Thursday, April 25, 2024

JL50 : नींद की गोली की तरह है यह सिरीज़।

किसी फिल्म में अभय देवल हों और साथ में पंकज कपूर और पियूष मिश्रा जैसे बेहतरीन अदाकार, तो आप क्या उम्मीद करते हैं? कुछ असाधारण की ना! इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान समय में पंकज कपूर फिल्म उद्योग में काम करनेवाले अभिनेताओं में सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में आते हैं, जिनके बारे में यह साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि उनकी प्रतिभा का भरपूर दोहन अभी हुआ नहीं है और भारतीय सिनेमा उद्योग की जो हालत है उसमें दूर-दूर तक कोई संभावना भी नहीं दिखती है, उसके बावजूद उन्होंने आजतक जो भी काम किए हैं वो अपने आप में अभिनय के किसी अध्याय से कम नहीं है। हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने वैसे कुछ भी नहीं किया है जो एक संवेदनशील और चिन्तनशील आदकर को नहीं करना चाहिए। यह आज ही नहीं बल्कि मुश्किल से मुश्किल परिस्थियों में भी उन्होंने कोई भी समझौतावादी और केवल पैसा कमाऊ काम नहीं किया। उन्हें पता है कि अगर एक बार समझौतावादी काम शुरू हो गया तो फिर उसका आस्वाद ही अलग है और वो स्वाद एक बार मन को लग गया तो फिर आसानी से नहीं छूटता।

कहने का तात्पर्य साफ़ है कि सिनेमा उनके लिए हमेशा से एक कलात्मक और ज़िम्मेदारी का काम रहा है, केवल नाम, पैसा और शोहरत कमाने का नहीं।

वहीं अभय देवल लीक से हटकर और चुनौतीपूर्ण काम करने के लिए जाने जाते हैं। अब यह सब नाम आप किसी एक जगह देखते हैं तो आपकी उम्मीदें बहुत बढ़ जाती है और लगता है कि आप निश्चित ही कुछ यादगार देखने जा रहे हैं। कुछ ऐसा जो दिल और दिमाग पर छप जाने वाला है लेकिन यहीं धोखा हो जाता है; जब आप JL50 सिरीज़ देखते हैं। पहली बात यह कि JL50 की कुल अवधि केवल दो घंटे अठारह मिनट है और कहानी भी एक ही है तो उसे कुल चार भाग द कैश, द कौन्स्प्रैसी, द अन्फोल्डिंग और द आदर प्लान में क्यों बांटा गया और सिरीज़ क्यों बनाई गई? इससे बेहतर होता कि यह दो घंटे की एक चुस्त फिल्म बनाई जाती या उससे भी थोड़ा सा कम की। अब सोचिए कि इतने कम अवधि के किसी सीरिज़ में भी अगर आपको कई जगह पर नींद जैसा कुछ खुमारी आने लगे तो वो क्या बनी होगी और कैसी बनी होगी!

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अभिनय

जहां तक सवाल अभिनेताओं का है तो अभय बुझे हुए मोमबत्ती जैसे लगते हैं और पंकज कपूर, पियूष मिश्रा और राजेश कुमार के पास इतना स्क्रीन ही नहीं है कि वो कुछ यादगार रच सकें। फिर भी कुछ दृश्य में पंकज कपूर अपनी अभिनय प्रतिभा की झलक दिखा तो देते हैं लेकिन उसका स्वाद जब तक दांत से दिल में उतरे तब तक दृश्य ही समाप्त हो जाता है। कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि इन अभिनेताओं को यहां बर्बाद ही किया गया है।


कहानी

JL50 में जो टाइम ट्रेवल की कथा है वो भले ही भारतीय पटल पर नया हो लेकिन विश्व पटल पर अनगिनत अच्छे और बुरे काम हो चुके है और आज भी हो रहे हैं। इसमें टाइम ट्रेवल को जैसे समझाया गया है वो देखकर महाज्ञानी महोदय के रडार और बादल वाला महानतम तकनीक याद आ जाता है। अब एक से एक दिमाग हिला देने वाले विश्वविख्यात निर्देशकों का काम देखने वाला विश्व सिनेमा का दर्शक इसे देखकर अपना नहीं तो किसी न किसी का बाल तो ज़रूर ही नोच डालेगा। वैसे भी जो जहां के हुक्मरान निम्बू मिर्ची टांग के लड़ाकू विमान ख़रीदता हो और थाली बजाकर गो कोरोना गो गाते हुए वाइरस से जंग लड़ता हो, उससे शानदार विज्ञान की फंतासी रचाने की उम्मीद थोड़ी कम ही रहे, उसी में सबकी भलाई है। हां, सांत्वन देने के लिए इतना अवश्य ही कहा जा सकता है कि विज्ञान की फंतासी रचने की हिम्मत दिखाने के लिए पूरी टीम को बधाई लेकिन मामला अगर सतही होने के बजाए दिमाग को घुमा देने वाला होता तो शायद आनंद और बढ़ जाता, नहीं तो आजकल तो हर आदमी फंतासी ही तो रच रहा है, वो भी एक से एक और बिना सिर पैर के।

