इस भीषण बाज़ारवादी समय में लोकप्रियता के मोह से किसी भी कला को बचाना लगभग असंभव सा कार्य है। आज कहीं न कहीं हर चीज़ लोकप्रिय होना चाहती है लेकिन लोकप्रियता निश्चित रूप से कैसे हासिल होती है यह शायद ही किसी को सही रूप में पता हो! फिर भी लोकप्रियतावाद के अपने कुछ फ़ार्मूले हैं, जिनमें से एक है बने-बनाए, आजमाए लोकप्रिय रास्तों का अनुकरण करना। यह रास्ता नवाचारी का विरोधी होता है और अगर हिम्मत करके कोई नवाचारी करता है और ग़लती से वो लोकप्रिय हो जाता है तो फिर वो भी एक लोकप्रिय रास्ता बन जाता है और कलाकार उस तरफ़ अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है।
विद्या बालन और शेफ़ाली शाह अभिनीत ‘Jalsa’ भी उसी लोकप्रियतावाद के चक्कर में थोड़ी फंसी अवश्य प्रतीत होती है बल्कि विश्व सिनेमा देखनेवाले फ़िलिमची लोग अच्छे से जानते हैं कि आगे इस फ़िल्म में क्या होना है। हां, सच्चाई यह भी है कि देखने, जानने और समझने लायक कुछ नहीं होने के बावजूद भी ऐसे दर्शकों की यहां कोई कमी नहीं जो किसी विक्टिम की तरह सिनेमा देखते हैं जबकि हज़ार फ़िल्मों में वो ठीक ऐसे ही कथानक और प्रस्तुति देख चुके हैं।
‘Jalsa’ धीमी आंच पर मद्धम-मद्धम उबलने वाली एक ऐसी फ़िल्म है, जिसमें गिल्ट से उपजे द्वंद हैं और उस द्वंद को बढ़ाने में फ़िल्म का पार्श्व संगीत, कैमरा का मूवमेंट और कलाकारों व निर्देशक का काम अच्छा योगदान करता है लेकिन दो घंटे और छः मिनट की यह फ़िल्म जहां लेकर जाती है वहां हम पहले भी कई बार जा चुके हैं और इस फ़िल्म को देखते हुए भी इसका पूर्वानुमान आसानी से हो जाता है लेकिन कुछ रास्ते ऐसे भी होते हैं जहां बार-बार और लगातार जाना सुकून देता है।
भारतीय समाज में जहां कहानियों की भीषण उपलब्धता है, वहां चंद घिसीपिटी कहानियों के बीच सिनेमा उद्योग का सिमट जाना अब उबाऊ हो चला है। तो क्या यहां प्रतिभाओं की कमी है, नहीं हरगिज़ नहीं। यहां कमी है तो केवल और केवल चुनौतियों को आत्मसात करनेवालों की। वो नवाचारी से भयभीत होते हैं, ख़तरा मोल लेने से भयभीत होते हैं इसीलिए कुछ आजमाए खूंटे के आगे-पीछे ही चक्कर लगाते रहते हैं। कभी वो खूंटा राष्ट्रीय होता है तो कभी अंतराष्ट्रीय, तो कभी एकदम स्थानीय।
फ़िल्म का नाम ‘Jalsa’ है। अगर हम इस जलसे नामक शब्द का शाब्दिक अर्थ तलाश करें तो उसका उत्तर मिलता है – आनंद और उल्लास से मनाया जाने वाला समारोह; उत्सव; आयोजन। अब यह पूरी फ़िल्म अपने ही शीर्षक को कहां से सही साबित करती है, यह बात समझ के परे तब तक बनी रहती है जब तक हम समारोह, उत्साह और आयोजन का अर्थ ऊपरी तौर पर समझते हैं। चीज़ें ऊपरी और बाहरी से ज़्यादा अंदरूनी भी तो हो सकती हैं बशर्ते हमारे भीतर उस अंदर की आवाज़ को सुनने की क़ुब्बत हो! वैसे पूरी फ़िल्म में एक दो स्थान पर उल्लास जैसा कुछ है, जैसे साक्षात्कार का वाइरल ही जाना और उस ख़ुशी में समाचार चैनल के दो प्रमुख लोगों का ख़ुश हो जाना, ‘Jalsa’ के आख़िर में रास्ते पर एक नेता के जलसे का आ जाना और आख़िर में कुछ बहुत बुरा न घटित होना जैसे घटनाक्रम हैं लेकिन फिर यह फ़िल्म बाहर से ज़्यादा कहीं बहुत गहरे में अंदर घटित होती है।
