द वाल्ट डिजनी कंपनी का अंग है पिक्सर स्टूडियो, जो मूलतः कार्टून फ़िल्म बनने का कार्य करता है। जिस किसी ने इस स्टूडियो की फ़िल्में देखी है उन्हें यह बात अच्छे से मालूम है कि इनकी फ़िल्में हर तरह से उत्तम होती हैं और स्वस्थ मनोरंजन के साथ ही साथ बड़ी सीख भी देती हैं। इसी स्टूडियो की एक शानदार एनीमेशन फ़िल्म है “A Bug’s Life,” जो हल्के-फुल्के ढंग से बड़ी बात कह जाती है। वैसे इस फ़िल्म को देखते हुए किसी को कुरुसावा की अद्भुत रचना सेवन समुराई और स्टीव मार्टिन की फ़िल्म थ्री एमिगोएज़ की याद अगर आती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि कथ्यात्मक रूप से सबकी आत्मा लगभग एक ही है। “A Bug’s Life” फ़िल्म सन 1998 में आई थी।
“A Bug’s Life” चींटियों के एक कॉलनी की कहानी कहती है जो ग्रास हॉपर के लिए खाना जुटाने में ठीक उसी प्रकार परेशान रहते हैं जैसे हम मनुष्य अपने-अपने नेताओं के लिए वोट जुटाने में पागल हुए रहते हैं। ग्रास हॉपर आते हैं और खाना खाकर चले जाते हैं। इधर चींटियों में यह भय है कि यही उनकी नियति है और अगर उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया तो अनर्थ का होना तय है। यह नियति का चक्कर बड़ा अद्भुत है और कमाल बात यह है कि इसे इंसान के अलावा और कोई नहीं मानता, तो समझा जा सकता है कि यहां माध्यम चींटियां हैं लेकिन मूलतः कथा इंसानी भय की ही है। वैसे भी सिनेमा इंसान ही देखता है तो यहां अच्छा-बुरा जो कुछ भी घटित होता है, वो केवल और केवल इंसान के लिए होता है। बहरहाल, एक साल फ्लिक नामक चींटी के आविष्कार की वजह से एक दुर्घटना घटित होती है और हॉपर के लिए इकठ्ठा सारा खाना पानी में चला जाता है। हॉपर आते हैं, सारी चीटियां भयभीत होकर अपनी बिल में छुप जाते हैं। ग्रास हॉपर निर्धारित स्थान पर खाना नहीं देखकर बेहद नाराज़ हो जाते हैं और अगली बार और ज़्यादा खाना जमा करने या फिर उसका भयंकर परिणाम भुगतने को तैयार रहने का भय दिखाकर ठीक वैसे ही चले जाते हैं जैसे नेता हमने यह भय दिखाकर जाता है कि यदि हमने उन्हें वोट नहीं दिया तो तबाही तय है।
यह भय बहुत कमाल की चीज़ है, इसके दम पर पता नहीं किस-किस चीज़ का वाहियात कारोबार सदियों से न केवल चल रहा है बल्कि ख़ूब फल-फूल भी रहा है। चालाक लोग जानते हैं कि इंसान के भीतर विभिन्न-विभिन्न वजहों को बताकर पहले भय पैदा करो, मानसिक रूप से गुलाम बनना है, तत्पश्चात उनका मुक्तिदाता बनो, उनके भीतर उम्मीद की किरण जगाओ और फिर आराम से अपना उल्लू सीधा करते रहो। मानसिक गुलामी का यह अद्भुत खेल सनातन है और आज भी बड़े ही सफलतापूर्वक खेला जाता है। जिन्हें इस बात पर यकीन नहीं वो सभ्यता और संस्कृति के नाम पर संचालित धर्म और राजनीति का खेल देख सकते हैं।
चींटियों में एक वैज्ञानिक चींटी है फ्लिक जो अपने आविष्कार के मार्फ़त खाना जुटाने के प्रयास में प्रयासरत है और जैसी की परम्परा है कि अगर कोई भी लकीर का फ़क़ीर होने से ज़रा सा भी इतर होता है, उसका सर्वप्रथम मज़ाक बनाया जाता है। यहां भी फ्लिक, जो लकीर का फ़क़ीर बनने से मना करता है और सारी चींटियां उससे मुक्ति का मार्ग तलाशने लगतीं है क्योंकि वो मानसिक दासता को स्वीकार कर चुकीं हैं और उन्हें लगता है यही उनका जीवन है। फ्लिक आत्मग्लानी में आकर कॉलनी से बाहर जाने और इन ग्रास हॉपर से सदा के लिए मुक्ति का मार्ग तलाशने की बात करता