Friday, April 19, 2024

‘Jogi’ Hindi Review: यादगार हो सकती थी सामान्य हुई!

अस्सी का दशक, पंजाब में अलगाववादी ताकतों का सफ़ाया चल रहा था, जिसे कभी ख़ुद ही उस वक्त के राजनेताओं ने अपने राजनैतिक स्वर्थ की पूर्ति के लिए प्रश्रय दिया था। सबसे बड़ा मुहीम जो चला उसका नाम था – आपरेशन ब्लू स्टार। यह अभियान भारतीय सेना द्वारा 3 से 6 जून 1984 को अमृतसर (पंजाब, भारत) स्थित हरिमंदिर साहिब परिसर को ख़ालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों से मुक्त कराने के लिए चलाया गया अभियान था। भीषण ख़ून-ख़राबा हुआ और सिख समुदाय के लिए महत्वपूर्ण अकाल तख़्त पूरी तरह तबाह हो गया। स्वर्ण मंदिर रक्तरंजित हुआ और सदियों में पहली बार वहां से छह, सात और आठ जून को पाठ नहीं हो पाया। एक आंकड़े के अनुसार 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। 493 चरमपंथी या आम नागरिक मारे गए, 86 घायल हुए और 1592 को गिरफ़्तार किया गया। हालांकि यह आंकड़ा भी विवादित ही है।

इस कार्रवाई से सिख समुदाय की भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची और इसे सिक्खों ने अपने धर्म पर हमला माना। सिखों और कांग्रेस पार्टी के बीच दरार पैदा हो गई जो उस समय और गहरा गई जब दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने कुछ ही महीने बाद 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी। इसके बाद भड़के सिख विरोधी दंगों से कांग्रेस और सिखों की बीच की खाई और बड़ी हो गई। “Jogi” नामक यह फ़िल्म इसी पृष्ठभूमि में दिल्ली में हुए सीख विरोधी दंगों को केंद्र में रखते हुए चार दोस्तों के साथ ही साथ उस वक्त की सत्ता और व्यवस्था की बात करने की चेष्टा करते हुए हर हाल में मानवता का दामन थामे रखने की कोशिश करती है।

शानदार सिनेमा की एक ख़ासियत यह भी होती है कि उसमें मूल कथा के साथ ही साथ कई सारी उपकथाएं भी चलती रहती हैं। योगी की पटकथा में इसका भीषण अभाव है और यह अभाव इतना ज़्यादा है कि ना घटनाक्रम की पृष्ठभूमि अच्छे से साफ़ हो पाती है और ना ही चरित्रों को निर्माण का ही उचित अवसर मिलता है और रही सही कसर प्रेम कहानी और गाने ठूंसने की बीमारी पूरी कर देती है और आख़िरकार फ़िल्म बोझिलता को प्राप्त होती है।

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भारत जैसे देश में जहां बात-बात पर भावनाएं आहत होने का ड्रामा चलता रहता है वहां एतिहासिक घटनाओं पर फ़िल्म का निर्माण करना बड़े साहस का काम है और उसका एतिहासिक और बेवाक चित्रण के लिए तो जिगरा ही चाहिए, “Jogi” में इसका भीषण अभाव है जबकि “Jogi” में वो पूरी संभावना थी कि यह सिख विरोधी दंगों की पृष्ठभूमि पर यादगार और खरी-खरी जानकारी से युक्त एक ज्ञानवर्धक और एतिहासिक सिनेमा बनती लेकिन चीज़ों से (ख़ासकर राजनैतिक) मुंह चुराकर निकल जाना हमारी संस्कृति का हिस्सा है और यह फ़िल्म भी उसी संस्कृति का एक हिस्सा ही बनकर रह जाती है। खरी बात सुनने और देखने का साहस जब लोगों में ही नहीं है तो कोई अपना घर फूंकने और तमाशा देखने का साहस कोई कलाकार क्यों करे भला! शायद यही वो वजह है कि हम अपनी एतिहासिक गलतियों से सीख नहीं लेते और जो समाज या इंसान अपने इतिहास से शिक्षा ग्रहण नहीं करता वो एक ही ग़लती बार-बार दुहराता है और पहले से ज़्यादा मूढ़ता का प्रदर्शन करता है। हम पंजाब से सीख लेते तो गुजरात से बच जाते।

