Wednesday, April 24, 2024

‘Gangubai Kathiawadi’ Hindi Review: अति सजावटी

कलाकारी में नियम बनाने और नियम तोड़ने का रिवाज़ है और दोनों ही मान्य है। इसलिए कलाकारी के बहुत सारे नियम हैं भी और नहीं भी है। वैसे ही शैली (style) को लेकर मान्यता है और यह है कि शैली कथ्य के भीतर से निकलना चाहिए ना कि आरोपित प्रतीत होना चाहिए। किंतु, अमूमन देखने में यह आता है कि कलाकार (लेखक, निर्देशक, अभिनेता व अन्य) अपनी एक ख़ास शैली बना लेते हैं और बार-बार उसी की पूर्णवृत्ति करते रहते हैं। कथ्य चाहे जो भी हो वो सारे कथ्य को उसी एक बनी बनाई और लोकप्रिय शैली में बार-बार समाहित करते रहते हैं, इसलिए कई बार यह शैली आरोपित सी प्रतीत होती है और वास्तविकता का आभास देने के बजाए सजावटी, बनावटी और अकारण की थोपी हुई भव्यता जैसी प्रतीत होती है। वैसे भव्यता को लेकर आजतक एक बहुत बड़ा मिथ्य यह है कि उसके लिए बहुत सारे तामझाम का होना अनिवार्य है जबकि दशकों पहले यह समझ मिथ्या साबित हो चुकी हैं। नुसरत फतेह अली खान साहब का गाया हुआ एक शेर कुछ यूं है –

अच्छी सूरत को संवरने की ज़रूरत क्या है
सादगी में भी क़यामत की अदा होती है


हालांकि इस शेर में भी सूरत की जगह सीरत होती तो शायद शेर का वजन और मायने ज़रा और गहरा हो जाता किंतु सूरत पर फ़िदा इस ज़माने को क्या ही कहा जाए और क्यों कर कहा जाए। सूरत और सीरत की इसी झोल से शैली की भी आत्मा निकलती है। आखिरकार मोनालिसा की पेंटिंग की भव्यता से कोई समझदार इंसान कैसे इंकार कर सकता है।

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संजय लीला भंसाली वर्तमान समय में हिंदी के महत्पूर्ण निर्माता-निर्देशक में से एक हैं और जिन्होंने उनकी फ़िल्म पद्मावत, बाजीराव मस्तानी, गोलियों की रासलीला, साँवरिया, ब्लैक, देवदास, हम दिल दे चुके सनम, ख़ामोशी आदि फ़िल्में देखी हैं वो इस बात को भली भांति जानते हैं कि उनकी फिल्मों की एक एक रचना (frame) किसी शानदार चित्रकारी की तरह होता और इसे वो बेहद सजगता और भव्यता के साथ प्रस्तुत भी करते हैं लेकिन वो कहते हैं न कि कई बार आपकी सबसे बड़ी खूबी ही ख़ामी बनकर सामने आ धमकती है। हर बात एक अद्भुत चित्रकारी का मोह आवश्यक नहीं होता है बल्कि कई बार कथ्यानुसार आचरण एक ज़रूरी शर्त है। गंगुबाई में भी सबकुछ इतना भव्य है कि वो भयभीत सा कर जाता है जबकि जिन्होंने भी कोठा देखा है वो जानते हैं कि वहां कितनी ज़्यादा सीलन, घुटन, गंदगी और ऐसी ही अनगिनत चीज़ों का वास है। संभव हो कि कुछ कोठे शानदार भी रहे हो किंतु ज्यादातर की हालत बद से बत्तर ही है। गंगुबाई में यह कमी खलाती ही नहीं बल्कि कथ्य के विपरित आचरण भी करती है और इस प्रकार यह यथार्थ का कम सजावट का ज़्यादा भान देती है। 

