अगर ज्ञान स्पष्ट, दृष्टी व दृष्टिकोण साफ़ और साहसी न हो तो अमूमन होता यह है कि बात बेबात ही बदलती जाती है। एक क्षण जो कहा जा रहा है, कहनेवाला दूसरे ही क्षण अपने ही कहे के विरुद्ध कुछ कह रहा होता है; कमाल की बात यह है कि उसे पता भी नहीं होता कि वो अपनी ही कही बात के विरुद्ध खड़ा है। वैसे भी उसे बस कहने से मतलब होता है, मतलब से मतलब नहीं! महारानी के सन्दर्भ में सबसे पहली बात तो यह कि स्त्री सशक्तिकरण को रानी और महारानी की उपाधि देना अपने आपमें ही पुरुषवादी मानसिकता है, क्योंकि सही और तथ्यात्मक इतिहास पढ़ने के पश्चात यह बात एकदम साफ़-साफ़ होता है कि अमूमन ज़्यादातर रानियां -महारानियां रज़िया सुलतान और लक्ष्मीबाई जैसी नहीं बल्कि पुरुषवादी मानसिकता द्वारा बड़ी ही चालाकी से रची गई एक विशेष प्रकार की ग़ुलामी के ही परिचायक हैं। यह बात और है कि उनको आम गुलामों से थोड़ी ज़्यादा आज़ादी सह-भौतिक सुख-सुविधा उनके मालिक अर्थात राजाओं द्वारा प्रदान की जातीं थीं और उनकी सेवा में कुछ सेवक आदि विद्दमान होते थे; लेकिन मूल रूप से होते वो भी ग़ुलाम ही थे। अब चुकी आज़ादी का स्वाद उन्होंने कभी चखा नहीं इसलिए कुएं के मेंढक की तरह उन्हें यही दुनिया प्रतीत होती थी। वैसे आज भी अधिकांशतः कि स्थिति ऐसे ही है, जिनकी चाभी किसी और के पास होती हैं और इसे ही वो अपना होना मानते हैं।
अब एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की कथा कहते हुए सामंतवादी शीर्षक का सहारा लेने में दोष केवल इस सीरिज के परिकल्पकों का ही नहीं बल्कि भारत का समाज/लोकतंत्र का मूल-स्वरुप बहुरूपा है जिसमें स्वादानुसार थोड़ा जनवाद, थोड़ा सामंवाद, थोड़ी धार्मिकता, थोड़ा जातिवाद, थोड़ा गुंडई, थोड़ी विद्वता, थोड़ा सराफत, थोड़ी यथार्थ, थोड़ी कल्पना, थोड़े इरादे, थोड़े वादे, थोड़ी रुढिवादिता, थोड़ी प्रगतिशीलता और बहुत सारा मर्दवादी और ब्रहामनवादी सोच आदि है। जब स्वरुप इतना विशालकाय और एकदूसरे के विपरीत हो तो वहां दावे के साथ यह कहना कि यह सही है और यह सही नहीं है – बड़ा कसैला काम हो जाता है; इसलिए यहां लफंगा भी स्वीकार है बशर्ते वो आपने पाले का हो!
ऐसा भ्रम प्रतीत होता है कि महारानी सीरिज के मूलाधार में बिहार और बिहार का लालू-राबड़ी काल है लेकिन सिनेमेटिक लिबर्टी के नाम पर इतना रायता फैलाया गया है कि न एतिहासिकता बचती है, न कल्पना बल्कि यह एक ऐसा व्यंजन बनाने की चेष्टा प्रतीत होती है जो बहती गंगा में फिट हो जाए, हिट हो जाए, माल बनाए। वैसे डिक्लियरेशन में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि “यह सीरिज काल्पनिक है” लेकिन इस कल्पना के मूल में यथार्थ है। भारत में “सच बोलो” और “सत्यमेव जयते” का जाप तो चलता है, लेकिन कहीं अगर सच में सच बोल दिया तो फिर कुटाई, पिटाई और बहिष्कार तय है, वो भी समुहिकता के साथ। अब कोई अपना करोड़ों रुपया ख़र्च करके ख़ुद अपनी कुटाई, पिटाई और बहिष्कार का इंतज़ाम क्यों मोल ले? वैसे भी जो समाज भोगे हुए यथार्थ से ज़्यादा काल्पनिकता, झूठ, फरेब और भ्रम को सत्य माने उसके हिस्से छल, कपट, फरेब और धोखा ही आएगा।
महारानी में स्थानों के नाम वास्तविक हैं, चरित्रों, स्थितियां-परिस्थितियां और घटनाओं की परिकल्पना वास्तविकता से प्रेरित है लेकिन स्वरुप और सन्दर्भ बहुत हद तक बदले हुए हैं। इसके बदल जाने मात्र से पूरी बात ही बदल जाती है क्योंकि कोई भी क्रिया कब, क्यों, कहां, कैसे, किसलिए और किस प्रकार की वास्तविक समझ और सत्य व तथ्यात्मक व्याख्या में ही अपना मूल अर्थ को विद्दमान रखती है, यह बदला नहीं कि सारा गुड गोबर हुआ। वैसे कला यथार्थ को प्रतिबिंबित करने का नाम नहीं बल्कि कला कि व्याख्या ही दरअसल अपरिभाषित है, जीवन की तरह। हम जीवन को जो कुछ भी समझते हैं, वो हमेशा ही कुछ और ही निकलता है। लेकिन एतिहासिकता तो घटित हुआ है, उसमें क्या मिलावट करना! लेकिन सत्य यह भी है कि हर किसी के पास जेएफके बनाने की न प्रतिभा होती है और न इच्छा ही।
