जीवन की मूलभूत ज़रूरतों से निज़ात पाने की कला के लिए इंसान भले ही आजतक संघर्ष कर रहा हो लेकिन इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक का कर्मकांड पूर्वनिर्धारित है और धर्म के आवरण में लहालोट लोक परलोक के भय से अनगिनत कर्मकांडों को आज भी धूमधाम से सम्पन्न किया जाता है, वैसा ही एक कर्मकांड है इंसान के मरणोपरांत होनेवाला धार्मिक कर्मकांड। इसमें भले ही तर्क कम और मान्यताओं का स्थान ज़्यादा हो लेकिन इसे चाहे-अनचाहे निभाना सबको पड़ता है और जो किसी कारणवश इन चीज़ों के प्रति आस्थावान नहीं है उसे पगलैठ माना जाता है। अगर वो कोई स्त्री हो तब तो मानिए कि आग ही लग जाती है क्योंकि परंपरा और संस्कृति को निभाने का सबसे ज़्यादा भार इन्हीं स्त्रियों के ऊपर तो होता है।
नवविवाहित संध्या (सान्या मल्होत्रा) के पति का देहांत हो जाता है, घर में अपार दुःख का वतावारण है लेकिन वहीं संध्या स्मार्टफोन पर अपनी सहेली द्वारा अपने पति के देहांत वाली फेसबुक पोस्ट पर कमेंट पढ़ने में व्यस्त है। बचपन में उसकी बिल्ली कैटरीना का किसी दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी तब संध्या तीन दिन तक बिना खाए पीए रोती रही किंतु यहां उसे कोई दुःख की अनुभूति नहीं हो रही बल्कि उसे पेप्सी पीने का मन कर रहा है। यह सब क्यों हो रहा है, और आगे एक मध्यवर्गीय परिवार में क्या-क्या घटित होता है, इन्हीं सबकी मद्धम बखिया उधेड़ती फिल्म का नाम है ‘पगलैठ’।
वैसे यह मध्यवर्ग बड़ा ही अद्भुत वर्ग है, जिसे स्याह और सफ़ेद एक साथ ही होना है लेकिन उसे दिखना हमेशा सफ़ेद ही है। इस चक्कर में वो बेचारा हमेशा अपनी ऐसी तैसी कराता रहता है और जब कोई उसकी इस परत को उधेड़ता है तब पैदा होता है काला और यथर्थवादी हास्य, जिसे जानते हम सब हैं लेकिन शराफ़त के साक्षात नमूने बने रहने के चक्कर में मनाते नहीं है।
मध्यवर्गीय समाज के इस दोहरेपन सबसे पहले महेश एलकुंचवार ने अपने मराठी नाटक त्रयी वाड़ा चिड़ा बंदी (हिंदी में विरासत) में पकड़ा था और अभी कुछ महीने पहले आई फिल्म फिल्म रामप्रसाद की तेरवीं की भी कथा इन्हीं गलियारों में भटकती हैं, किंतु यह फिल्म इसलिए भी विशेष है क्योंकि इसके केंद्र में एक नवविवाहिता स्त्री है। अब ऐसे समाज में जहां स्त्री का अर्थ (अधिकतर) आज भी पुरुष की पूंछ हो, वहां स्त्री विमर्श और वो भी ख़ासकर पति की मृत्यु के बाद प्रचंड दुःखी होने के बजाए स्त्री के वजूद की तलाश, अंगार को हाथ में लेने का काम है लेकिन किसी कला की सार्थकता ही यही हैं वो दुनिया को और ज़्यादा सुंदर, कोमल और मानवीय बनाने के लिए कार्य करे न कि बेसिरपैर के “मनोरंजन” गढ़के अपने रसिकों को और बीमार करे।
फिल्म ‘पगलैठ’ का एहसास व्यंग्यात्मक है और इसे लेखक, निर्देशक उमेश बिष्ट, सहित सान्या मल्होत्रा, श्रुति शर्मा, सयानी गुप्ता, आशुतोष राणा, शीबा चड्ढा, राजेश तैलंग, रघुवीर यादव, महक ठाकुर, शरीब हाशमी, सचिन चौधरी, मेघना मलिक, जमीलखान, आसिफ़ खान, नताशा रस्तोगी, भूपेश पांड्या, नकुल सहदेव और चेतन शर्मा आदि अभिनेताओं ने बाखूबी निभाया है।
ऐसी फिल्मों में अतिनाटकीयता का समावेश हो जाना एक आम से रोग है और भारतीय सिनेमा उद्योग इस रोग के लिए विश्वप्रसिद्ध भी है लेकिन यहां निर्देशक ने कम से कम में ज़्यादा से ज़्यादा कहने की जो प्रवृत्ति अपनाई है उसने ना तो किसी अभिनेता को अतिवाद का शिकार होने दिया है और ना ही किसी परिस्थिति और संवाद को इसलिए यह फिल्म देखनेवालों को हंसाने और गुदगुदाने से ज़्यादा चुभने का कार्य करती है; ठीक ऐसे ही जैसा अपनी कोई बचकानी चोरी पकड़ेजाने पर हम ऊपर से मुस्कुराते हैं लेकिन भीतर ही भीतर हमारी क्या गति हो रही होती है, वो तो हम ही जानते हैं। वैसे भी व्यंग चुभता है और अर्थवान हास्य को हमेशा हास्यास्पद होने से बचे रहना होता है। समाज में परंपरा और संस्कृति के नाम पर बहुत सारी कुरीतियों ने आज भी अपने पैर मजबूती से जमा रखें हैं, ज़रूरत है उससे निज़ात पाने की और इस काम में सिनेमा, साहित्य और नाटक निश्चित ही एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
फिल्म ‘पगलैठ’ नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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