Friday, April 26, 2024

लक्ष्मी (2020) : करना क्या चाहता है यह लड़का!

अंधिविश्वास फैलाने में महारत हासिल किए 80 और 90 के दशक का बी ग्रेड भूतहा सिनेमा की कहानी, टीवी चैनल पर आने वाला कॉमेडी सर्कस का बेसिरपैर की स्क्रिप, किसी भी प्रकार पैसा कमाने का भयंकर भूखा एक फिल्म स्टार, वर्तमान के कुछ बेहद संवेदनशील मुद्दे (हिन्दू मुस्लिम शादी, ट्रांसजेंडर्स) की बेहद सरस सलील जैसी अश्लील समझ, युवाओं के बीच प्रचंड रूप से सुना जानेवाला अफीमी संगीत और उसका नयनाभिरामी फिल्मांकन और ढ़ेर सारी लोकप्रियतावाद से पीड़ित अभिनय, सम्पादन और निर्देशन व व्हीएफएक्स की तकनीक को अगर एक बाबा आदम के ज़माने के जूसर में डालकर दो घंटे के आसपास चलाया जाए तो जो चरस निकलेगी उसी का नाम है यह फिल्म लक्ष्मी । पहले इस प्रकार की फिल्म हेमंत बिरजे के जैसा कोई खलिहार और अभिनय में माइन्स स्थान वाला अभिनेता करता था, आजकल देश के टॉप स्टार करते हैं और खुलेआम अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं। पहले यह देश के बी ग्रेड सेंटर्स को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी, अब सारे सेंटर का ग्रेड आश्चर्यजनक रूप से एक हो गया है, क्या मल्टीप्लेक्स, क्या सिनेमाहॉल और क्या ओटीपी का प्लेटफॉर्म, अब सबका एक ही हाल है। पहले फिल्में मुंहा-मुँही प्रचार से चलती थी लेकिन अब सोशलमीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से इन फिल्मों का ऐसा आतंक बनाया जाता है कि इंसान को लगने लगता है कि जैसे अगर यह फिल्म उसने न देखी तो जैसे बहुत बड़ा कोई गुनाह हो जाएगा और जब जब अच्छी या बुरी या बहुत बुरी फिल्म का पता लगता है तबतक यह फिल्म सौ-दो सौ करोड़ कमा चुकी होती है। वैसे ज़्यादातर लोगों को अच्छे-बुरे से मतलब ही नहीं होता है क्योंकि वो दर्शक नहीं विक्टिम हैं। तब एक ही बात समझ में आती है कि ऐसे सिनेमावालों को केवल और केवल पैसा कमाना है भले ही सिनेमा के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण ही क्यों ना बेचना पड़े!

अब तो ज़माना ऐसा भी है कि फिल्म को प्रचारित करने के लिए उसके प्रदशित होने से ठीक पहले उस फिल्म को लेकर जानबूझकर कोई विवाद ठीक वैसे ही बनाई जाती है जैसे कोई बड़ा चुनाव आने या कोई बड़ा घोटाला उजागर होने या सरकारी असफलता के सामने आने या सरकार जब कोई बहुत बड़ा सरकारी माल बेच रही हो तब हिन्दू ख़तरे में चल जाता है, पाकिस्तान सीमा पर गोलीबारी करने लगता है और चीन का बहिष्कार करना है आदि की रस्मअदायगी होने लगती है। ठीक वैसे ही किसी फिल्म को लेकर किसी प्रकार की आग भड़काई जाती है। फिर फिल्म वाले फिल्म के टाइटल में थोड़ा सम्पादन कर देते हैं और सम्पादित कर देने मात्र से आहत भावनाएं ठीक उसी प्रकार शांत पड़ जातीं हैं जैसे पता नहीं क्या अगड़म बगड़म मंत्र पढ़कर ज़मज़म का पानी डालने से शरीर के अंदर विद्दमान भयंकर से भयंकर ख़तरनाक भूत अपनी लंगोटी लिए बिना भाग खड़ा होता है। इस फिल्म को लेकर भी मामला गर्म किया गया और बहिष्कार का ट्रेंड भी चला, कुछ खलिहार फिल्मी अभिनेताओं ने लव ज़ेहाद और हिन्दू देवी के नाम के साथ छेड़छाड़ के नाम पर धर्म की रक्षा का बीड़ा भी उठाया और दो चार दिन मीडिया, सोशल मीडिया में बने रहे लेकिन जैसे ही लक्ष्मी बम से बम निकाला गया, सब किसी और चीज़ की ओर मुंह करके हुआँ हुआँ करने लगे। वैसे भी फिल्म का हाइप बनाने का उनका काम सफल हो चुका था क्योंकि आजकल काम सकारात्मक ही नहीं बल्कि नकारात्मक प्रचार से भी बनता है। लोगों ने नकारात्मक ऊर्जा को पहचान लिया है और अब उसका प्रयोग अपने हित को साधने में हर तरफ पुरज़ोर रूप से करने लगे हैं। अब सरफात गई तेल लेने, जब देश के शीर्ष पद पर बैठे लोग पद की गरिमा के विपरीत बात करके महालोकप्रियता का तमगा बनाने रखते हैं तो यह तो एक सिनेमा मात्र की बात है। वैसे भी कहावत मशहूर है – बदनाम हुए तो कुछ हुआ, नाम तो हुआ ही! ठीक वैसे ही एक व्यावसायिक मानसिकता से पीड़ित दिमाग को अपने नफे से मतलब होता है वो नफा चाहे झूठ और फरेब से क्यों न कामाई जाए!

