साल – 2004 | स्थान – नागपुर सत्र न्यायालय का कमरा नंबर 7 | आरोपी – कालीचरण उर्फ अक्कु यादव | आरोप – कस्तूरबा नगर की 40 से अधिक औरतों का बलात्कार एवं हत्या | 10 साल तक इलाके में दहशत व आतंक फैलाना | घटना – नागपुर पुलिस जैसे ही अक्कु यादव को पेशी के लिए अदालत ले कर आई, लगभग 200 औरतों ने अदालत में ही उस दरिन्दे की हत्या कर दी | कार्यवाही – नागपुर पुलिस ने लगभग 100 लोगों को गिरफ्तार किया और 18 लोगों पर क़त्ल का मामला दर्ज किया गया | फैसला – इस मामले में पाँच हत्या आरोपी महिलाओं समेत सभी 18 लोगों को सबूत के आभाव में नागपुर जिला व सत्र न्यायालय ने बाइज्ज़त बरी कर दिया था | यह उस वास्तविक घटना के तथ्य हैं, जिससे निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की फ़िल्म 200 Halla Ho (हल्ला हो) प्रेरित है।
200 Halla Ho (हल्ला हो) में अक्कु यादव की जगह बल्ली चौधरी है, कस्तूरबा नगर की जगह राही नगर है और आशा सुर्वी (रिंकू रघुराज) , विट्ठल डांगले (अमोल पालेकर) , उमेश जोशी (वरुण सोबती) जैसे कुछ काल्पनिक पात्र हैं।
फ़िल्म की शुरुआत भीतर-भीतर धधकने वाले गुस्से के प्रतीक प्रेशर कुकर के साथ होती है। गुस्सा जब फूटता है तो राही नगर की करीबन 200 दलित महिलाएँ बल्ली चौधरी के कुकर्मों का हिसाब करती हैं। कुछ दिन बाद चुनाव होने वाला है इसलिए पुलिस इस लोमहर्षक घटना को दलित मुद्दा नहीं बनने देना चाहती है। जल्दी से जल्दी मामले को रफा-दफा करने की कवायद शुरू होती है। पुलिस राही नगर बस्ती की पाँच महिलाओं को थाने उठा लाती है। जहाँ उन्हें मारा-पीटा जाता है। बस्ती के लोगों के विरोध-प्रदर्शन और मीडिया की सक्रियता के बावजूद झूठी गवाही के आधार पर उन पाँच महिलाओं को आजीवन कारावास की सजा सुना दी जाती है।
इसी बीच हम देखते हैं कि महिला अधिकार आयोग (Women’s Right Commission) की तरफ से इस मामले के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश विट्ठल डांगले (अमोल पालेकर) की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र फैक्ट फाइंडिंग कमेटी का गठन किया जाता है। यह कमेटी किसी सच्चाई तक पहुँच पाती इससे पहले ही राजनीतिक दखलंदाज़ी के कारण इसे भंग कर दिया जाता है।
विट्ठल डांगले को हमेशा खुद का सफल ‘दलित’ जज कहलाना अखरता था। वह सफल दलित से सफल प्रोफेशनल बनने की यात्रा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सारी ज़िन्दगी खुद को जाति निरपेक्ष रखने की कोशिश की लेकिन समाज उनकी जाति से निरपेक्ष नहीं रह सका। उन्हें हमेशा दलित जज के रूप में ही देखा गया। जाति से परे जाने की उनकी आंतरिक जद्दोजहद, अंततः उन्हें अपने समुदाय की जमीनी हकीकत से परे लेकर चली गई। फ़िल्म में सजायाफ्ता ताराबाई काम्बले, सेवानिवृत्त जज विट्ठल डांगले से कहती है, “खुशबू वाले साबुन से नहाते हैं ना? साफ़ कपड़े पहनते हैं न? बड़ी-बड़ी गाड़ी में घूमते हैं ना? आप नहीं समझेंगे।” राही नगर की महिलाओं से जुड़ी इस घटना के माध्यम से डांगले को अपनी हवाई दुनिया की सच्चाई पता चलती है, जिसके बाद वह वापस जमीन से जुड़ने की कोशिश करते हैं।
