यह बात सर्वज्ञात है कि सन 1947 में मुल्क का बटवारा हुआ, उस दौरान जो हिंसा, जान-माल और मानवता का नुकसान हुआ उसके विवरण से इतिहास और साहित्य के पन्ने के पन्ने भरे पड़े हैं, जो हमें यह शिक्षा देने की चेष्टा करते हैं कि नाफ़रती राजनीति तबाही के अलावा और कुछ पैदा नहीं कर सकता. काश, हम इसे समझ सकते. बहरहाल, उसी दौरान अमृतसर के खेतों के बीच दंगाइयों से बचते हुए बीस साल की ज़ैनब पचपन साल के रिटायर्ड फ़ौजी बूटा सिंह से अचानक ही टकरा गई और उससे अपने आप को बचाने का गुहार करने लगती है. बूटा सिंह ने ज़ैनब की जान और आबरू बचने के लिए दंगाइयों से ज़ैनब को पैसा देकर ख़रीद लिया और अपने घर में पनाह दी. उसके बाद दोनों साथ रहने लगे तो उनमें नजदीकियां बढीं तो दोनों ने मज़हब की दीवार तोड़कर एक-दूसरे को जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया. उनका प्यार परवान चढ़ा और दोनों दो बच्चियों के माँ-बाप बने. फिर भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान के बीच एक समझौता हुआ जिसमें सरहद पार हर अगवा की हुई लड़की को लौटने का फ़रमान था. यह सरकारी प्रक्रिया शुरू हो गई और जहां भी ख़बर लगती कि फलाने जगह पर कोई लड़की अगवा है, सरकारी कारिंदे वहां पहुंच जाते और लड़कियों को उठाकर कैंप में रखते और फिर उसके परिवारवालों के बारे में मालूमात करके उन्हें उनके परिवारवालों तक पहुंचा देते. कई परिवारवाले ऐसी लड़कियों को स्वीकार करते थे और कई नहीं भी करते थे. वैसे भी जो लड़की लम्बे समय तक अपने घर से ग़ायब हो उसे स्वीकारने का माद्दा आज भी बहुत कम परिवारों में हैं और फिर वो तो भीषण हिंसा का दौर था, जहां और की आबरू लूटने में धर्म और मज़हब की रक्षा हो रही थी. अब एक-दूसरे को मार डालने और औरतों की इज़्ज़त लूट लेने से कैसे धर्म या मजहब की रक्षा होती है, यह बात तो वही जाने जो इस काम में संलिप्त होते हैं!
ज़ैनब और बूटा सिंह, दो अलग-अलग मज़हब के लोग अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी जी रहे थे, यह बात गांव में बहुत लोगों को आसानी से ग्राह्य नहीं थी तो उन्होंने प्रशासन को यह कहते हुए ख़बर कर दी कि ज़ैनब को भी बूटा सिंह ने अपने घर में अगवा करके जबरन रखा है. नतीजा यह हुआ कि किसी की कुछ ना सुनते हुए लकीर का फ़क़ीर जैसे काम करने में उस्ताद प्रशासन ने ज़ैनब को वहां से उठाया और उसके परिवारवालों का पता लगाकर उसे पाकिस्तान भेज दिया. कहते हैं कि इस दौरान उसकी एक बेटी ज़ैनब के साथ थी यानि कि पाकिस्तान में और दूसरी बूटा सिंह के साथ हिन्दुस्तान में. इधर बूटा सिंह महीनों तक पाकिस्तान जाने का वीजा लेने के लिए दिल्ली में दौड़ता रहा, यहाँ तक कि उसने अपना नाम बूटा सिंह से बदलकर ज़मील अहमद भी कर लिया ताकि उसे पाकिस्तानी वीजा आसानी से मिल सके. आख़िरकार उसे कम समय के लिए वीजा मिला लेकिन उधर ज़ैनब के घरवालों ने ज़ैनब का निकाह करा दिया था. बूटा सिंह पाकिस्तान पहुंचा लेकिन ज़ैनब से मिलने की बेचैनी में उसने अपने आगमन की सूचना स्थानीय थाने में नहीं दिया था. फिर क्या उसे गिरफ़्तार कर लिया गया.
