लोकतंत्र में सरकार को अमूमन अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के इस कथन द्वारा परिभाषित करने का प्रचलन है – जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए किया जाने वाला शासन। इस कथन में कुछ ग़लत भी नहीं है लेकिन क्या लोकतंत्र में सरकारें अमूमन इस कथन को सत्य साबित करतीं हैं? इसका सीधा सा जवाब है – हां, करती हैं लेकिन आंशिक रूप से। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसी सरकारों की कभी कोई कमी नहीं रहीं जो जनता की भावनाओं को उद्वेलित करके सत्ता पर काबिज़ होती हैं और जनसेवा का प्रलाप करते हुए किसी और की सेवा में व्यस्त रहती है और जब बुद्धिजीवियों, कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि का कोई समूह उसके इस जघंतम कृत्य के ख़िलाफ़ आंदोलनरत होती है तो उन्हें सत्ता पोषित भिन्न-भिन्न साजिशों में फंसाकर, झूठमूठ की न्यायिक प्रक्रिया चलाकर और सज़ा देकर प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे ही सच्ची घटना पर आधारित एक भीषण इतिहास की कहानी है अरोन सोर्किन लिखित और निर्देशित फिल्म द ट्राइल ऑफ़ शिकागो 7 । जो लोग भी अरोन सोर्किन के नाम से परिचित है उन्हें मालूम है कि वो ए फ्यू गुड मैन, द फर्न्सवर्थ इन्वेंशन और हार्पर ली के उपन्यास पर आधारित नाटक तू किल अ मोकिंग बर्ड आदि ब्रोडवे नाटक के साथ ही साथ ए फ्यू गुड मैन, द अमेरिकन प्रसीडेंट, चार्ली विल्सन वार, मनीबॉल, स्टीव जॉब्स, द सोशल नेटवर्क फिल्मों के साथ ही साथ कई टीवी शो लिखकर आज मनोरंजन उद्योग में लेखन की दुनिया में एक प्रतिष्ठित नाम हैं।
सत्य घटनाओं पर नाटक, फिल्म या साहित्य लिखना काजल की कोठरी में प्रवेश करने जैसा काम होता है, जो भीषण शोध की मांग करता है और उसके ऊपर शर्त यह कि यह नाटक, फिल्म और साहित्य की कसौटी पर खरा भी उतरे। चुनौती तब और बढ़ जाती है जब लगभग पूरी ही कृति एक अदालती ड्रामा हो। द ट्राइल ऑफ़ शिकागो 7 इस कसौटी पर खरी उतरती है और अद्भुत बात यह है कि फिल्म किसी भी प्रकार की अतिरंजना से बची रहती है। दृश्यों का समवेश इतना सार्थक है कि फिल्म बड़ी ही कुशलतापूर्वक और निर्भीकता के साथ वह बात आख़िरकार कहती ही कहती है जिसके लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है। किसी भी सार्थक कला के लिए एतिहासिक, सैधांतिक, राजनीतिक आदि रूप से सत्य का साथी होना और भवनात्मक समाधान के बजाय तार्किकता का दामन थामना ज़्यादा सार्थक काम होता है। “पूरी दुनिया देख रही है” के घोष के साथ यह फिल्म जब समाप्त होती है तब यह अपने देखनेवालों के दिमाग में बड़ी ही कुशलता के साथ उस एतिहासिक घटनाक्रम का दूध का दूध और पानी का पानी कर चुकी होती है। काश भारत में भी ऐसी हिम्मत कोई दिखाता!
लगभग बीस साल तक चले वियतनाम युद्द (1955 से 1975) की गिनती आज दुनिया के सबसे वाहियात और फ़ालतू के युद्धों में होती है। इसी युद्ध के विरोध में सन 1968 के अगस्त में डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन के रूप में यूथ इंटर्नेशनल पार्टी, नेशनल मोब्लाइज़ेशन कमिटी टू एंड द वार इन वियतनाम, वूमेन स्ट्राइक फॉर पीस और साउथेन क्रिश्चियन लीडरशिप कांफ्रेंस आदि संगठनों से जुड़े लोग एक प्रदर्शन आयोजित करते हैं, लेकिन वहां हिंसा भड़क उठती है और उस हिंसा में जान माल का बहुत नुकसान होता है। प्रदर्शन के पांच महीने बाद प्रदर्शन आयोजित करनेवाले कुछ नेताओं को हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया जाता है और फिर शुरू होता है द ट्राइल ऑफ़ शिकागो सात का खेल। अब यह हिंसा भड़की या सत्ता पोषित तंत्र के माध्यम से भड़काई गई और इसमें किसका कितना योगदान था, इसी की पड़ताल करती है यह शानदार फिल्म। वैसे हिंसा भड़कने, भड़काने का यह खेल लोकतंत्र में आज भी बड़े ही शान और बेशर्मी से खेला जाता है यकीन नहीं तो अभी हाल ही में दुनियाभर में भड़की हिंसा को तटस्थ होकर व्याख्या कर लीजिए।
द ट्राइल ऑफ़ शिकागो 7 देखकर आप अरोन सोर्किन की लेखन की प्रतिभा का क़ायल हुए बिना नहीं रह सकते। सोकिन ने यह फिल्म स्पिल्वर्ग के लिए लिखी थी लेकिन किन्हीं कारणों से वो इसे निर्देशित नहीं कर पाए, अगर करते तो पता नहीं और क्या जादू पैदा होती इस फिल्म में। वैसे यह फिल्म जो बनी है वो भी अपनेआप में सार्थक है और वर्तमान समय में बेहद ज़रूरी फिल्म बनकर उभरती है, जिसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा। जहां तक सवाल अभिनेताओं के काम का है तो यहां सबकुछ इतना ज़्यादा महाकाव्य की तरह है कि आप किसी एक अभिनेता के काम को रेखांकित करने के बजाए सामूहिकता में पूरी फिल्म को रेखांकित करना ज़्यादा उपयोगी समझेगें। वैसे भी इस पूरी फिल्म पर बतौर लेखक और निर्देशक अरोन सोर्किन की पकड़ ज़्यादा मजबूत है और यहां अभिनय समेत बाक़ी सारे विभाग एक बड़े उद्देश्य के लिए कार्य कर रहे हैं और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी भी है और शायद कमज़ोरी भी।
फिल्म द ट्राइल ऑफ़ शिकागो 7 नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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