“Jogi” के कुछ बेहद सकारात्मक पहलु भी हैं। फ़िल्म दंगों के बीच इंसानियत के साथ खड़ा है, दंगें में राजनीति और व्यवस्था की भागेदारी साफ़-साफ़ है, दंगाइयों के चेहरे ढके हैं और इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये कोई भी हो सकते हैं, आंख में आसूं भरे अपने केश की क़ुर्बानी देते सिख भी पर्दे पर दिखते हैं, दंगों की भीषण भयावहता भी पर्दे पर साकार होती है लेकिन इन सबके बावजूद फ़िल्म शुरुआत के कुछ मिनटों के बाद ही अपना आकर्षण खोने लगती है और ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे बनानेवाले को अब समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या बनाए इसलिए वो कहीं से एक प्रेम कहानी ले आता है, गाने ठुंसता है और फिर फ्लैशबैक के भीतर फ्लैशबैक घुसेड़कर रस भंग करने लगता है और फिर यहीं एक सिनेमा के तौर पर सिनेमा हार जाती है और वो दिलजीत दोसांझ, कुमुद मिश्रा, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, हितेन तेजवानी, सदानंद पाटिल और सौरव चौहान जैसे मंझे हुए अभिनेता के होते हुए भी स्मृतियों में सदा के लिए अंकित हो जानेवाला यादगार सिनेमा बनने के बजाए एक सामान्य सिनेमा होकर रह जाती है।

फ़िल्म के निर्देशक मेरे ब्रदर की दुल्हन, गुंडे, सुल्तान, टाइगर ज़िन्दा है, भारत, ख़ाली पिली बनानेवाले अली अब्बास ज़फर हैं, उन्होंने तांडव जैसी सिरीज़ भी बनाई थी जिसमें भीषण विवाद हुआ था। निश्चित ही इस विवाद ने उन्हें यह सीख दी होगी कि दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंककर पीता है लेकिन यह भी सच है कि छांछ को फूंककर पीना स्वाभाविक क्रिया तो नहीं ही मानी जाएगी। यह संभव है कि दूध पीने में बार-बार जलने का ख़तरा बना रहे लेकिन अगर दूध पीना है तो यह ख़तरा तो मोल लेना ही होगा। इससे बचे तो ना दूध पी पाएगें और ना ही मलाई का ही मज़ा मिलेगा। बहरहाल, इतनी बातें इसलिए क्योंकि “Jogi” से उम्मीद थी और संभावना भी भरपूर थी वरना तो एक से एक वाहियात सिनेमा बन भी रहा है और लोग मज़े में देख भी रहे हैं! काश! “Jogi” को बनानेवाले थोड़ी साहस और दिखाते और उस दौर में बड़े-बड़े कॉंग्रेस के नेताओं द्वारा दिए गए हिंसक और क्रूरतम वक्तव्यों को सम्मिलित करते तो “Jogi” की सार्थकता शायद थोड़ी और बढ़ जाती। हालंकि यह वक्तव्य बाद का है लेकिन कौन भूल सकता है जो राजीव गांधी ने दिल्ली बोट क्लब में इकट्ठा भीड़ के सामने कहा – “जब इंदिरा जी की हत्या हुई थी, तो हमारे देश में कुछ दंगे-फसाद हुए थे। हमें मालूम है कि भारत की जनता को कितना क्रोध आया, कितना ग़ुस्सा आया और कुछ दिन के लिए लोगों को लगा कि भारत हिल रहा है। जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है।” देश के प्रधानमंत्री के गरिमामय पद पर होते हुए यह वक्तव्य क्या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी दिल्ली समेत देश के अन्य राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में सिख विरोधी दंगों में 3325 लोग मारे गए लोगों की हत्या को जायज ठहराने की कोशिश नहीं थी! वैसे उस दौर में क्या हुआ था उसकी एक बानगी का एहसास करने के लिए “Jogi” को एक बार देखना तो बनता ही है।


फ़िल्म “Jogi” को नेटफिल्क्स पर देखा जा सकता है|

पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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