राही नगर की आशा सुर्वे (रिंकू रघुराज) एक मज़बूत इरादों वाली साहसी लड़की है | जिसने सबसे पहले बल्ली चौधरी के अत्याचार के खिलाफ़ प्रतिरोध करने की हिम्मत दिखाई थी | आशा के साहस ने ही बस्ती की औरतों को अन्याय के विरुद्ध खड़े होने हौसला दिया था | उसके पास दूसरे शहर में नौकरी करते हुए आराम से जीवन जीने का विकल्प था लेकिन वह यह कहते हुए, “वहां (दूसरे शहर में नौकरी और आराम वाली ज़िन्दगी) सब अच्छा है लेकिन सच नही है, मुझे यहाँ मेरे सच को अच्छा करना है…” अपने बस्ती वालों के हक़ के लिए लड़ना चुनती है | आशा के साथ-साथ उसका वकील दोस्त उमेश जोशी (वरुण सोबती) भी उन दलित महिलाओं के संग खड़ा होता है | फ़िल्म में आशा और उमेश के बीच प्रेम का कोण भी रखा गया है | लेकिन समस्या यह है कि लड़का ब्रह्मण है और लड़की दलित | “तुम्हारा ब्रह्मण परिवार एक दलित बहू को अपना लेता?” लड़की लड़के से इन सवालों का जवाब जानना चाहती है, वह शांत रह जाता है लेकिन जवाब हम सब जानते ही हैं |
आशा और उमेश की कोशिशों से उन पाँच दलित महिलाओं को मिली सज़ा के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील दायर की जाती है | पुलिस नही चाहती है कि यह केस दुबारा खुले क्योंकि इससे पुलिस की बहुत किरकिरी होगी | बल्ली चौधरी को पहुँचे हुए राजनीतिक व्यक्ति का संरक्षण मिला हुआ था | इसलिए राजनीतिक गलियारों का तापमान भी बढ़ने लगा | हर तरह की ज़ोर आज़माइश की जाने लगी कि मामला हाई कोर्ट ना पहुचें | जब राही नगर की यह संसाधनहीन दलित महिलाएं सत्ता, क़ानूनी तकनीकियों के आगे बेबस पड़ने लगी तब विट्ठल डांगले उनकी आवाज़ बनकर सामने आए | फ़िल्म के आखिरी दृश्य में उनका कहा गया संवाद समाज को आगाह करता है “अगर न्याय व्यवस्था से उम्मीद खत्म हो गई तो सड़कों पर न्याय होगा |”
फ़िल्म 200 Halla Ho (हल्ला हो) में गौरव शर्मा के लिखे संवाद जगह-जगह पर हमें हमारे समाज की बजबजाती सच्चाई दिखाते हैं | चंद नमूने हाज़िर हैं,
कानून में चाहे जो लिखा हो बाहर की दुनिया पैसे, ताकत, और सत्ता से चलती है, यह समझाते हुए एक पुलिस अधिकारी अपने जूनियर से कहता है, “कानून की किताब में एक सिस्टम लिखा है और इस सिस्टम को चलाने के लिए बाहर एक और सिस्टम बना है | यह डांगले जैसे लोग सिर्फ किताब के सिस्टम को मानते हैं इसलिए यह बाहर के सिस्टम के लिए हमेश खतरा बने रहते हैं |”
आशा सुर्वे कहती है, “जाति के बारे में क्यूँ ना बोलूँ, सर ? जब हर बार हमें हमारी जाति याद दिलाई जाती है तो हम जाति को मुद्दा क्यूँ नही बनाएंगे ?”
“संविधान में लिखे शब्दों को सिर्फ याद रखना काफी नहीं, उनका इस्तेमाल होना ज्यादा ज़रूरी है |”
अमोल पालेकर अपने किरदार में जमते हैं | उनका शांत, धीर-गंभीर व्यक्तित्व और संवाद आदायगी एक सेवानिवृत्त जज के अनुरूप है | रिंकू रघुराज के चेहरे पर दबा हुआ गुस्सा साफ़ नज़र आता है | वह अपनी आँखों से काफी कुछ बोलती हुई लगती हैं | उपेन्द्र लिमेय का अभिनय प्रभावी है | इस हद तक कि उनके द्वारा निभाए गए किरदार इंस्पेक्टर सुरेश पाटिल के काइयांपन से चिढ़ होती है | इन्द्रनील मुखर्जी, वरुण सोबती और साहिल खट्टर अपने-अपने किरदार में ठीक लगे हैं |
फ़िल्म के लेखक अभिजीत दास और सौम्यजीत रॉय दलित समाज से जुड़े ज़रूरी प्रश्नों को अपनी कहानी का आधार बनाते हैं | एक समाज के तौर पर इन प्रश्नों से हमें निपटना ही होगा | इनकी अनदेखी करने से काम नही चलेगा | निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने बिना लाग लपेट के कहानी को स्क्रीन पर उतार दिया है |
फ़िल्म 200 Halla Ho (हल्ला हो) Zee5 पर उपलब्ध है |
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