JL50 : नींद की गोली की तरह है यह सिरीज़।

बाक़ी जो थोड़ा सा रहस्य और रोमांच रचने की कोशिश है वो भी ज़रूरत से ज़्यादा सहज है और उसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। फिर मां और बेटे की कथा भी पता नहीं इस फंतासी में क्या कर रही है! टाइम ट्रेवल की कथा को ईसा पूर्व से जोड़ना भी उतना ही हास्यास्पद है जितना कि लोग सर्जरी की कथा को गणेश जी से जोड़ते हैं। विज्ञान कि कथा में गप्प चलता है लेकिन उस गप्प को भी एक तगड़ा वैज्ञानिक आधार देना होता है, न कि मान्यता और विश्वास के सहारे छोड़ दिया जाता है और कहा जाता है कि यही हुआ है। होने का आधार प्रमाण होता है, आस्था और विश्वास नहीं।

बाक़ी इतिहास के नाम पर एक से एक गप्प और फंतासी पड़ी हुई है। वो तो इतनी तगड़ी है कि हमने अब कल्पनाओं को सत्य और सत्य को कल्पना मानना शुरू कर दिया। जब हम कॉनटम फिजिक्स की बात कर रहे हैं तो हमें उसी के आसपास रहना होता है ना कि उसमें क़िस्से-कहानी, विश्वास और मान्यता के दलदल में फंस जाने दिया जाता है। अगर ऐसा होता है तो कथा न यहां की रह पाती है और ना वहां की और देखने-सुननेवाला आवक सा रह जाता है कि आख़िर यह हुआ तो हुआ क्या! एक स्थान पर पंकज कपूर कहते भी हैं कि –

“तुम मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे हो! यू सी, अमेरिका में हो तो फिनोमिना। पोसेबिलिटिज़ पे रिसर्च, लेकिन हमारे हिन्दुस्तान में हो तो ओनली वन स्टोरी। हमारा प्रोब्लम क्या है शांतनु, हमारे देश में हिन्दू, मुस्लिम, मन्दिर, मस्जिद, पॉलिटिक्स, अंधविश्वास से ऊपर लोग उठते ही नहीं, और अगर अपने आकाश में कुछ दिखाई दे जाए तो हम तो हाथ जोड़ लेते हैं। उसे भगवान मान लेते हैं। क्वेश्चन नहीं करते, वी डोंट आस्क – वाई, व्हाट, हाउ, कभी नहीं!”

JL50 अगर अपने इसी कथन को भी सार्थक कर पाती तो कमाल हो सकता था लेकिन अफ़सोस ऐसा हुआ नहीं. 

फिर कई सारे सवाल बिना हल किए रह जाते हैं या फिर कह दिया जाता है कि हल हो गया। ऐसा थोड़े न होता है? अब जैसे यह जो टाइम ट्रेवल का जो सिद्धांत खोजा जा रहा है वो दरअसल है क्या और फिर क्या खोज लिया जाता है और उससे पहले कौन सा सिद्धांत लगाया जा रहा है कि वो खोज नहीं पा रहे हैं। यह सब कहीं कुछ पता ही नहीं चलता बल्कि उसके नाम पर केवल एक साइकल का पहिया घुमाता रहता है। आख़िरकार क्या, कैसे, कब और किसप्रकार, यही तो विज्ञान का मूल है और बिना उसके आप वैज्ञानिक गप्प भी कैसे रच सकते हैं और अगर यही करना है तो फिर बिना सिर पैर की दुनियाभर के भारतीय सिनेमा में क्या बुराई है जहां एक पीद्दी सा हीरो पचास-पचास मुश्तंडे को एक बार में हवा में उड़ाता है और फिर चश्मा पहनकर आराम से हिरोइन्स के साथ गाने गाता है। फिर यह एक पद्दो राग नहीं तो और क्या है कि जुनूनी आदमी साइको ही होगा और वो आंखें तरेरकर ही बात करेगा जैसे कि उसे किसी भूत (!) ने जकड़ रखा हो।


कुल मिलाकर बात यह कि केवल कुछ नया रचने का विचार अच्छा है लेकिन उसे बेहतर और अगर विज्ञान है तो तार्किक भी होना होता है नहीं तो वह नया कब आता है और कब जाता है किसी के कुछ समझ में नहीं आता है। कोशिश ठीक है पर बेहतरीन तो कदापि नहीं और जब पंकज कपूर, पियूष मिश्र, अभय देवल और राजेश कुमार का नाम जुड़ता है तो कोई भी फिलाम्ची बेहतरीन की उम्मीद पाल लेता है और यह पालना चाहिए कि नहीं यह बात और है! वैसे पंकज कपूर के लिए JL50 सीरिज एक बार देखी जा सकती है।

सिरीज़ – JL50

लेखक, निर्दशक – शैलेन्द्र व्यास

प्लेटफार्म – सोनी लिव 

JL50 – यहाँ देखें


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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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