“Maharani” बिहार केंद्रित एक वेबसिरिज़ है और इसका पहला भाग काफ़ी देखा-सराहा गया और अब उसका दूसरा भाग आया है। पहले भाग की कहानी जहां से ख़त्म होती है दूसरा भाग वहां से शुरू होता है इसलिए दूसरे भाग को समझने के लिए पहला भाग देखा जाना एक अनिवार्य शर्त है। पहला और दूसरा भाग मिलाकर कुल बीस एपिसोड हैं यानि कि कुल लगभग पंद्रह घंटे से ऊपर आपको ख़र्च करना है। कोई इंसान अगर पंद्रह घंटे कहीं ख़र्च करता है तो बदले में उसे क्या हासिल होता है और जो हासिल होता है वो कितना विश्वसनीय है! इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न और है कि क्या हम बतौर दर्शक, समाज और व्यवस्था ऐसी चीज़ें देखना भी चाहते हैं जिसमें विश्वसनीयता और घोर एतिहासिकता हो? क्या हमारे समाज और व्यवस्था में इतनी ताक़त है वो कटु सत्य को बर्दाश्त करे? इसका जवाब है – नहीं! क्योंकि हम सब अपने-अपने खूंटे के इस कदर गुलाम हो चुके हैं कि अगर कोई हमारे खूंटे और पगहा का सत्य दिखाने लगे तो हमारी भावना आहत हो जाती है और उसके बाद हम जो तांडव करते हैं, वो सबको पता है। तो इस तांडव से बचना और बचाते हुए यथासंभव सही बात कहना, आज एक आवश्यक ज़रूरत हो गई है। जिनको भी इस बात पर यकीन नहीं वो भारतीय सिनेमा, टेलीविजन और साहित्य जगत का इतिहास उठाकर देख लें! यहाँ जब भी कटु सत्य दिखाने का प्रयत्न हुआ है प्रतिबन्ध झेलना पड़ा है! राज चाहे किसी का भी हो, सबने अपने-अपने तरह से तन्त्र को अपने हित में प्रयोग किया है और यह सिलसिला आज भी निरंतरता से जारी है बल्कि आज तो चरम पर ही है! “Maharani” कटु सत्य से परहेज़ करती है और वो सन 2002 में सब टीवी पर प्रसारित हो रही “रामखेलावन सीएम एंड फैमिली” नामक धारवाहिक की नियति को प्राप्त होने से अपने आपको बचाती है। आज रामखेलावन सीएम एंड फैमिली धारवाहिक की हालत यह है कि टीवी पर तो उसका प्रसारण रुका ही, गूगल पर भी उसके बारे में विशेष को जानकारी उपलब्ध नहीं है। अब कोई भी इंसान इस नियति को क्यों प्राप्त होना चाहेगा?
“Maharani” की पृष्टभूमि में बिहार और मूल रूप से बिहारी राजनीति है। जगह के नाम लगभग वास्तविक हैं, कुछ चरित्रों और घटनाओं की पृष्टभूमि भी बिहार के राजनीतिज्ञों और राजनैतिक घटनाक्रमों से मिलता जुलता है, जयप्रकाश नारायण और लोहिया भी हैं लेकिन यह सब केवल पृष्टभूमि का काम करते हैं बाक़ी कथा कल्पना कि उड़ान ही भरते हुए कटु के स्थान पर जादुई यथार्थ ही प्रस्तुत करती है। यहां वास्तविकता का स्थान उतना ही है जितना गुलाब जल में गुलाब का होता है। तो “Maharani” की कथा मूल रूप से है क्या? इसका सीधा सा जवाब है राजनीति और सत्ता पाने के लिए किया जा रहा प्रपंच। इस खेल में हर कोई मोहरा है और हर कोई खिलाड़ी, जिसका जहां दाव लगता है पटखनी दे देता है। यह बिहार ही नहीं बल्कि कमोवेश पूरे देश का ही सच है, जहां लोक और तंत्र एक ऐसी गाय है जिसके दूध की मलाई लगभग हर नेता चखता है और जनता के पास आता है दूध के नाम पर विभिन्न प्रकार का सफ़ेद पानी! इस प्रकार यह सिरीज़ राजनीत की विभिन्न प्रकार की दुकानों की कलाई खोलने का प्रयास करती है और अपने इस प्रयास में सफ़ल भी होती है। इस सिरीज़ की एक कुशलता यह भी है कि जहां एक तरफ़ वेबसिरिज़ अश्लीलता, फूहड़ता, हिंसा, नंगापन, गाली-गलौच आदि को परोसकर ज़्यादा से ज़्यादा क्लिक पाने को बेचैन रहती है वहीं यह पूरी सिरीज़ इससे बचती ही नहीं बल्कि हिंसात्मक दृश्य भी संवेदन्शीलता और जवाबदेही के साथ प्रस्तुत करती है। इसे भी एक उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है।