बतौर अदाकारा बिद्या बालन ने इस बकवास मान्यता को तोड़ा है कि हिंदी सिनेमा में नायिका का बिना दिमाग़ वाली गरम मसाला कठपुतली होना आवश्यक है, ‘Jalsa’ में भी उनका काम उपयुक्त है। शेफ़ाली शाह अपनी भूमिका में उचित हैं और चरित्र के आत्मसम्मान के साथ न्याय करती हैं। रोहाणी हतंगड़ी भी अपनी जगह सही हैं। थोड़ी बारीकी से देखें तो यह फ़िल्म स्त्री चरित्रों के मामले में उस प्रचलित मान्यता को चुनौती देती प्रतीत होती है कि स्त्री कमज़ोर है या उसे हर वक्त पुरुष का सहारा चाहिए। विद्या बालन का चरित्र माया मेनन एक अकेली मां है जो बड़े ही स्वाभिमान के साथ अपने बच्चे की न केवल परवरिश कर रही है बल्कि अपने क्षेत्र में (पत्रकारिता) नामी और रुतबा भी रखती है और अपने ऊपर किसी भी पुरुष को हावी नहीं होने देती, चाहे वो जो हो – पति अथवा प्रेमी। माया की मां रुक्मिणी (रोहाणी हतंगड़ी) अपनी बेटी के साथ रहती है लेकिन वो अपनी बेटी पर बोझ नहीं है बल्कि उसकी भी रीढ़ की हड्डी सलामत है और आवश्यकता पड़ने पर अपनी बेटी को फटकार लगाने और सही को सही व ग़लत को ग़लत कहने से भी बाज़ नहीं आती। यहां वो मात्र ऐसे दादी-नानी नहीं है जो पोते-पोतियों के खेलने, बहू के ख़िलाफ़ साजिश करने, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की गप्पे हांकने आदि के कार्य में संलिप्त हो। शेफ़ाली शाह ने रुकसाना के बहुआयामी चरित्र को जिस शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है और लेखक, निर्देशक ने जिस प्रकार उस चरित्र को गढ़ा है वो भी अपने आप में बढ़िया है। रुकसाना माया के घर में खाना बनाने का काम करती है लेकिन वो मालिक की ग़ुलाम नहीं। रुकसाना का पति फ़िल्म में स्पॉटबॉय का काम करता है लेकिन वो भी अपनी पत्नी पर हुक़्म नहीं चलाता बल्कि वो पति (मालिक) पत्नी (घर की मालकिन/पति की ग़ुलाम) नहीं बल्कि साथी जैसे ज़्यादा प्रतीत होते हैं। ‘Jalsa’ की सबसे बड़ी उपलब्धि बतौर अभिनेता कोई है तो वो है माया मेनन के बेटे के रूप में आयुष का चरित्र निभाता अभिनेता सूर्या कासीभाटला। संभव है कि यह बात थोड़ी अतिवादी जैसा कुछ प्रतीत हो लेकिन सूर्या के अभिनय को देखते हुए माय लेफ्ट फुट वाले डेनियल डे ल्युइस की याद ताजा हो जाती है। बाक़ी एक दृश्य में अतिथि भूमिका धारण किए मानव कौल भी दिख जाते हैं। अब वो क्यों दिखते हैं और नहीं भी दिखते तो क्या फ़र्क पड़ जाता, इसका जवाब उन्ही के पास होगा। बहरहाल, यह बात अपने आप में बेहद सुकूनदायक है कि एक ऐसे समय में जब सिनेमा और राजनीति अपने फ़ायदे के लिए लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए उन्हें पशुवत बनाने की ओर और किसी भी प्रकार मुनाफ़ा और जीत हासिल करने की राह पर चल पड़ीं है ठीक उसी वक्त ‘Jalsa’ नामक यह फ़िल्म आती है जो यह पाठ पढ़ाती है कि आंख के बदले आंख की इच्छा एक दिन पूरे विश्व को अंधा बना देगी। पश्चाताप से बड़ा कोई यज्ञ नहीं और क्षमा से बड़ा कोई पुण्य नहीं। तमाम कमज़ोरियों के बावजूद भी वर्तमान हिंसक समय में यह एकमात्र वजह इस फ़िल्म को देखने और दिखाए जाने के लिए उपयुक्त है।
फ़िल्म ‘Jalsa’ Prime Video पर देखी जा सकती है|