किसी भी कला में अमूमन दो तरह के लोग होते हैं, पहला वो जो कला को सामाजिक सरोकार का एक माध्यम मानते हुए इसकी रचना करते वक्त इसकी सामाजिक सरोकारता को सर्वोपरी मानते हैं और जोखिम उठाते हैं और दूसरे वो जो कला का इस्तेमाल केवल और केवल अपने निजी स्वार्थों (धन और यश) की आपूर्ति के लिए करते हैं। किसी भी कला में पहले प्रकार के लोग बहुत कम और दूसरे प्रकार के लोग बहुत ज़्यादा हैं। पहले प्रकार के लोग आदर के योग्य है और दूसरे केवल और केवल निंदा के योग्य। भारत में जब OTT प्लेटफार्म की शुरुआत हुई तो थोड़े बहुत अच्छे कंटेंट के साथ ही साथ भड़कदार माल बेचने की होड़ लग गई। ख़ूब सारे बेमतलब के सेक्स, हिंसा, भूत-प्रेत और बेसिरपैर की कहानियों की बाढ़ सी आ गई लेकिन कुछ ऐसे भी विषय-वस्तु आए जो न केवल ज़रूरी विमर्श पैदा करने की क्षमता रखते हैं बल्कि समाज की प्रचलित मान्यताओं को सवालों के दायरे में रखने की हिम्मत करने का साहस भी करते हैं। नेटफ्लिक्स पर कुल चार अलग-अलग कहानियों को लगभग पैंतीस-पैंतीस मिनट के चार भागों थंगम, लव पन्ना उत्तरानुम, वान्मगल और उर इरावु नाम में विभक्त पावा कधैगल (Paava Kathaigal) एक ऐसी ही बेहद ज़रूरी और संवेदनशील फिल्म है।
पावा कधैगल (Paava Kathaigal) फिल्म मूलतः तमिल भाषा की है लेकिन आप इसे हिंदी और अंग्रेजी में भी देख सकते हैं।
थंगम का हिंदी में अर्थ है गौरव और इसके निर्देशक हैं सुधा कोंगार। सुधा प्रसिद्द फिल्म निर्देशक मणिरत्नम के सहयोगी के तौर पर कई साल तक काम कर चुकी हैं और उनकी एक फिल्म इरुधि सुत्त्रू के लिए उनको फिल्म फेयर सम्मान बेस्ट निर्देशक तमिल का पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भागकर विवाह करने की कहानी अनगिनत फिल्मों में है और आजकल यह एक राजनीतिक दल के मुख्य एजेंडे में भी “लव ज़ेहाद” के नाम से ख़ूब सुर्खियाँ बटोर रहीं है लेकिन इस फिल्म को ख़ास बनाती है इसका ट्रांस्ज़ेन्डर चरित्र, जो ज़्यादातर सिनेमा में आजतक बड़ा ही क्लिशे के रूप में ही देखा या दिखाया गया है लेकिन यहां उसका एक बड़ा ही सच्चा और संवेदनशील चित्रण है। समाज में यह समस्या आज भी जस के तस विद्धमान है जिसके ऊपर गौरव तो नहीं ही किया जा सकता है। आगे कहानी में बहुत कुछ नयापन है जिसे बता देने पर देखने का मज़ा जाता रहेगा।
लव पन्ना उत्तरानुम निर्देशक विग्नेश शिवन। यह दो जातियों के बीच के विवाह के सवालों और उसके प्रति ताकतवर इंसानों के दोहरे चरित्र को सामने रखती है, एक ही इंसान सार्वजनिक मंच पर एक तरफ इनकी शादियां करवाता है और दूसरी तरफ वहीं इंसान बाद में सामाजिक संतुलन और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर इनकी निर्मम हत्याओं को भी अंजाम देता है। यह अपनी एक बेटी तक को नहीं छोड़ता लेकिन असली धमाका तब शुरू हो जाता है जब उसे यह पता चलता है कि उसकी दूसरी आज्ञाकारी बेटी लेस्बियन है। अब आगे क्या होता है उसे देखने के लिए फिल्म देखना होगा।
वान्मगल अर्थात डॉटर ऑफ स्काइज निर्देशक गौत्तम वासुदेव मेनन। यह कहानी बलात्कार जैसे प्राचीनतम अपराध को केंद्र में रखकर बड़ी सी संवेदनशील विमर्श पैदा करती है। हालंकि इसमें बलात्कारी को जिस प्रकार सज़ा देने का उपक्रम अपनाया गया है उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है क्योंकि आंख के बदले आंख की प्रवृत्ति पुरे मानव समाज को अंधा बना देगी लेकिन एक मध्यवर्गीय समाज की मानसिकता और उससे लड़ने और उबरने की ज़द्दोज़हद का बढ़िया चित्रण किया गया है और फिल्म के दृश्य ऐसे हैं जो किसी भी संवेदनशील इंसान को मानसिक और बौद्धिक रूप से झकझोरने की ताक़त रखते हैं लेकिन याद रहे संवेदनशील इंसान को और आजकल ऐसी प्रजाति बहुत कम हो गई है।
उर इरावु का मतलब है ऑनर। इस फिल्म की जड़ में छूआछूत है। लड़का किसी अछूत जाति से है जबकि लड़की किसी तथाकथित बड़ी जाति से। दोनों ने भागकर शादी कर ली है और दोनों किसी शहर में अच्छी ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। लड़की गर्भवती है और यही आगमन होता है लड़की के बाप का। पहले लगता है कि सबकुछ सही हो गया है लेकिन कुरीतियाँ इतनी आसानी से इंसान का पीछा न कभी छोड़ी हैं और न छोड़ेगी। यह फिल्म सामजिक मान सम्मान के दायरे में हत्या को केंद्र में रखती है और बड़ी ही कुशलतापूर्वक यह प्रस्तुत करती है। इसका निर्देशन वेत्रिमारण ने किया है।
पावा कधैगल (Paava Kathaigal) की चारों कहानियां समाज के ज्वलंत सवालों से टकराने का साहस करती है और किसी भी सार्थक कला का यही प्रथम कर्तव्य है कि वो अपने समय के ज्वलंत सवालों से रूबरू हो वरना तो सबकुछ धन, उर्जा और तकनीक की बर्बादी है। कथ्यों का चयन बढ़िया है और उसमें कुछ ज़रूरी और नए कोण भी हैं जो इनको एक नवाचार प्रदान करते हैं। इन चारों कहानियों के फिल्मांकन में सहजता है और यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत भी है और कमज़ोरी भी। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष, लैंगीकता आदि किसी और ज़माने कि बातें हैं लेकिन सत्य तो यह है कि यह सबकुछ बहुत ही गहरे रूप में आज भी समाज में न केवल विद्दमान है बल्कि प्रखर और मुखर भी है। अभी बहुत कुछ है जिसे मानवीय होना बाक़ी है और जब तक सामंतवादी मानसिकता का पूरी तरह पतन नहीं हो जाता तब तक यह विद्दमान ही रहनेवाली हैं।
पावा कधैगल (Paava Kathaigal) फिल्म Netflix पर उपलब्ध है।
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