जैसा कि सर्वविदित है कि ‘Gangubai Kathiawadi’ की कहानी सच्ची घटना से प्रेरित है जिसे Mafia Queens of Mumbai नाम से प्रकाशित पुस्तक में एस हुसैन जैदी दर्ज़ करते हैं और यह फिल्म उसी किताब से अपना कच्चा माल आधिकारिक रूप से उठाती है और आवश्यक सिनेमाई बदलाव के पश्चात प्रस्तुत करती है। अब सत्य घटना पर आधारित फ़िल्म में सिनेमाई छूट की मात्रा कितनी है यह तो कोई इतिहासकार या जानकर ही बता सकता है। अपनी इस विषय में कोई शोध नहीं है इसलिए इस विषय पर मौन धारण करना ही उचित है।

जहां तक सवाल ‘Gangubai Kathiawadi’ की विषय वस्तु का है तो इसमें कोई नयापन नहीं है। एक लड़की का फिल्म की हिरोइन बनने के लिए घर से प्रेमी के साथ भागना, फिर उसका कोठे पर बेच दिया जाना, उसका शारीरिक शोषण और फिर किसी माफिया या किसी नेता से संपर्क साधके उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में उभर आना, ख़ुद सिनेमा के परदे पर पहले भी देखा जा चुका है। जहां तक सवाल भव्यता का है तो इससे पहले कमाल अमरोही ने पाकीज़ा और मुजफ्फर अली ने उमराव जान में यह भव्यता उस ज़माने में प्रस्तुत करके दिखाया है जिस ज़माने में कैमरा यहां से वहां हिलाना भी एक बड़ा काम हो जाता था, आज तो ज़माना तकनीक का है जहां एक हरा पर्दा लगाकर पता नहीं क्या से क्या बनाया जा सकता है। लेकिन जहां तक सवाल दिल में उतरने और स्मृतियों में बस जाने वाली कला का है तो जनाब मोसिन नकवी कहते हैं:

तन्हाइयों की रुत में भी लगता था मुतमइन
वो शख़्स अपनी ज़ात में इक अंजुमन सा था

वो सादगी पहन के भी दिल में उतर गया
उसकी हर इक अदा में अजब भोलपन सा था

हां, ‘Gangubai Kathiawadi’ में दो मुद्दे ऐसे हैं जो हिंदी सिनेमा में शायद पहली दफा आते हैं – एक प्रधानमंत्री के सामने वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्ज़ा प्रदान करने की मांग और दूसरी तथाकथित शरीफों की महफ़िल में गंगुबाई द्वारा दिए भाषण से उतरता प्रगतिशीलता का नक़ाब। यह दोनों ही दृश्य ‘Gangubai Kathiawadi’ की उपलब्धि हैं। जहां तक सवाल संगीत का है तो अमूमन गाने फिल्म संगीत के कुछ पुराने गानों को याद दिलाते हैं और हद तब हो जाती है जब ढोल वाले गाने में निर्देशक और संगीतकार भंसाली ख़ुद को ही दोहाते हुए बरामद होते हैं। जहां तक सवाल अभिनेताओं का है तो लगभग सारे अभिनेता अपनी-अपनी भूमिकाओं का उचित निर्वाह करते हैं। हां, विजय राज जैसे अभिनेता का चरित्र से ज़्यादा अदायगी और अंदाज़ में फंस जाना दुखद है और अजय देवगन भी मेहमान और महत्वपूर्ण भूमिका में कोई नई मिसाल पेश कर रहे हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। भंसाली की फिल्मों में वस्त्र बड़े सजीले होते हैं – यहां भी हैं।

कुल जमा बात यह कि कोई भी कलाकार जब किसी एक ख़ास शैली में बंध जाता है तो उसका बासीपन के शिकार हो जाने का भय ज़्यादा रहता है, ख़ासकर सिनेमा और रंगमंच में। नवाचारी कला और जीवन दोनों के लिए आवश्यक है। जिनको यह बात समझ में आती है उनको आती है, जिनको नहीं समझ में आती उनको समझना चाहिए वरना तो लकीर है ही और भारत जैसे देश में महंगा सूट, बूट, गाड़ी, बंगला और चश्मा धारण करके फ़कीरी सदाबहार ज़िंदाबाद रहती ही है। 

फ़िल्म ‘Gangubai Kathiawadi’ को नेटफिल्क्स पर देखा जा सकता है|

पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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