Tuesday, April 30, 2024

फ़िल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ सेक्सिला ठर्किला का विमर्श

नेटफ्लिक्स पर अमर सिंह चमकिला नाम से एक फ़िल्म आई है, मान्यता यह है कि यह पंजाब के गायक अमर सिंह चमकिला (21 जुलाई 1960 – 8 मार्च 1988) के जीवन के ऊपर आधारित है। लेकिन कलाकारी से जुड़ा कोई भी व्यक्ति यह बात भलीभांति जानता है कि कला इतिहास की किताब नहीं होती भले ही वो इतिहास और इतिहास में हुए चरित्रों के बारे में ही बात क्यों न कर रहा हो; बल्कि कला अपने आप में एक नवीन सृजन का नाम है। वैसे भी इतिहास का पुर्नावृत्ति संभव ही नहीं है, बल्कि वहां भी अपनी दृष्टि, अपना दृष्टिकोण, अपना नज़रिया और अपनी कल्पना और परिकल्पना परिलक्षित होती है, होना भी चाहिए। चाहे वो सिनेमा हो या नाटक हम किसी भी चरित्र या कहानी के माध्यम से दरअसल व्याख्या प्रस्तुत कर रहे होते हैं, कलात्मक रूप से। इम्तियाज़ भी यहां चमकीला के माध्यम से अपनी व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में भारतीय सिनेमा में जितने भी लेखक, निर्देशक कार्यरत हैं, उनमें इम्तियाज़ का नाम काफ़ी इज़्ज़त से लिया जाता है और यह इज़्ज़त उन्होंने अपने कार्य के माध्यम से ही अर्जित किया है। वो जो भी कार्य अंजाम देते हैं, उसमें गहरा सोच-विचार, चिंतन-मनन होता है। वो सिनेमा में नाम पर वो कूड़ा नहीं बनाते जिसके लिए यह कहना पड़े कि दिमाग़ घर छोड़ कर आइए। उनकी फ़िल्में सोचा न था, जब वी मेट, लव आजकल (2009), रॉकस्टार, हाइवे, तमाशा, जब हैरी मेट सजाल, लव आजकल (2020), एक ख़ास प्रकार का विमर्श प्रस्तुत करती है, विभिन्न कहानियों और किरदारों के माध्यम से। अमर सिंह चमकीला में पंजाब के लोकप्रिय गायक के माध्यम से भी वो विमर्श प्रस्तुत कर रहें हैं, उसके ऊपर गौर करने की आवश्यकता है।

पहला विमर्श तो कला, कलाकार और समाज है। इम्तियाज़ अपनी फ़िल्में में इस विमर्श को इससे पहले भी उठा चुके हैं ख़ासकर रॉकस्टार और तमाशा में। अमर सिंह चमकीला में यह विमर्श इस रूप में हैं कि जब आप दर दर की ठोकर खा रहे होते हैं तब ना समाज सामने आता है और ना ही कोई व्यवस्था और ना ही धर्म और जाति के कोई तथाकथित रक्षक ही लेकिन जैसे आप अपनी प्रतिभा, व्यक्तिगत जुनून, मेहनत और लगन से थोड़ी यश और प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं सब के सब आपके पक्ष और विपक्ष में खड़े हो जाते हैं। सब के सब बताने लगते हैं कि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं। सब को अपनी-अपनी वसूली करनी होती है और ना होने पर वध भी किया जाता है।

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दूसरा विमर्श यह कि आप चाहकर भी अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकते। आप कहीं भी जाएं आपका अतीत आपके साथ चलता है। समय और माहौल को देखते हुए अमर सिंह चमकीला अपने अतीत से भागना चाहता है और अश्लीलता त्यागकर भक्ति और आन्दोलन के गीत गाना और बनाना चाहता है लेकिन वो जहां भी अपना अखाड़ा जमाता है, उनका अतीत उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है। लोग उससे अपने पुराने गाने सुनाने को कहते हैं और सुननेवालों का ग़ुलाम हो चमकीला वह सुनाने को बाध्य हो जाता है क्योंकि यही उसकी पहचान है और यही वो चीज़ है जिसने उसे चमकीला बनाया है। इसके लिए वो तर्क भी गढ़ता है, जो लाजमी भी है। उसे भी यह बात भलीभांति पता है कि अपनी खोल से निकलकर उसका कोई ख़ास वजूद नहीं है और कलाकार एक बार लोकप्रियतावाद का शिकार हुआ तो फिर उसके ऊपर ख़ुद उसका भी ज़ोर नहीं चलता। चमकीला भी कला के इसी बाज़ार और व्यापार के शिकार का एक नाम है।

