Ankahi Kahaniya (अनकही कहानियां) शीर्षक सुनते ही आपके मन में यह ख़्याल आता है कि चलो कुछ नया सुनने, देखने का स्वाद प्राप्त होगा और नवाचारी के फिराक में टहलता आपका मन उसे देखने-सुनने लगता है। आप नएपन की तलाश में अन्त तक देख जाते हैं और जब तक कहानियां ख़त्म होती है तब तक बीच-बीच में आपको विश्व सिनेमा की कई कल्ट फिल्मों की कतरनें याद आती रहती है और अंततः आप ठग लिए गए महसूस करते हैं। आप अनकही शब्द के अर्थ को पुनः समझने की चेष्टा करने लगते हैं और आपके मन में बार-बार यह विमर्श प्रस्फुटित होने लगता है कि इसमें अनकहा और अनदेखा जैसा क्या था! न कहानियां अनकही हैं और न इसका प्रस्तुतिकरण अनदेखा, तो आप पाते हैं कि माल वही पुराना ही बस आवरण नया जैसा है।
भारतीय सिनेमा वैसे भी एक ही कहानी को बार-बार और लगातार बनाने के लिए कुख्यातों की जमात में शामिल है, और नवाचार से भयाक्रांत रहता है जबकि भारतीय इतिहास, वर्तमान और भविष्य कहानियों के भंडारण से ओतप्रोत हैं। जहां भी बैठिए कहानियां ही कहानियां है, जहां भी जाइए घटनाएं ही घटनाएं है लेकिन यथार्थ जगत को बिसराकर फ़र्ज़ी कल्पनालोक में विचरण करानेवाले लोगों को इन बातों से क्या सरोकार! अरे, इन बातों के बीच असली बात कहना तो भूल ही गया कि अभी नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है – Ankahi Kahaniya और इतनी बात इसलिए हुई क्योंकि इसमें अनकहा शब्द जुड़ा हुआ है। वैसे एक प्रचलित जुमला यहां यह भी है कि कुछ भी अनकहा नहीं है बल्कि बाबा आदम के ज़माने में ही सबकुछ कह दिया गया है और जो नहीं कहा गया है उसका कहीं कोई वजूद ही नहीं है। अब बाबा आदम के ज़माने की इस बात पर कौन यक़ीन करता है, पता नहीं।
Ankahi Kahaniya फ़िल्म में बिना किसी शीर्षक के अलग-अलग परिवेश, वर्ग और चरित्र की कुल तीन कहानियां है और तीनों में केंद्र में हिंदी सिनेमा का साश्वत विषय प्रेम है, इन्हें लिखा है पीयूष गुप्ता, हुसैन हैदरी, श्रेयस जैन, ज़ीनत लखानी और नितेश तिवारी ने और निर्देशित किया है अभिषेक चौबे, साकेत चौधरी और अश्विन अय्यर तिवारी ने। पटकथा लेखक, निर्देशक और निर्माता अभिषेक चौबे के खाते में बतौर लेखक द ब्लू अम्ब्रेला, ओमकार, ब्लड ब्रदर, कमीने, मटरू की बिजली का मंडोला, सोनचिड़िया, निर्माता के रूप में ए डेथ ऑन ए गूंज और रात अकेली है व निर्देशक के बतौर इश्किया, डेढ़ इश्किया, उड़ता पंजाब, सोनचिड़िया और रे जैसी फ़िल्म के साथ ही साथ कई सम्मानित पुरस्कार दर्ज़ हैं।
लेखक-निर्देशक साकेत चौधरी के खाते में प्यार के साइड इफेक्ट्स, शादी के साइड इफेक्ट्स और हिंदी मीडियम दर्ज़ हैं और वहीं अश्विनी अय्यर तिवारी नील बटे सन्नाटा, बरेली की बर्फ़ी और पंगा जैसी फ़िल्मों के लिए जानी जाती हैं। यह तीनों निर्देशक ऐसे हैं जिन्हें अर्थवान सिनेमा के चहेते आशा भरी नज़रों देखते हैं किंतु Ankahi Kahaniya नामक यह फ़िल्म इन तीनों का कद बढ़ाने में कोई योगदान नहीं करती और कुल मिलाकर एक बड़ी ही सामान्य सी परिघटना बनाकर रह जाती है। यहां वैसा कुछ भी नहीं जो याद रह जाए और ऐसा कुछ भी नहीं जो विश्व सिनेमा के फ़िलिमची लोगों ने पहली बार देखा हो। वो चाहे एक इंसान और मशीन/पुतले से स्नेह हो, दो किशोरावस्था के लोगों का आंखों ही आंखों में स्नेह और आज़ादी या फिर दो जोड़ो का अपने-अपने पति/पत्नी के रिश्ते की पड़ताल। इस क्रम में देखनेवालों को कभी हर नामक फ़िल्म याद आती है कभी सैराट तो कभी इन द मूड ऑफ लव।
बाक़ी जहां तक सवाल अभिनेताओं का है तो उनके ज़िम्मे जो काम था उसे अभिषेक बैनर्जी, रिंकू राजगुरु, देल्ज़ाद हिवाले, कुणाल कपूर, ज़ोया हुसैन, निखिल द्विवेदी और पौलमी घोष उचित ही निभा ले जाते हैं। रिंकू राजगुरु सैराट के बाद भारतीय सिनेमा में नई सनसनी बन के उभरी थीं लेकिन दुःखद बाद यह है कि अभी तक उन्हें ऐसी कोई अन्य फ़िल्म मिली ही नहीं है जो उनकी प्रतिभा के साथ पूर्णतः न्याय कर सकते और हद तो यह है कि अभी तक उनके हिस्से इस फ़िल्म के अलावा केवल एक टीवी सीरीज़ हंड्रेड और दर्ज़ है, जो कब आई और कब गई किसी को नहीं पता।
कुल मिलाकर बात इतनी की भारतीय सिनेमा उद्योग से जुड़े लोगों को लक़ीर के फ़क़ीर और कल्ट को कंट्रोल ए, कंट्रोल सी और कंट्रोल वी करने से बचना चाहिए और भारतीयता को अपनी कला में समाहित करते हुए थोड़ा चुनौतियों और जोख़िम को आत्मसात करके सच में लाखों अनकही कहानियों की तरफ़ रुख़ करना चाहिए, वरना तो बासीपन से लबरेज़ माल पुराना पैकेट नया वाला दशकों पुराना खेल ही चलता रहेगा।
Ankahi Kahaniya (अनकही कहानियां) नेटफ़िल्क्स पर देखी जा सकती है |
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