उसे कोर्ट के सामने पेश किया गया तो बूटा सिंह ने अपनी व्यथा कोर्ट के सामने प्रस्तुत किया. ज़ैनब को कोर्ट में बुलाया गया तो ज़ैनब ने बूटा सिंह और बच्ची को पहचानने से इंकार कर दिया. कहते हैं कि बूटा सिंह अपनी बेटी को सीने से लगाए एक पीर की मज़ार पर रोता रहा और उसके बाद वो रेलवे स्टेशन पर अपनी बच्ची के साथ आती ट्रेन के आगे कूद गया. बूटा सिंह की मौत ट्रेन से कटने के कारण हो गई लेकिन उसकी बच्ची सही सलामत थी. अख़बारों ने बूटा सिंह के मुहब्बत की दास्तान प्रकाशित किया और कहीं से यह भी ख़बर लगी कि बूटा सिंह की अंतिम इच्छा यही थी कि उसके शरीर को ज़ैनब के गांव में दफ़नाया जाए लेकिन यह हो न सका. आख़िरकार कुछ मुहब्बत पसंद लोगों ने उसकी कब्र लाहौर के सबसे बड़े क़ब्रिस्तान में बनाई और इस प्रकर बूटा सिंह इतिहास में मोहब्बत के मसीहा के रूप में प्रचलित हो गया. कहते हैं कि वहां भी उसकी कब्र को ज़ैनब के गांव वालों ने नुकसान पहुंचने की कोशिश की लेकिन वो उस प्रयास में सफ़ल नहीं हो सके. ज़ैनब और बूटा सिंह की मुहब्बत की असली कहानी यह है जिसे हम सन 1989 में प्रकाशित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्ता उर्वशी बुटालिया की पुस्तक The Other Side of Silence में पढ़ सकते हैं.
इस सच्ची कहानी को आधार बनाकर दो फ़िल्म बनती है. सबसे पहले पंजाबी भाषा में सन 1999 में “शहीद ए मुहब्बत बूटा सिंह” नामक फ़िल्म बनी और उसके बाद 2001 में आती है गदर एक प्रेम कहानी. शहीद ए मुहब्बत बूटा सिंह फ़िल्म में बूटा सिंह की भूमिका गुरदास मान और ज़ैनब की भूमिका दिव्या दत्ता ने निभाया है. मनोज पुंज के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म ने बेस्ट पंजाबी फीचर फ़िल्म का 46वां राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता. आज यह फ़िल्म इंटरनेट पर विभिन्न स्थानों पर मुफ़्त में उपलब्ध है, जिसे आसानी से देखा जा सकता है. वैसे फ़िल्म तकनीक के स्तर पर बहुत ही साधारण है लेकिन जहां तक बात ज़ैनब और बूटा सिंह की असल जीवनी का है तो यह फ़िल्म सच के ज़्यादा क़रीब है. इस फ़िल्म में कलात्मक छूट के नाम पर बिकाऊ माल, मसाला नहीं है और ना ही राष्ट्रवाद का ज़हरीला तड़का ही यहां उपलब्ध है. फ़िल्म बड़ी ही सादगी के साथ ज़ैनब और बूटा सिंह की कहानी कहने की चेष्टा करती है. हां, इस फ़िल्म में प्रसिद्द सूफी गायक नुसरत फ़तेह अली खान साहेब का गाया हुआ एक नग्मा “इश्क का रुतवा, इश्क ही जाने” भी है जिसे बार-बार सुना जा सकता है, बाकी गीत संगीत भी परिवेश के अनुकूल है. एक बात और, यह फ़िल्म भी मूलतः भावना प्रधान फ़िल्म ही है लेकिन यह भावना का दोहन करके पैसा कमाने के लिए कोई राजनीतिक एजेंडा को अपना आधार नहीं बनाती. किसी भी कला में कलात्मक छूट एक बेहद ही आवश्यक बात है लेकिन कलात्मक छूट के नाम पर मूल भावना का दोहन कहीं से भी उचित नहीं हो सकता. सिनेमा की सफ़ल या असफल, लोकप्रिय या अलोकप्रिय होना, उसकी सार्थकता का संकेत कतई नहीं होता.