अब ज़रा लगे हाथ उस काल का ज़िक्र भी कर लेते हैं जिस काल में चमकीला एक आम इंसान से चमकीला बनता है। फ़िल्म में एक स्थान पर यह पंक्ति आती है – “अपने धंधे की फ़ितरत समझिए। जब दुनिया में तनाव बढ़ता है, तब जनता के अंदर मनोरंजन की भूख और बढ़ जाती है। जब चारों तरफ़ ख़तरा हो, लोग तकलीफ़ से तड़प रहें हों, तो उन्हें दुखी गाने नहीं सुनने होते हैं, वो तो पहले से उनकी ज़िन्दगी में है। उन्हें चाहिए कोई ऐसा झूमता हुआ गीत जिसे सुनकर उन्हें राहत मिले। कुछ लम्हों के लिए ही, उनकी मुश्किल आसान हो जाए।” बस इतने सी पंक्ति बोलने के लिए बेहतरीन और शानदार अभिनेता कुमुद मिश्रा को फ़िल्म में रखा जाता है। क्या केवल इसलिए कि उस सोच को सार्थकता प्रदान किया जाए जिस सोच के तहत चमकीला अश्लील गाने गाता था। कुमुद अपने चरित्र के अनुकूल इसे पूरे विश्वसनीयता के साथ पर्दे पर उपस्थित करते हैं, जो एक अभिनेता का काम भी है लेकिन यहीं से चमकीले के अश्लील गीतों के प्रति एक अलग नज़रिए का बीज बोया जाता है कि वो तमाव में राहता देने का कार्य कर रहा था क्योंकि इतिहास पढनेवाले यह बात भलीभांति जानते हैं कि 80 के दशक में पंजाब जल रहा था और चमकीला जैसे गायक उफ़ान मार रहे थे। यही मुझे दुष्यंत कुमार का एक शेर याद पड़ता है –

कुछ इस कदर बदहवास हुए आंधियों में लोग
जो पेड़ खोखले थे उन्हीं से लिपट गए


क्योंकि कला एक एस हथियार है जिससे हम लोगों के सांस्कृतिक भूख को मिटाते हैं। कला एक ऐसा प्रभावी और सशक्त माध्यम है जिसका असर तुरंत भले ही न दिखे लेकिन इसका दीर्घकालिक प्रभाव होता है क्योंकि इसके द्वारा एक कलाकार समाज की सांस्कृतिक स्तर को उंचा भी उठा सकता है और उतनी ही ताक़त से भ्रष्ट भी कर सकता है, उन्हें नीचा दिखा सकता है, उनका स्वाद ख़राब कर सकता है। एक कलाकार का काम समाज के सांस्कृतिक स्तर को उंचा उठाना है ना कि उसे और अपने लोभ-लाभ के चक्कर में ज़्यादा विकृत करना। यदि वो ऐसा करता है तो एक कलाकार और मुनाफ़ाखोर व्यापारी में कोई अंतर नहीं रह जाता और फिर उसे कलाकार से ज़्यादा व्यापारी की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

लेकिन यह फ़िल्म यहीं मार खाती है और आख़िर में आते-आते ऐसे-ऐसे दृश्यों की परिकल्पना करती है जिससे चमकीला एक नायक की उपाधि प्राप्त कर ले जाए। पता नहीं क्यों हम अभी भी नायक और खलनायक की परिधि में ही सोचते हैं और उसके हर अच्छे-बुरे कार्य में अपने हिसाब से अर्थ निकलने लगते हैं। जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करने से परहेज़ करते हैं। हद तो तब हो जाती है जब अश्लीलता के पक्ष में भी बड़ी कुशलता और चालाकी से यह फ़िल्म कभी शब्दों तो कभी दृश्यों के माध्यम से खड़ी हो जाती है और यहां तक तर्क (कुतर्क) प्रस्तुत करती है कि अश्लीलता शब्दों में नहीं बल्कि दिमाग में होती है और आम मर्द जो सोचते हैं उसे चमकीला उसे ज़ाहिर कर देता है। याद कीजिए बुज़ुर्ग औरतों का पूरा एक लम्बा दृश्य जिसमें वो कहती है कि यह सब हमारी परम्परा में है और उसके बाद वो उदहारण भी प्रस्तुत करती है और उसके बाद लड़कियों का पूरा हुजूम बैंगन बैंगन गाना गाते हुए मस्त-मगन हो जाती है और यह दृश्य भी बड़ी सफ़ाई से उपस्थित किया जाता है कि चमकीला को केवल मर्द ही नहीं बल्कि औरतें भी भरी महफ़िल में सुनती हैं। संभव हो कि औरतों ने भी चमकीला सुनने आती होंगी क्योंकि आज भी शादी-ब्याह के मौक़े पर हम महिलाओं को अश्लील और फूहड़ गानों पर थिरकते देखते हैं और वो भी सार्वजनिक रूप से।