इसमें बिहार की एतिहासिकता तलाशने वालों के लिए निराशा हाथ लग सकती है लेकिन अगर इसे उससे थोड़ा इतर होकर देखा जाए तो राजनीति का सच भी दिख जाएगा। वैसे यह भय तो है कि जब आप किसी स्थान विशेष का नाम व अन्य एतिहासिकता का समावेश अपनी पटकथा में करते हैं तो लोग इसमें एतिहासिक प्रमाण खोंजें लेकिन एतिहासिकता का प्रमाण इतिहास की पुस्तकों में तलाश किया जाए तो ज़्यादा अच्छा है। यहाँ बिहार, बिहारी समाज और राजनीति केवल पृष्टभूमि मात्र ही काम करती नज़र आती है लेकिन मुकेश खन्ना को भीषम, नितीश भारद्वाज को कृष्ण माननेवाले मासूम समाज को कोई समझाए भी तो कैसे! बहरहाल, पहले भाग में जहां महारानी के सत्ता में आने और पुरुष मात्र (पति) से परे प्रदेश हित में अपना वजूद तलाशने की कहानी थी वहीं दूसरा भाग सत्ता में टिके रहने के लिए किए जानेवाले खेल और चुनावी समीकरण को केंद्रित करती है और जैसे कहा जाता है ना कि प्रेम और युद्ध में सबकुछ जायज है, वैसे ही राजनीत में सब जायज है वाला खेल ही चलता है और नैतिकता, विचारधारा, संविधान और देश व जनता के हित बस कहने सुनने भर की बातें होकर रह जाती हैं। पैसा, धर्म और जाति के साथ ही साथ लोभ-लाभ और जोड़-तोड़ का खेल शुरू होता है और उसके लिए जितना षड्यंत्र संभव हो सकता है, बेशर्मी के साथ अंजाम दिया जाता है। यह अब केवल बिहार ही नहीं वरण देश के संसदीय राजनीत की सच्चाई है। इस सत्य को जो समझ पाते हैं उनके भीतर गुस्से का बिस्फोट होता है, जो नासमझ हैं वो अपने-अपने खूंटे के साथ त्रस्त होते हुए भी मस्त हैं। उनकी आंखों पर पर्दा कुछ ऐसा चढ़ा है कि उन्हें केवल वही दिखता है जो उनके नेता उन्हें दिखाना चाहते हैं!
“Maharani” का लेखन, निर्देशन, छायांकन आदि उचित है लेकिन सबसे ज़्यादा जो विभाग आपको आकर्षित करता है वो है अभिनय। कहा जाता है कि एक निर्देशक यदि सही भूमिका में सही अभिनेता का चयन कर लेता है तो उसका एक बहुत बड़ा काम आसान हो जाता है। सनद रहे यहाँ अभिनेता की बात हो रही है सितारों की नहीं। वैसे प्रचलित मान्यताओं के अनुसार मुख्य भूमिकाओं में सितारों को रखना एक व्यावसायिक मज़बूरी है इसलिए “Maharani” की केंदीय भूमिका में हुमा कुरैशी है; हुमा के अभिनय प्रतिभा पर प्रश्न नहीं किन्तु उनके चरित्रांकन पर थोड़ी और सतर्कता बरते जाने की आवश्यकता है; ख़ासकर बिहारी वाचन शैली और बिहारी मिजाज़ (व्यक्तित्व) को लेकर। अभिनय के मूल चार आयाम हैं – आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य। इनमें से किसी भी एक की तनिक भी कमी अभिनय में खालीपन लाता है और बिना सत्व के आंगिक, वाचिक और आहार्य केवल सजावट बनकर रह जाते हैं और अभिनय कभी सजावटी कार्य होता नहीं हैं। हुमा में प्रतिभा की कोई कमी नहीं और यह सूक्ष्मता वाला भी विवरण है, जिससे आम दर्शक को इससे शायद कोई सरोकार होता भी नहीं है लेकिन अगर इसे भी दुरुस्त कर लिया जाता तो शायद उनके चरित्र की विश्वसनीयता और विश्वसनीय हो जाता। वैसे कला और जीवन में दोषहीन जैसा कुछ होता नहीं है लेकिन जो बात कहने की चेष्टा की जा रही है उसे एक छोटे से उदहारण से समझते हैं; महारानी क्ष को स बोलती हैं जबकि बिहार में अमूमन