महारानी में बिहार है लेकिन बिहारीपन ग़ायब है। फ्रेम में किसी स्थानीयता को कैद करना और उससे एक ख़ास स्थान का एहसास करवाना एक आसान सा कार्य है, अगर आता है और अनुभव हो तो वरना तो तैराकी का खेल है आता है तो पार नहीं तो डुबुक-डुबुक। इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर स्थान और स्थानीयता ग़ायब हैं। विनीत कुमार (गौरीशंकर पांडे), आशिक हुसैन (प्रेम कुमार), निर्मलकांत चौधरी (मुसाफिर बैठा) व छोटी-छोटी भूमिकाओं में कुछ अन्य अभिनेताओं को छोड़ दें तो बाक़ी लगभग सारे चरित्र वाचिकता में जब मन करता है बिहारी डाईलेक्ट अपनाते हैं और जब मन करता है उससे विमुख होकर स्वत्रन्त्र(!) विचरण करने लगते हैं। इनामुल (परवेज आलम) के चरित्र में कैरिकेचर हो जाने का ख़तरा था जिसे अभिनेता ने बड़ी हो सावधानी से बचाया है। पहली महिला मुख्यमंत्री के सेक्रेटरी के रूप में कनी कौसृति का काम बड़ा स्थिर और दर्शनीय है। यहां उनका अभिनय सहज है, सरल है और कभी भी अपनी सीमा और गरिमा का अतिक्रमण नहीं करता है। हिंदी मनोरंजन उद्योग में ऐसा अभिनय विरले ही देखने को मिलता है! प्रमोद पाठक (मिश्रा जी) अच्छे लगते हैं लेकिन उसके भीतर भी बिहारियत कई महत्वपूर्ण स्थान पर ग़ायब है, अगर होता तो और मज़ा ही आ जाता। जहां तक सवाल मुख्य चरित्र में हुमा कुरैशी का है तो उनकी कोशिश अच्छी है लेकिन केवल कोशिश मात्र में अभिनय की जादूगरी प्रस्तुत नहीं हो सकती, होती भी नहीं है; वो कैसे होती है इस बात बहुतेरे चिंतन हुआ है और जिसकी सही से तलाश में जीवन निकल जाता है।
सीरिज का कला निर्देशन, वस्त्र-परिकल्पना और मुख-सज्जा बहुत ही निम्न स्तरीय है जो चरित्र को यथार्वादिता और विश्वसनीयता से बेहद दूर ले जाके सजावटी बनाती है। जहां तक सवाल पूरी सीरिज के लेखन और प्रस्तुतीकरण का है तो उसमें गहाराई और ज्ञानात्मक संवेदना की बेहद कमी है; इसी से हम राजकीय हिंसा, नक्सवादी हिंसा और गली के गुंडे द्वारा की गई हिंसा के बीच के फ़र्क को महसूस करते हैं, समझते हैं और उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं वरना तो सब केवल एक्शन दृश्य ही बनकर रह जाते हैं।
मूल सवाल दृष्टी का नहीं बल्कि दृष्टिकोण का है क्योंकि दृष्टी तो अमूमन सबके पास होती ही है लेकिन सच्चा, सार्थक और रचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए आंखें फोड़नी पड़ती हैं, ख़ून जलाना पड़ता है, मुसीबतें मोल लेनी पड़ती है तब कहीं जाकर यह विद्या आती है। दिखना, देखना, समझना, चिंतन-मनन के पश्चात किसी विशेष आग्रह के साथ प्रस्तुत करना एक जीवटता है; मात्र व्यावसायिक और सफलता की आराधना से प्रसिद्धि हासिल किया जा सकता है, सार्थकता नहीं! नंगा सच के चक्कर में इंसान कबीर हो जाता है और समाज कबीर के साथ क्या सुलूक करता है वो इतिहास की पुस्तकों में बड़े ही अच्छे से दर्ज़ है। वैसे एक बात तो सच है कि इतिहास, इतिहास की तार्किक और तथ्यपरक व्याख्या इतिहास की सही पुस्तकों में पढ़ना चाहिए, साहित्य और कला से नहीं! यहां ख़तरा यह है कि चारा घोटाला जैसा एक बेहद चर्चित घोटाला का भी सन्दर्भ पूरा का पूरा उलट-उलट दिया गया है और बिहार की पहली मुख्यमंत्री बनने का घटनाक्रम भी। कलात्मक आज़ादी के नाम पर यह एक बहुत बड़ा घोटाला है। लेखन में ऐसे बहुत पेंच हैं और सब पर लिखने लगें तो यह आलेख अपनेआप में एक उपन्यास बन जाएगा इसलिए विराम। वैसे महारानी लोकतंत्र के नाम पर प्रचलित और स्वीकृति मदारी और बंदर के खेल का पर्दाफाश करती है; इसीलिए आजकल राजनैतिक गलियारे में ओटीटी पर नकेल कसने का प्रयास ख़ूब ज़ोर पकड़ रहा हैं।
महारानी सीरिज, सोनी लिव पर उपलब्ध है।
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