Friday, April 19, 2024

‘All Quiet On The Western Front’ Hindi Review: एक युद्ध-विरोधी फ़िल्म

दुनिया में व्याप्त हर चीज़ की ही तरह सिनेमा के दो प्रकार हैं – अच्छा सिनेमा और बुरा सिनेमा। दोनों में मूल अंतर यह है कि अच्छा सिनेमा जहां अपने दर्शक को विभिन्न प्रकार से समृद्ध करती है, संवेदनशील बनाती है, वहीं बुरा सिनेमा तमाम भ्रमजाल फैलाकर केवल और केवल दोहन करती है। दुनिया भर में बुरा सिनेमा बहुत ज़्यादा है और अच्छा सिनेमा बहुत कम। ठीक वैसे ही बुरे सिनेमा के दर्शक बहुत ज़्यादा हैं, अच्छे के बहुत कम। फिर भी समय चाहे जैसा हो दुनिया से अच्छाई कभी ख़त्म नहीं होती, ठीक उसी प्रकार अच्छा सिनेमा भी बनता है जो ज्ञानवर्धक होता है, मानवीय मूल्यों को स्थापित करनेवाला होता है, इंसान के भीतर सत्य और सुंदर के लिए आस्था जगानेवाला होता है। मूलतः जर्मन भाषा में बनी यह एक ऐसी ही फ़िल्म है एक ऐसा ही सिनेमा है जो प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में मानवीय गाथा कहता है।

जर्मनी की बात आते ही हमें हिटलर की याद आने लगती लेकिन सत्य यह भी है कि हिटलर से पहले भी जर्मनी था और उसके बाद भी है। “All Quiet On The Western Front” में हिटलर के पहले वाली जर्मनी है और वो ज़मीन भी दिखाई पड़ती है जिसके ऊपर हिटलर यानि कि फासीवाद अपना पुदीना बोने वाला था और दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत और अनगिनत लोगों को कत्लेआम की आंधी में झोंकने वाला था; क्योंकि यह अकाट्य सत्य है कि न्याय के नाम पर किया गया अन्याय आख़िरकार एक और अन्याय को ही जन्म देगा और वह अन्याय और ज़्यादा अन्याय को पैदा करता है और इस प्रकार अन्याय की एक पूरी श्रृंखला तैयार होती जाती है। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति की शर्त के नाम पर जिस प्रकार जर्मनी को मजबूरन एक अपमानित करनेवाला समझौता पर हस्ताक्षर करना पड़ा, वो अपने आप में भीषण अन्यायपूर्ण था। जिसके बिना पर आगे चलकर जर्मनी में फासीवाद का उदय होता है और वो नफ़रत का एक ऐसा तांडव रचाते हैं कि जिसे याद करके आज भी किसी भी संवेदनशील इंसान का कलेजा कांप जाता है और उसे सहज ही यह विश्वास नहीं होता कि इंसान इतना बड़ा हैवान भी हो सकता है! वहीं हैवानियत के पुजारी उसे अपना आदर्श भी मानते हैं और धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर नफ़रत फ़ैलाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते – आज भी।

प्रथम विश्वयुद्ध की भयावहता का अद्भुत चित्रण इससे पहले स्टेनली कुब्रिक ने “Paths of Glory,” बारबरा तुच्मन ने  “The Guns of August,” पॉल फुसेल ने “The Great War and Modern Memory” आदि फ़िल्मों में बख़ूबी किया है। एरिक मारिया रेमरक्यु के महत्वपूर्ण उपन्यास All Quiet on the Western Front पर आधारित यह फ़िल्म इन महानतम फ़िल्मों की श्रेणी में स्थान रखता है या नहीं, यह तो भविष्य का विषय है। सन 1928 में यह उपन्यास मूलतः जर्मन भाषा में “Im Westen nichts Neues” नाम से लिखा और प्रकाशित हुआ था, जिसका अब तक कुल तीन बार फिल्मांकन हो चूका है लेकिन मूलतः जर्मन भाषा में यह पहला रूपांतरण है। इस उपन्यास का दूसरा भाग The Road Back (जर्मन नाम Der Weg zurück) सन 1929 में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास All Quiet on the Western Front के कुछ सैनिकों का प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात सामान्य नागरिक जीवन में वापस लौटने के संघर्ष की विस्तृत कहानी कहती है। अब एक हारे और अपमानित युद्ध के सैनिक का समाज में क्या स्वागत होता है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। समाज ने हमेशा विजेता का ही सम्मान किया है, इसके अलावा किसी अन्य के लिए इनके पास न हया है और न दया है। The Road Back नामक इस उपन्यास को नाज़ी जर्मनी में प्रतिबंधित कर दिया गया था और इसकी प्रतियां जलाई भी गई थी। The Road Back को भी आधार बनाकर अमेरिकी निर्देशक जेम्स वाले ने इसी नाम से सन 1937 में एक फ़िल्म भी बनाई थी।