लोग क्ष को छ बोलते, स नहीं। वैसे भी बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी एक अलग और ख़ास वाचन पद्धति है, उसे भी बड़ी ही सतर्कतापूर्वक गौर करने की आवश्यकता है। यह काम ख़ुद कोई वैसा अभिनेता नहीं कर सकता जिसका दूर-दूर तक का उस क्षेत्र विशेष से कोई ख़ास नज़दीकी सरोकार ना हो बल्कि इसके लिए अलग से जानकार और तकनिकी रूप से दक्ष लोगों की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी बोलने का विज्ञान यह है कि हम पहले सुनते हैं फिर उसे बोलते हैं। प्रसिद्द नाट्य निर्देशक कारंत जी का एक कथन याद आता है – तानसेन बनने से पहले कानसेन बनना आवश्यक है।
एक स्थान पर लिट्टी बनाने का दृश्य है। अब कोई खांटी बिहारी सिरीज़ में लिट्टी बनाने का वह दृश्य जब देखेगा तब शायद मुस्कुरा दे क्योंकि वह प्रक्रिया वैसा नहीं है जैसा कि यहां दिखाया गया है और खांटी गांव की कोई लड़की अच्छे से जानती है कि गोयठा (कंडे) वाली लिट्टी मूलतः पकती कैसे है! सुभाष कपूर जैसा संवेदनशील क्रिएटर ने निश्चित रूप से इस ओर ध्यान दिया होगा, थोड़ा ध्यान और देने की आवश्यकता है। वैसे भी बतौर लेखक सुभाष कपूर, नन्दन सिंह और उमाशंकर सिंह ने परिवेश रचने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है तो लिखे आलेख और संवाद को प्रदर्शन आलेख में बदलने में थोड़ी सावधानी और बरती जाती तो आनंद और बढ़ जाता।
सीरिज़ के पहले भाग के निर्देशक करन शर्मा थे और दूसरे भाग के रविन्द्र गौतम हैं। रविन्द्र उत्तर प्रदेश से आते हैं। वैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में समानताएं बहुत हैं लेकिन कुछ बहुत ही छोटी-छोटी असमानता भी हैं, इनका समावेश सिरीज़ को और विश्सनीयता ही प्रदान करता। वैसे भी भारत विविधताओं वाला देश है और चीज़ें एक जैसी दिखते हुए भी हर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपनी विविधता उपस्थित करती हैं बशर्ते कि वो बाज़ार का माल न हो, वैसे आजकल बाज़ार ने स्वाद तक लील तो लिया है लेकिन सत्य यह भी है कि बिहारी लोग चीज़ों को अपने ही रंग में रंग देने के लिए कुख्यात भी हैं इसलिए पिज़्ज़ा यहां पिज्जवा हो जाता है और बर्गर बर्गरबा। वैसे सिरीज़ के इस दूसरे भाग में बिहार के बारे में एक संवाद राजनैतिक रूप से एकदम सही है कि “जैसे ही आपको लगता है आप बिहार को समझ गए हैं, बिहार आपको झटका देता है!” वैसे झटका तो आजकल देश की राजनीति भी किसी से कुछ कम नहीं दे रही है।
अब ज़रा बात अभिनय और अभिनेताओं की करते हैं। इस वेबसिरिज़ के दूसरे भाग में भी विनीत कुमार (गौरी शंकर पांडे), अमित सयाल (नवीन कुमार), कनी कुसृति (कावेरी), आशिक़ हुसैन (प्रेम कुमार), प्रमोद पाठक (मिश्रा जी), कुमार सौरव (सन्यासी), निर्मल कांत चौधरी (मुसाफ़िर बैठा), सुशिल पांडे (कुंवर सिंह), अतुल तिवारी (गोवर्धन दास), अनुजा साठे (कीर्ति सिंह), तरुण कुमार (मचान बाबा), दानिश इकबाल (दिलशाद मिर्ज़ा) और रोबिन दास (एकल मुंडा) आदि ज़्यादातर अभिनेता अपने-अपने स्थान पर एकदम से उचित हैं और अपने पहनावे, चाल-चलन और घटनाओं के माध्यम से बिहार (झारखण्ड समेत) के नेताओं की झलक भी प्रस्तुत करते हैं। विनीत कुमार को कहीं भी अभिनय करते देखकर एक नवांकुर अभिनेता यह सीख सकता है कि अभिनय की जड़ें होती हैं और उसमें धीरज और धैर्य के साथ वक्त लगता है तभी अभिनय पकता है, नहीं तो अभिनय