Friday, March 29, 2024

‘सरदार का ग्रेंडसन’ का बुलबुला।

आप जिनसे स्नेह करते हैं वो आपके दिल और जिनसे नफ़रत करते हैं, वो आपके दिमाग पर राज करते हैं। दोनों में संवेदनाओं का महत्व अत्याधिक होता है, जिसका प्रयोग बड़ी कुशलतापूर्वक नेता और व्यापारी मानसिकता वाले लोग करते हैं और मुनाफ़ कमाते हैं। भारतीय मनोरंजन जगत इस खेल में कभी पीछे नहीं रहा। वो समय-समय पर हमारी इन भावनाओं को भरपूर भुनाने का प्रयत्न करता है, इसलिए कभी अंग्रेज़ों, तो कभी चीनी तो कभी पाकिस्तान और पाकिस्तानी हमारी फिल्मों के खलनायक, विषय-वस्तु या पात्र बनते रहे और हम इन्हें देखकर अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति और आपूर्ति को भावना के स्तर पर अंजाम देते रहे। इन सारी प्रक्रिया में हमारे संवेदनात्मक ज्ञान को ख़ुराक मिलती रही जबकि हमारी ज्ञानात्मक संवेदना और ज़्यादा कुंद होती रही। सरदार का ग्रेंडसन में भी पाकिस्तान है और वहां से भी घर को उखाड़कर लाया जाता है लेकिन शुक्र यह है कि यहां ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद नहीं है और ना ही कोई हैंड पम्प ही उखाड़ा गया है। बावजूद इसके तड़का तो थोड़ा संवेदनात्मक ही ज़्यादा है, ज्ञानात्मक नहीं।

हां, पृष्टभूमि में 1947 की है, तो उसकी वजह से एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित हुए लोगों की संवेदना का प्रत्यारोपण भी है ही। कोई पाकिस्तान चला गया लेकिन दिल में उसके आज भी हिन्दुतान धड़क रहा है तो कोई अमृतसर आकर भी मन में लाहौर की यादें सहेजे हुए है और एक बार उन यादों को अपने मृत्यु के पूर्व पुनः जीना चाहता है। ऐसे ही एक विचार को लेकर 2016 में जॉन उपचर्च ने अंग्रेज़ी में मैंगो ड्रीम्स नामक एक असाधारण फिल्म लिखी और निर्देशित की थी और उसमें राम गोपाल बजाज और पंकज त्रिपाठी ने बेहतरीन काम किया था और कथा भी संवेदनात्मक के साथ ही साथ ज्ञानात्मक भी था लेकिन सरदार का ग्रेंडसन लगभग हर मोर्चे पर प्रचलित और लोकप्रिय अवधारणों से आगे निकल ही नहीं पाती इसलिए कभी ऐसा प्रतीत होता ही नहीं कि कुछ नया देखा जा रहा है। वैसे भी भारतीय सिनेमा संवेदना प्रधान ज़्यादा और तर्क प्रधान कम या नहीं के बराबर ही होती हैं और पता नहीं कब, कहां और कैसे बड़ी चालाकी से इस बकवास सी अवधारण को स्थापित कर दिया गया कि भारतीय लोग तर्कवादी कम संवेदनात्मक सोच ज़्यादा रखते हैं, जबकि जीवन का यथार्थ कहीं भी भावना और तर्क के बेहतरीन सामंजस्य से ही संचालित होता है। भारतीय जनमानस में भी तार्किकता और तर्कवादिता की कभी कोई कमी नहीं रही। हां, यह भी सत्य है कि इंसानी दिमाग में गोबर भरके अपना उल्लू सीधा करनेवाले भी एक से एक थे, है और रहेगें।

अच्छे अभिनेताओं की उपस्थिति से काम उत्कृष्ट और आसान हो जाता है लेकिन भारतीय सिनेमा को अभी स्टार सिस्टम नामक कोढ़ से उबरने में वक्त लगेगा। इस फिल्म में नीना गुप्ता, कुमुद मिश्रा और कंवलजीत सिंह को छोड़कर बाक़ी किसी का भी अभिनय और चरित्र नामक विधा से दूर-दूर तक का कोई सम्बंध है नहीं इसलिए उस पर क्या ही बात की जाए। जब किसी बड़े बाप का सुपुत्र/सुपुत्री होना ही मुख्य भूमिकाओं को हथियाने की मुख्य वजह हो और स्क्रीन पर आ जाना और कुछ पैंतरे को प्रदर्शित कर देना भर को ही अभिनय मान लिया जाए तो फिर अभिनय की असमय मृत्यु का शोकगीत ही रचा जाएगा, हर तरफ। वैसे फिल्म में जो पटकथा है उसके हिसाब से अमितोष नागपाल ने कुछ बढ़िया और चुटीले संवाद रचे हैं, जिसे सुनकर कुछ सार्थक अनुभूति होती है वरना तो पूरी फिल्म केवल और केवल भावनाओं के दोहन का परिचायक बनकर ही सामने आती है। हां, घर को पाकिस्तान से हिन्दुस्तान लाने के एक अनछुए बिम्ब का प्रयोग इस फिल्म में है लेकिन जब सबकुछ प्रचलित मान्यताओं से ही संचालित हो तब नयापन भी पुराने का ही एहसास देता है। काश! भारतीय सिनेमा, ख़ासकर हिंदी की तथाकथित मुख्यधारा का सिनेमा भावनाओं और प्रचलित मान्यताओं का दोहन करके आर्थिक सफलता और विफलता को ही मुख्य आधार बनने के बजाए तर्क, प्रयोग और यथार्थ का क्रूरतम दामन थामकर कुछ जोखिम उठाने की कुब्बत अपने भीतर पैदा करें, जैसा कि आजकल कुछ थोड़ा बहुत मराठी, बंगला, मलयालम, तेलगु और तमिल की फिल्में कर रही हैं। माना कि सिनेमा जैसे बेहद खर्चीली विधा के लिए अर्थ का आगमन एक बेहद आवश्यक विषय है लेकिन उससे भी आवश्यक है सार्थक और यथार्वादी सत्य का साक्षात्कार वरना कोई भी कला केवल पानी का बुलबुला मात्र बनकर रह जाएगी। 


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सरदार का ग्रेंडसन, नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।

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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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