सन 1982 में फिल्म आई थी नमक हलाल, उस फिल्म में बप्पी लहरी ने संगीत दिया था। उसी फिल्म में अंजान का लिख हुआ एक गीत था – जवानी जानेमन, हसीन दिलरुबा। गीत को बिंदास अंदाज़ में आशा भोंसले ने गाया था। इसी गीत में आगे का मुखड़ा है –
शिकार ख़ुद यहां, शिकार हो गया
ये क्या सितम हुआ, ये क्या जुलम हुआ
ये क्या गजब हुआ, ये कैसे कब हुआ
न जानूं मैं, न जाने वो आहा
अब जवानी जानेमन नामक फिल्म पहले बन चुकी है, तो हसीन दिलरुबा (Haseen Dillruba) से इस फिल्म का मुखड़ा उधार लिया लेकिन पूरी फिल्म देखने के पश्चात आहा की जगह आह निकलती है कि ऐसी भी क्या हूक मची थी इस अनगिनत बार और अनगिनत भाषाओं में बनी, देखी फिल्म को फिर से बनाने की! तात्पर्य यह कि न हसीन दिलरुबा (Haseen Dillruba) के पटकथा में कोई नवाचरिता है, न कहानी में, न संवादों में, न स्थिति-परिस्थिति में, और ना इसके प्रस्तुतिकरण में ही और जहां तक सवाल अभिनय का है तो वो कोई अलग से हवा में तो पैदा होगा नहीं, तो यहां भी नहीं हुआ। कुल मिलाकर यह नई पॉलिश में एक सिनेमाई कतरन ही बनकर रह जाती है।
हमने सिनेमा को अमूमन नायक, खलनायक और विदूषक आदि या फिर किसी ख़ास निर्माता-निर्देशक और बैनर के रूप में देखना सीखा है। सिनेमा क्या है और इसे कैसे देखें, जब किसी भी समाज में कोई प्रशिक्षण या निरिक्षण ही नहीं है तो वैसे में हर चमकती हुई चीज़ को सोना मान लेने की भेड़चाल ही होगी, यही हमने सीखा है और इसी का हमको प्रशिक्षण है। अब कोई यह कह सकता है कि क्या देखना, सुनना, सूंघना और महसूस करना भी सीखने वाले क्रिया है? इसका सीधा सा जवाब है – बिल्कुल है, क्योंकि इन सबका संबंध जितना आंख, कान, नाक और एहसास से है, उतना ज्ञान से भी है। हम एक-एक चीज़ सीखते हैं वरना किसी मासूम बच्चे को खिलौना और ज़िंदा ज़हरीले सांप में कोई अंतर तब तक नहीं समझ में आता जब तक कि वो ख़ुद ही कोई ख़तरनाक अनुभव से न गुज़रे। कला प्रशिक्षण की तरह ही कला के गुणवत्ता को परखने का कला मूल्यांकन (Art Appreciation) सीखना होता है, और उसकी भी पढ़ाई होती है और कला के प्रशंसक और रसिक होने के लिए भी कलात्मक रूप से शिक्षित होना होता है। यह शिक्षा किसी स्कूल में ही ग्रहण किया जाए, यह आवश्यक नहीं है।
कला का बाज़ार और बाज़ारू कला में ज़मीन आसमान का अंतर है। बाज़ार लुभाता है और उसके लिए वो एक बहुत बड़ा भ्रम पैदा करता है। सिनेमा का स्टार सिस्टम वैसा ही एक छलावा है। इससे हम इस कदर भ्रमित हो जाते हैं कि हम अपना ध्यान मजमून के बजाए लिफ़ाफ़े पर केंद्रित कर देते हैं और सिनेमा के कंटेंट, प्रस्तुतिकरण, प्रयोग, चरित्र, उपयोगिता की परख के बजाए लटके-झटके व बेसिरपैर की बातों से ही आंनदित हो जाते हैं। सिनेमा को सम्पूर्णता में देखने के बजाए स्टार वैल्यू से सम्मोहित हो जाते हैं।
तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म पिंक और थप्पड़ से एक सार्थक उम्मीद बंधती हुई प्रतीत होती है और हम पता नहीं क्यों यह मान लेते हैं कि जहां यह होंगीं, वो सार्थक ही होगा जबकि यह भी सत्य है कि तापसी इन दो फिल्मों के अलावा भी कई फिल्में की हैं और वो तो डेविड धवन की जुड़वा दो में भी थीं! तात्पर्य यह कि पिंक और थप्पड़ अपने विषय-वस्तु की ज्वलंतता, प्रस्तुतिकरण में नवीनता, चुस्त संपादन और कई अन्य वजह से एक यादगार फिल्म है, न कि किसी एक के होने या न होने से। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि तापसी हसीन दिलरुबा (Haseen Dillruba) हिस्सा बनतीं हैं क्योंकि यहां संघर्ष सार्थकता से ज़्यादा सफलता का है और सब कम से कम जोखिम उठाकर इस पागलपन में भीषण व्यस्त हैं कि बाज़ार में बिकता क्या है, वो भी आसानी से, तब थोड़ा हास्यास्पद हास्य, थोड़ा सेक्स, थोड़े लटके-झटके, थोड़ा रिश्तों का सिनेमाई त्रिकोण, किसी भी बहाने थोड़ा मांसल ग्लैमर, थोड़ी चुप्पी, थोड़ा गुस्सा और फिर आख़िरकार थोड़ी हिंसा के तड़के के साथ सिनेमा बेचने का खेल दशकों पुराना खेल शुरू हो जाता है; बाकी अर्थवत्ता और विश्वसनीयता गई तेल लेने। वैसे भी जिस सिनेमा की प्रेरणा ही लुगदी साहित्य हो, उससे कोई उम्मीद करे भी तो क्या करे? हद तो यह है नदी में हाथ कटे बाजू से नल की तरह की तरह ख़ून निकलने के पश्चात भी अपना हीरो और खलनायक के बीच का नायक पानी में बेहोश होकर डूबने के बाद भी एकाएक अपनेआप आंख खोलता है और किसी चमत्कार की तरह एक चमत्कारी संगीत के साथ नायिका का हाथ पकड़के चवनियां मुस्कान के साथ सिनेमा को समाप्त करता है। अब जिनको इन बेसिरपैर के थेथरई में मज़ा आता है, वो मज़ा लें। अपना तो टाइम ख़राब हो गिया! हां, बात नमक हलाल के गाने से शुरू हुई थी तो उसी गाने की इन पंक्तियों के साथ समाप्त भी हो तो मज़ा आए –
नज़र नज़र मिली समा बदल गया
चलाया तीर जो मुझी में चल गया
गजब हुआ ये क्या हुआ ये कब हुआ
न जानूं मैं न जाने वो
हसीन दिलरुबा (Haseen Dillruba) नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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