लक्ष्मी का नायक (हालांकि नायकत्व की किसी भी परिभाषा में इसे नायक नहीं माना जा सकता है) शुरुआत के ही दृश्यों में विज्ञानिक रूप से अंधिविश्वास का पर्दाफ़ाश करता है और यह विश्वास जगाता है कि आगे यह भूत-पिशाच के ख़िलाफ़ वैज्ञानिक चेतना का प्रचार करेगा लेकिन थोड़ी ही देर में उसके भीतर एक आत्मा (?) समाहित हो जाती है, विज्ञान की आत्मा उसके बाद तड़प-तड़प के वहीं दम तोड़ देती है और अंधिविश्वास सबसे माथे पर चढ़कर नाचने लगता है। अब भूत है तो भूतिया सिनेमा के लिए तैयार रेसिपी की अनिवार्यता भी आवश्यक है और वो यहां भी प्रचूर मात्रा में है – कहीं कोई एक ज़ुल्म, बिना जलाई लाश, एक भुतहा स्थान, आत्मा बदले की भावना से तड़प रही और आत्मा को बाहर आने के लिए कोई एक घटना, रात, अपनेआप खुलती और बंद होती खिड़की दरवाज़े, रोने-धोने-हंसने की आवाज़ें, बादल का घिर जाना, कुत्ते और सियार का रोना, फिर कोई बाबा या तांत्रिक जिसके पास भले ही भूख प्यास ग़रीबी बेरोज़गारी के लिए कोई मंत्र न हो लेकिन बड़े से बड़ा भूत प्रेत चुडैल डायन शैतान को शांत करने का एक से एक फार्मूला है आदि आदि का मसाला और एक बिकाऊ फॉर्मूला वाला तड़का भी तो है ही। फिल्म लक्ष्मी का मानना है की तर्क गया तेल लेने बल्कि ख़बरदार जो ग़लती से भी दिमाग़ लगाया तो। बाक़ी फ़िलहाल यह तय करना बड़ा मुश्किल हो रहा है कि हाउसफुल चार इससे ज़्यादा बुरी थी या यह वाली फिल्म हाउसफुल चार से बुरे के मामले में चार क़दम आगे हैं। अगर आप भूल जाएं कि संसार में गरुत्वाककर्षण जैसी कोई चीज़ है तो यह सिनेमा बहुत मज़ा देगी। वैसे संसार ने तर्क के स्थान पर आस्था का हाथ न जाने कब का थाम लिया है और सांस्कृतिक प्रदूषण को ही संस्कृति मान लिया है।

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फिल्म लक्ष्मी में एक स्थान पर अक्षय के चरित्र की हरकत को देखकर बाक़ी चरित्र कह उठते हैं – करना क्या चाहता है यह लड़का! मेरे मन में अक्षय को लेकर आजकल यही सवाल उठने लगे हैं। वैसे सारा भ्रम तो उसी दिन ही दूर हो गया था जब एन्थिनी हॉकिन्स के निभाए फिल्म The Silence of The Lambs के महानतम चरित्र को संघर्ष नामक भद्दी नकल वाली फिल्म में अक्षय कुमार साहब ने बहुत ही वाहियात सा अभिनय किया था। उसी दिन आंखे खुल गई थीं लेकिन क्या करें, इंसान को सद्बुद्धि कभी ही आ ही सकती है। इसलिए हम उम्मीद करेगें कि अक्की भाई साहब के ऊपर किसी भी प्रकार से पैसा कमाने का भूत जल्द से जल्द उतरे और उन्हें इसका भान हो कि कलाकारी एक सामाजिक ज़िम्मेवारी का भी काम है! नहीं तो “आप आम काटकर खाते हैं या चूसकर” वाला काम ही शुरू कर देना चाहिए। वैसे कला और कलाकारी का काम लोगों के सांस्कृतिक स्तर को ऊंचा उठाना भी होता है, उनका सांस्कृतिक दोहन करना और उसके मार्फ़त केवल मुनाफा बनाना फरेब कहा जाता है। 


लक्ष्मी फिल्म Disney+Hotstar पर उपलब्ध है।

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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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