- Advertisement -

“All Quiet on the Western Front” नामक यह फ़िल्म प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिमी सीमांत पर चल रहे उस व्यर्थ के युद्ध का फिल्मांकन है जो अक्तूबर 1914 से शुरू होकर नवम्बर 1918 तक चलता है लेकिन कोई भी सेना आगे नहीं बढ़ पाती; लेकिन दोनों तरफ़ से लड़ते हुए लगभग तीस लाख से अधिक सिपाही शहीद हो जाते हैं, वह भी केवल सौ मीटर आगे बढ़ने की कोशिश में। यह अलग से बताने की आवश्यकता शायद नहीं है कि प्रथम विश्वयुद्ध में लगभग एक करोड़ सत्तर लाख सैनिकों ने अपनी जान गंवाई थी, बाकी घायलों, आम नागरिकों की मौत और तबाही जो हुआ वह तो आज भी इतिहास की किताबों में दर्ज़ है।  

निर्देशक एडवर्ड बर्गर की “All Quiet On The Western Front” मूलतः एक जर्मन किशोर पॉल को मुख्य पात्र बनाते हुए युद्ध की भयावहता की कथा कहता है। पॉल एक किशोर है, जो देशभक्ति, रुमानीपन, हीरोपंथी और अपने दोस्तों के प्रभाव में के चक्कर में सेना में भर्ती होता है और युद्ध पर चला जाता है। वह शुरू में तो देश का नायक बनने के दिवास्वप्न देखता है लेकिन युद्ध की सच्चाई का अनुभव होते ही सारे आवरण फ़ना हो जाते हैं और फिर आगे जो कुछ भी घटित होता है वह युद्ध की व्यर्थता और उसकी अमानवीयता का साक्षात् प्रमाण प्रस्तुत करता है और साफ़-साफ़ दर्शाता है कि युद्ध एक राजनीतिक परिघटना मात्र है, जिसमें दोनों ही पक्षों के आम इंसानों को केवल खोना ही खोना होता है। दोनों तरफ़ से जान-माल का भीषण नुकसान होता है और बदले में फ़ालतू के गौरव या ग्लानि के अलावा और कुछ हासिल नहीं होता। राजनीतिज्ञ और उसके भक्त युद्ध और सैनिकों को केवल और केवल इसलिए पूजनीय बनाकर रखते हैं, कभी-कभी सैनिक के कपड़े पहन लेते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि जिस वक्त सैनिक भीषण अमानवीय स्थितियों से जूझ रहे होते हैं, ठीक उसी वक्त कोई नेता अपने कुत्ते को बोटी खिला रहा होता है।  

वास्तविकता का सामना होते ही लड़ाई में भाग ले रहे किशोर पॉल की स्थित किसी सन्निपात से पीड़ित इंसान जैसी हो जाती है। उसके सामने मारने और मरने के अलावा कोई अन्य विकल्प बचता ही नहीं है लेकिन ऐसा करते हुए भी वह अपने भीतर के इंसानियत को ज़िन्दा रखता है। वह दृश्य अपने आप में एक महागाथा की तरह बनकर उभरता है जब भीषण गोलीबारी के बीच एक गड्ढे में फंसा पॉल पहले तो उसी गड्ढे में आए अपने दुश्मन सिपाही को चाकुओं से गोद देता है लेकिन फिर उसकी जान बचने का भरसक प्रयत्न भी करता है और ऐसा करते हुए वह ज़ार-ज़ार रोता भी जाता है।

लगभग दो घंटे पच्चीस मिनट की “All Quiet On The Western Front” में संवाद कम दृश्य ज़्यादा हैं, जिसे निर्देशक और छायाकार ने अद्भुत रूप से फ़िल्माया है। कोई भी शॉर्ट जैसे शुरू होता है, जैसे मुक़ाम पर पहुंचता है और जैसे ख़त्म होता है – वह बड़ा शानदार है इस फ़िल्म में देखना। इसके लिए इस फ़िल्म के निर्देशन, छायांकन और सम्पादन की जीतनी तारीफ़ की जाए कम है। युद्ध के दृश्यों के लम्बे-लम्बे शॉर्ट्स जिस कमाल के साथ फिल्माया गया है, वो अतुलनीय हैं। विएफेक्स का प्रभाव भी वास्तविकता जैसा है। लगभग पूरी ही फ़िल्म ठण्ड, कीचड़ के बीच युद्ध के फिल्मांकन वाली है इसलिए अभिनेताओं ने जिन चुनौतियों का सामना करके इस फ़िल्म में अभिनय किया है, उसके लिए इनकी प्रशंसा की ही जानी चाहिए।

किसी महत्वपूर्ण उपन्यासिक कृति को नाटक और सिनेमा की परिधि में लाना और उसके विस्तार को पकड़ना, उसके लिखे शब्दों को दृश्य माध्यम में परिवर्तित करना एक चुनौती का काम तो है। पढ़ने का अपना मज़ा है और देखने का अपना और इंसान एक भीषण आलसी प्राणी भी है जिसे दो किताब पढ़ने को बोलिए तो संभव है उसे मिर्गी आने लगे लेकिन वही आदमी सिनेमा खटखट देखता है क्योंकि सिनेमा देखने में कोई मेहनत थोड़े ना लगता है। तो यह दोनों किताब पढ़ने का बोलकर मैं पाप क्यों मोल लूं, सिनेमा ही देख जाइए। “All Quiet on the Western Front” और “The Road Back” दोनों के सारे वर्जन उपलब्ध हैं इंटरनेट के महासागर में।  


फ़िल्म “All Quiet on the Western Front” को नेटफिल्क्स पर देखा जा सकता है|

पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

नए लेख