चलो मान लिया कि अश्लीलता और फूहड़ता सार्वजनिक रूप से स्वीकृत है इसका क्या अर्थ हुआ कि उसके पक्ष में दलील प्रस्तुत किया जाए? आज की बात करें तो एक से एक भोजपुरी गायक एक से एक घटिया और अश्लील गाने गाते हैं और लोग उसे ख़ूब सुनते भी हैं और इसके पक्ष में वो तर्क देते हैं कि लोग जो सुनते हैं हम वो प्रस्तुत करते हैं। कई ने इसी माध्यम से अपनी ग़रीबी से बाहर निकलने का तर्क भी प्रस्तुत किया है। इसका क्या अर्थ हुआ कि इसे संस्कृति मान लिया जाए या कि संस्कृति का एक विकृति हिस्सा जिसे हम अप-संस्कृति के रूप में जानते हैं? माना कि लोग अश्लीलता भाषा का इस्तेमाल करते हैं, गन्दी-गन्दी गालियां देते हैं, अश्लील गाने सुनते और बजाते हैं और इस माध्यम से प्रसिद्धि बड़ी जल्दी मिलती है लेकिन क्या इसे अच्छा और बेहतर मान लिया जाए? आश्चर्य होता है जब इम्तियाज़ जैसा संवेदनशील निर्देशक-लेखक इसके समर्थन में बड़ी चालाकी से दृश्य उपस्थित करते पाए जाते हैं। काश, यह झूठ हो क्योंकि मैं भी चाहता हूं कि यह झूठ ही हो। लेकिन वो दृश्य याद कीजिए जहां एक किशोर अपने घर में चमकीला के मर्डर हो जाने के पश्चात् उसका गाना सुनते हुए पढ़ाई करने का ढोंग कर रहा होता है और उसका पुलिसवाला बाप घर में दाख़िल होता है। लड़का गाना बंद करके कैसेट छुपा देता है लेकिन बाप उसके पास जाता है और कहता है – सुनने का मन करे तो सुन लिया कर जबकि उससे पहले के दृश्य में यही पुलिसवाला यह तर्क दे रहा होता है कि “दुनिया में ज़्यादातर लोग गंदे और बुरे हैं। ज़्यादातर लोगों को कचरा पसंद है। तो क्या करें, दे दें उसको कचरा?” अब कचरा माननेवाले इस पुलिसवाले का हृदय क्या केवल इसलिए परिवर्तित हो जाता है क्योंकि चमकीला की निर्मम हत्या कर दी गई है! काश, मुझे कोई इस दृश्य की सार्थकता समझाए कि इसका चमकीले के जीवन से क्या लेना है?

किसी की भी हत्या किसी भी वजह से जायज नहीं हो सकती और अश्लीलता फ़ैलाने के जुर्म में तो बिलकुल भी नहीं। वैसे चमकीला को किसने और क्यों मारा आज तक कोई नहीं जानता क्योंकि लोकप्रियता के दुश्मन भी कम नहीं होते।

समय बड़ा विचित्र है, आंख कान नाम और दिमाग खुला रखिए क्योंकि पढ़े लिखे लोग बड़ी चालाकी से कचरा आपके दिमाग में भर सकते हैं और आप आह्लादित होकर उसके समर्थन में तर्क गढ़ने लग सकते हैं। किसी पर आह्लादित ना होइए, ना किसी कलाकार पर, न गुरु पर और ना ही किसी नेता पर। सब को तर्क, बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखिए, वरना आंख बंद और डिब्बा ग़ायब होते देर न लगेगी लेकिन यह भी सत्य है कि तर्क, बुद्धि और विवेक जिसके पास है वही इसकी कसौटी पर चीज़ों को कसेगा वरना तो भक्ति पूर्वक आराधना में तब तक व्यस्त और मस्त रहेगा जब तक कि ख़ुद उसकी जान पर नहीं बन आती।

आख़िर में बात यह कि फ़िल्म में सारे अभिनेताओं का काम बढ़िया है दिलजीत दोसांझ अपने अभिनय के चरम पर हैं। दिलजीत ख़ुद अभिनय के साथ गाते और बजाते भी हैं इसलिए वो जब चमकीला बनके गाते बजाते हैं तो कहीं से भी नक़ली और फ़िल्मी नहीं लगते। परिणिति भी ठीक-ठाक निभा ले जाती है। अन्य अभिनेता भी उसी प्रदेश (पंजाब) से हैं तो पूरी फ़िल्म में फ़िल्म के अनुकूल पंजाबी वातावरण उपस्थित होता रहता है। लोक और पारम्परिक संगीत के लिए रहमान का चयन कहीं से भी अच्छा नहीं माना जाएगा क्योंकि परिवेश कोई भी हो उसमें वो अपनी अत्यधिक आधुनिक मशीनीकृत संगीत को घुसाने से बाज़ नहीं आते।

सबसे आख़िरी और ज़रूरी बात यह कि अमर सिंह चमकीला देखते हुए शैलीगत रूप से बार-बार बाज़ लुहरमन निर्देशित फ़िल्म इल्विश (2022) की याद आ रही थी, इससे बचा जाना चाहिए था। पश्चिम से प्रभावित हुए बिना भारतीय सिनेमा को अपनी शैली विकसित करनी चाहिए (जैसे कुरुसावा से जापान के लिए किया था और सत्यजित राय और ऋत्विक घटक ने भारत के लिए) और तब तो और जब आप किसी लोक कलाकार की कथा कह रहे हैं। बहरहाल, मैं ख़ुद अचंभित हूं! और यह देखकर और भी ज़्यादा कि सब बिना परखे कैसे आह्लादित हो रहे हैं लोग!


पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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