम निकल के आएगा, आना चाहिए।तीसरा, इसे ख़ुद मनोज बाजपेयी ने गाया है और फिल्माया भी उनके ऊपर ही गया है। अब मनोज बाजपेयी गायक हैं कि नहीं यहां बहस यह नहीं है लेकिन जब एक बढ़िया और संवेदनशील अभिनेता जब गाता है तो सुर, लय और ताल से ज़्यादा भाव और अर्थ पर ध्यान देता है, और यहां भी यह बात आप साफ साफ महसूस कर सकते हैं। मनोज यहां शब्दों के भाव बोल रहे हैं और यही उसकी सार्थकता भी है। वैसे मुझे कई स्थान पर बच्चन साहब का एहसास हुआ लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता है।

चौथा, इसके फ़िल्मांकन को बड़े ध्यान से देखने की ज़रूरत है। वो नहीं जो मनोज बाजपेयी कर रहे हैं बल्कि वो जो क्लिप बीच-बीच में जोड़ा गया है; यह पलायन के दृश्य है, सच्चे दृश्य। जिसे देखकर देश का कलेजा तार-तार हो जाना चाहिए था लेकिन जा रे ज़माना, कालेज इतना ज्यादा कठोर हो गया है कि अब शायद बहुत ज़्यादा कुछ महसूस ही नहीं होता और होता भी है तो केवल शब्दों में या फिर अब हम “कांख भी ढकी रहे और विरोध की मुट्ठी भी तनी रहे” की कला में पारंगत हो गए हैं!

पांचवां, बात यह कि शहर चाहे कोई भी हो, बॉम्बे हो या नाम बदलकर मुम्बई हो जाए, अगर वो लोगों की तक़दीर नहीं बदलती तो उसका कोई अर्थ नहीं है सिवाए कुछ लोगों की व्यर्थ राजनीति के। गाने में यह भी है और बहुत कुछ और भी है।

आख़िरी बात यह कि कला समाज का दर्पन भी होता है और हथौड़ा भी, इसलिए शायद कला को समाज के आगे चलनेवाला मशाल कहा जाता है, लेकिन इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है कि कला अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करे और समकालीन चुनौतियों से आंख में आंख डालकर बात करने ही हिम्मत दिखाए। अगर यह होता है तो बड़े गर्व की बात है और नहीं होता है तो वह केवल एक धंधा है, बाक़ी कुछ ख़ास नहीं। इस गाने में दम है और यह आपका मनोरंजन करे न करे लेकिन इसे एक कलाकार के सामाजिक चीत्कार के रूप में दर्ज़ किया जाना चाहिए। इसे सुनिए और सुनाइए, ऐसा बहुत सारे काम की इस समाज को बेहद ज़रूरत है, नहीं तो वो दिन दूर नहीं कि इंसान के पास सबकुछ होगा सिवाए दिल और दिमाग के! 

वैसे कोरोना अभी ख़त्म नहीं हुआ है और अभी हमें बहुत कुछ देखना बाक़ी है, बाक़ी जहां तक सवाल काम धंधा का है तो वो सब तो बंद ही है! आंख मूंद लेने से अंधेरा नहीं छांटता है – साहब। यह लीजिए रैप लिंक में गाना भी है उसे भी सुनिए और डॉक्टर सागर द्वारा लिखे गए गीत के बोल को ज़रा ग़ौर से सुनिए, ई ना कि मनोज बाजपेयी और गाने के विजुअल प्रस्तुतिकरण में खो जाइए। फिर तो आईएएस गाने का सारा मामला ही गुड़ गोबर हो जाएगा। ऐसे एक सवाल इसके साथ और भी बनता है कि गांव में भी का बा? यह रहा “बम्बई में का बा” का लिंक :


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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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