के नाम पर जो कुछ भी होगा, वो पकाएगा। अब यह अभिनय की जड़ और उसका पकना-पकाना जिन्हें पता है उन्हें पता है, जिन्हें नहीं पता उनको नहीं ही पता। हुमा कुरैशी के बारे में बात हो चुकी है वहीं सोहम शाह (भीमा भारती) के चरित्र के साथ इस भाग में पता नहीं क्या खेला हुआ है कि उनका चरित्र कुछ ख़ास जमा नहीं। शायद हम एक मजबूत चरित्र का कठपुतली के रूप में परिवर्तित हो जाने को स्वीकार करनेवाले समाज और दर्शक हैं नहीं! हमें नायकों में जीत चाहिए, चाहे उसके भीतर नकात्व हो या ना हो! यहां शायद चरित्र का स्वाभाविक बहाव इतना वाधित हुआ है कि मामला कुछ जमाता ही नहीं है। इसमें दोष किसका है, पता नहीं! वहीं पहले भाग में दमदार उपस्थिति रहे इमेनुअल हक़ (परवेज़ आलम) याद आते हैं, हालांकि इनकी कमी शानदार अभिनेता देवेंदु भट्टाचार्य (मार्टिन एक्का) पूरी करते हैं लेकिन यह बदलाव एक लम्बी छलांग भी लगती है – बेवजह! हां, इस भाग में दुलारी यादव के रूप भारतीय रंगमंच पर लम्बे समय से कार्यरत अभिनेता सुकुमार टुडू की दमदार उपस्थिति एक उपलब्धि है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में टुडू और बेहतर भूमिकाओं में दिखेगें। प्रशांत कुमार (मनोज सिन्हा) और बुल्लू कुमार (छुलन) की उपस्थिति भी सिरीज़ में है, दोनों अच्छे अभिनेता हैं लेकिन इनके पास अपनी अभिनय प्रतिभा को दिखने के लिए यहां कोई ख़ास अवसर उपलब्ध नहीं हो पाया। कास्ट एंड क्रेडिट में भी चरित्र (मनोज) के स्थान पर अभिनेता (प्रशांत) और अभिनेता के स्थान पर चरित्र का नाम आना मानवीय गड़बड़ी है, जिसे ठीक किया जाना चाहिए।
सिरीज़ में बिहार की चर्चित लोक गायिका शारदा सिन्हा की आवाज़ में एक गीत सुनकर बिहारी मन का जुड़ा जाना एक आम बात है। हां, एक बात अलग से गौर करने लायक है वो यह कि पहले सीजन में एपिसोड का शीर्षक कबीर के पद थे – जात ना पूछो साधु की, देख तमाशा कुर्सी का, घूंघट के पट खोल, साधो ये मुर्दों का गांव, कौन ठगवा नगरिया लूटल हो, ना काहू से दोस्ती ना कहूं से बैर, बहुत कठिन है डगर पनघट की, माया महाठगनी हम जानी, चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ वहीं दूसरे भाग में कबीर ग़ायब हो जाते हैं और दूसरे भाग में शीर्षक आ जाता है – जंगलराज, दागी बने बाग़ी, विभाजन, आशीर्वाद, विनाशकाले विपरीत बुद्धि, पति पत्नी और वो, किंगमेकर, शह और मात, हवामहल और मास्टरमाइंड।
सबको पता है कि बिहार की पृष्ठभूमि में “Maharani” नामक चरित्र सच्चाई कम और एक जादुई यथार्थ ज़्यादा हैं। काश सच में बिहार में सच में कोई ऐसा राजनेता होता जो अपने परिवार, लोभ और लाभ से बड़ा बिहार को मानता। बहरहाल, सिरीज़ अब ऐसे मुक़ाम पर पहुंच चूका है जहां धर्म के रास्ते सत्ता का आगमन हो चूका है, अब आगे के भाग में यह देखना उत्सुकता पैदा करेगा कि जब धर्म के रास्ते सत्ता की प्राप्ति होती है तो उसके बाद देश और दुनिया में जो कुछ भी होता है उसका समवेश हो पाता है कि यहाँ भी मामला मामला जादुई यथार्थ बनकर ही रह जाएगा। ग़ालिब के शब्दों को उधार लेकर अगर कहें तो आगे – आग का दरिया है और डूब के जाना है! वैसे मुसाफ़िर बैठा जैसा भीषण जादुई नाम केवल बिहार में ही संभव है अर्थात एक ऐसा मुसाफ़िर जो बैठा हुआ है! बिहार की नियति भी कुछ ऐसी ही है!
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महारानी सीरिज, सोनी लिव पर उपलब्ध है।