Jai Bhim फ़िल्म शुरू होते ही सीधे अपने विषय पर आती है। किसी और के (ज़मीन के मालिक) खेत में चूहा पकड़ते हुए एक दलित जोड़ा रोमैंटिक होता है और जब रात में दोनों रोमांस की मुद्रा में आते हैं तो झूठे ख्वाबों का ताशमहल दिखाती ज़्यादातर भारतीय सिनेमा की तरह कोरस के पार्श्वनृत्य के साथ कोई रोमांटिक गाना नहीं शुरू होता बल्कि बारिश की वजह से उनकी झोपड़ी से पानी रिसने लगता है और मिट्टी की एक दीवार टूटकर गिर जाती है। दूसरे दिन उस दलित चरित्र में मन से यह बात फूटती है – “न जाने मैंने कितनी ईंटें बनाई होगीं लेकिन अपने परिवार को एक पक्का मकान न दे सका।” यही मेहनकश वर्ग की सच्चाई है कि मेहनत उसकी और राज किसी और का। राज में आज भी उसकी हालत बद से बत्तर है। तमाम संसाधनों पर सबका बराबर का हक़ और सबका साथ सबका विकास सदियों से केवल जुमले थे और हैं।
Jai Bhim, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह एक दलित विमर्श की फ़िल्म होगी और है भी। वैसे शीर्षक जय भीम आम्बेडकरवादियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला एक अभिवादन वाक्यांश हैं, खासकर उन लोगों द्वारा जिन्होंने बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर को अपना प्रेणता मानते हैं। जय भीम का अर्थ है “भीम की जीत हो” अर्थात “डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर जिंदाबाद”। अब भारतीय संविधान के रचयता में से एक बाबा भीमराव अंबेडकर का मूल चिंतन क्या था, अगर यह भी बताना पड़े तो लानत है। वैसे फ़िल्म केवल भीमराव ही नहीं बल्कि कार्ल मार्क्स और पेरियार को भी आत्मसात करके चलती है।
फ़िल्म एक सच्ची घटना से प्रेरित है और उसके केंद्र में समाज के हासिए पर पड़ा दलितों की स्थिति है जो आज भी नारकीय जीवन जीने और व्यवस्था की चक्की में पीसने को मजबूर हैं और जिन्हें आज तथाकथित मुख्यधारा के विमर्श में हासिए पर भी कोई स्थान नहीं है। अब तो उन्हें उतना भी स्थान प्राप्त नहीं है जितना कि रामायण में सबरी को प्राप्त था। हां, मौक़ा पड़ने पर बड़े चमत्कारी नेता कैमरे के सामने उनके चरण पखारने अवश्य ही पहुंच जाते हैं बाकी उनकी स्थिति जैसा का तैसा वाला ही है या फिर उतना बेहतर तो नहीं ही है जितना कि एक लोकतांत्रिक देश में आज़ादी के 70 साल के पश्चात होना चाहिए था।
एक संस्कृति द्वारा दूसरी संस्कृति को बदनाम करने, उसके बारे में तरह-तरह की नकारात्मक बाते फैलाने का खेल पुराना है। वैसे भी इतिहास अधिकांशतः विजेताओं का ही चरण पखारता है। देवताओं ने दानवों के बारे, आर्य ने अनार्यों के बारे में, फासीवादियों ने कम्युनिष्टों, किसी एक धर्म के अंधभक्त दूसरे धर्म के बारे में इसी प्रकार की मान्यता प्राप्त और लोकप्रिय अफ़वाह विधा का प्रयोग किया और अपने-आपको नायकत्व के ऊपरी पायदान पर विराजमान करने की सही-ग़लत चेष्टा की। फिर एक ही धर्म के भीतर भी कई-कई विभाजन है, जैसे हिंदुओं के भीतर ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य और शूद्र। शुद्र सबसे निचले पायदान पर विराजमान किए गए हैं और यदि यह कहा जाए तो ग़लत न होगा कि वो व्यव्हारिक रूप से मनुष्य भी नहीं माने जाते। भारत जैसे देश में जाति और धर्म की जड़े इतनी ज्यादा मजबूत हैं कि इसकी असंख्य कीड़े आज भी बड़ी ही कुशलता से बिलबिलाते हैं। इसको लेकर समय-समय पर कई सारे विमर्श और आंदोलन हुए हैं लेकिन यह मनुष्य से मनुष्य का विभेद का जिन्न आज भी समाज में न केवल विधमान हैं बल्कि सामाजिक तानाबाना के मुख्य अवयवों में से एक हैं। Jai Bhim इन्हीं को केंद्र में बड़ी ही प्रखरता और मजबूती से रखता है और इसीलिए यह तकनीकी रूप से कमज़ोर होते हुए भी विमर्श और विषयवस्तु के रूप में आज के समय का एक आवश्यक सिनेमा बन जाता है।
Jai Bhim के कथ्य के साथ इसकी कास्टिंग बहुत अच्छी है। आर्ट विभाग ने अच्छा काम किया है। इसकी दलित बस्ती को देखकर ऐसा नहीं लगता जैसे यह एक नकली सिनेमाई संसार है बल्कि यह वास्तविकता के ज़्यादा अनुरूप प्रतीत होता है। यहां और लगभग पूरी फ़िल्म में अधिकांश भारतीय सिनेमा की तरह सजावटी जैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। वो चाहे दलित बस्ती हो, ज़मींदार का मकान हो, पुलिस स्टेशन हो या फिर अदालत। कुछ अन्य आउटडोर लोकेशन भी बढ़िया और कथ्य के अनुरूप एकदम उचित हैं। फ़िल्म में किसी गाने का न होना और फालतू के हिरोबाजी और भाषणबाजी में न फंसना उसकी उपलब्धि है। जहां तक सवाल अभिनेताओं के अभिनय का है तो साउथ के सिनेमा का फिल्मांकन बिट्स बाई बिट्स में विभाजित होता है, क्षण-क्षण में उसके कैमरे का एंगल बदलता है इसलिए वहां अभिनेता एक विम्ब बनकर उभरता है न कि चरित्र, फिर एक खास स्टाइल भी है इसलिए अभिनय की बात न करना ही बेहतर है। किसी भी फ़िल्म में अभिनय को स्थापित करने के लिए एक शॉर्ट के भीतर एक खास वक्फा चाहिए होता है, वो यहां पूरी तरह से नदारत है। पता नहीं मैं अपनी बात समझा पा रहा हूं या नहीं किन्तु इतना तो सत्य है कि यदि सिनेमा को बेसिरपैर के बक़वास मनोरंजन से बचाना है तो ऐसी या इससे भी बेहतर और ज़मीनी सच्चाई से रूबरू कराती, सच्चाई युक्त कला का निर्माण करना आज के समय ही नहीं बल्कि हमेशा ही एक महत्वपूर्ण कार्य रहा है। इससे पलायन कला को सार्थकता के बजाय बाज़ारू और बेआबरू बनाती है। मनोरंजन, मनोरंजन और केवल मनोरंजन मात्र को केंद्र में रखकर किसी भी कला की उत्पत्ति कभी नहीं हुई बल्कि उसके भीतर सार्थकता का होना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि जीवन के लिए ऑक्सीजन। कोई मामलों में तकनीकी रूप से बेहद कमज़ोर होते हुए भी जय भीम एक सार्थक मनोरंजन फ़िल्म है और बेहद आवश्यक भी।
फ़िल्म ‘Jai Bhim‘ को आप अमेज़न प्राइम वीडियो पर देख सकते हैं |