है तो सारी चींटियां इसलिए तैयार हो जाती हैं क्योंकि उन्हें लगता है इसी बहाने इस पागल चींटी से उनको मुक्ति मिल जाएगी। फ्लिक बाहर जाता है और अनजाने योद्धा के नाम पर सर्कस से निकाल दिए गए कुछ जोकर कीड़ों को लेकर आता है। सर्कस के कीड़े आ तो जाते हैं लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि उन्हें ग्रास हॉपर से लड़ने के लिए लाया गया है, वो भागने लगते हैं। बहुत सारी नाटकीय घटनाओं के बाद सारी चीटियों को अपनी ताक़त और एकता का एहसास होता है और आख़िरकार वो एकजुट होकर ग्रास हॉपर का मुकाबला करते हैं और उसके आतंक से सदा के लिए मुक्ति पाते हैं।
“A Bug’s Life” के एक दृश्य में ग्रास हॉपर का नेता अपने साथियों को मुक्ति का मार्ग समझता है और वो पहले एक दाना फेंकता है और पूछता है कोई फ़र्क पड़ा। जवाब मिलता है नहीं। फिर दूसरा दाना फेंकता है और उसका भी जवाब मिलता है नहीं। उसके बाद वो दानों के ढेर का मुहाना ही खोल देता है और उसके भीतर कई सारे ग्रास हॉपर दब जाते हैं और उसके बाद ग्रास हॉपर्स के झुंड को समझ में आता है कि किसी एक के विरोध को कुचलना कितना आवश्यक है क्योंकि अगर उनका विरोध एकताबद्ध हुआ तो सारा खेल चौपट हो जाएगा। यही खेल का सदियों से मानवीय राजनीति और तमाम प्रकार की धार्मिक सत्ताएं क्या नहीं खेलती हैं!
जॉन लस्टर के निर्देशन और एंड्रू स्टेंटौन के सह-निर्देशन में बनी “A Bug’s Life” की प्रेरणा एसोप की कथा द एंट एंड द ग्रास हॉपर्स है और पिक्सर की तमाम फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म का इनेमेशन भी कमाल का है और इसका एक-एक फ्रेम देखते हुए ग्राफ़िक्स पर किए गए अपार श्रम को अच्छे से महसूस किया जा सकता है। पिक्सर की ग्राफिक्स इतनी ज़्यादा शानदार होती है कि वो कई बार वास्तविक और अवास्तविक का भ्रम भी न केवल दूर कर देती है बल्कि वो वास्तविक से ज़्यादा वास्तविक और सुंदर से ज़्यादा सुंदर प्रतीत होती हैं। यह सबकुछ निश्चित ही मेहनत से होता है, किसी जादू और चमत्कार से नहीं।
समाज के सबसे कमज़ोर तबके में अन्याय के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष करने और पूर्व निर्धारित सारे आडम्बरों से मुक्त होने की प्रेरणा देती यह फ़िल्म, फ़िल्म के फ़िल्म होने के अर्थ को ना केवल सार्थक करती है बल्कि यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण भी प्रस्तुत करती है कि सिनेमा या किसी भी अन्य कला का सामाजिक सरोकार और उपयोगिता क्या है! वैसे भी जो कला इंसान को और ज़्यादा इंसान और समाज को और ज़्यादा सामाजिक, सुंदर, कोमल और मानवीय होने की प्रेरणा से संचालित नहीं है, वो मूलतः अफ़ीम का काम ही करती है, जिससे शोषण को और ज़्यादा पोषण के अलावा और कुछ हासिल नहीं होता। कबीर कहते हैं –
दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय।।
अर्थात किसी को दुर्बल या कमज़ोर समझ कर नहीं सताना चाहिए, क्योंकि दुर्बल की हाय या शाप बहुत प्रभावशाली होता है। जैसे मरे हुए जानवर की खाल को जलाने से लोहा तक पिघल जाता है। यह बात समझ में आती है तो ठीक और नहीं समझ में आती है तो किसी और प्रकार से समझ में आएगा ही एक ना एक दिन लेकिन वो अन्य प्रकार बड़ा निर्दयी होता है। मौज तभी तक है जब तक चींटी को अपनी ताक़त का एहसास नहीं है और वो विभिन्न-विभिन्न रूपों में विद्धमान ग्रास हॉपर को अपना तारनहार मान रही है!