सन 2012 में सुजॉय घोष ने ‘Kahani’ नाम से एक फ़िल्म बनाई थी, इस फ़िल्म पर A Mighty Heart, Taking Lives, The Usual Suspects आदि फिल्मों से प्रेरित होने का आरोप लगा था। अब यह आरोप कितना सही और कितना सही नहीं है, यह आप ख़ुद निर्धारित करें। बहरहाल, यहां कहानी का ज़िक्र इसलिए क्योंकि उसी फ़िल्म में एक चरित्र था ‘Bob Biswas’, जिसे काफी सराहना मिली थी (ऐसा माना जाता है) और यह भी माना ही जाता है कि इस चरित्र के बोले संवाद “नमश्कार – – एक मिनट” काफी चलन में आया था।
Bob Biswas नामक इस चरित्र की ख़ासियत यह थी कि वो जितना साधारण दिखता और जीता था असल में वो उतना ही ख़तरनाक और निर्मम भाड़े का हत्यारा था। इस चरित्र पर No Country for Old Man के Anton Chigurh द्वारा अभिनीति चरित्र Javier Bardem का बेहद प्रभाव साफ-साफ देखा जा सकता है। गोलमटोल चेहरा, बड़ी बड़ी आंखों पर चश्मा, बड़े-बड़े बाल के साथ चेहरे पर बेहद मासूम मुस्कान लिए फ़िल्म कहानी में इस चरित्र को बंगला सिनेमा के अभिनेता शाश्वत चटर्जी ने निभाया था और सराहना भी प्राप्त की थी।
अब शाश्वत द्वारा अभिनीति इस चरित्र को केंद्र में रखकर चरित्र के नाम से ‘Bob Biswas’ का निर्माण किया गया तो सबसे पहले उस दस्तूर को निभाया गया कि राज का बेटा ही राजा होगा अर्थात सिनेमा का मुख्य क़िरदार को कोई स्टार ही निभाएगा या स्टार पुत्र। यहां भी इसी दस्तूर को निभाते हुए यह काम अभिषेक बच्चन के ज़िम्मे आया। अब अभिषेक बच्चन कितने महानतम अभिनेता हैं, यह बात अलग से बताने की आवश्यकता होनी नहीं चाहिए।
आम अभिनेता जहां किसी फ़िल्म में एक मौक़ा पाने के लिए तड़पता रहता है, वहीं नेपोटीजम का आलम यह है कि फ्लॉप पर फ्लॉप और एक से एक वाहियात अभिनय का जलवा प्रस्तुत करने के बावजूद भी स्टार पुत्र/पुत्रियों मौक़ा पर मौक़ा और सिनेमा पर लिखनेवाले किसी दरबारी कवि की तरह उनकी तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते रहते हैं। जहां तक सवाल दर्शकों का है तो उनका भी आलम यह है कि चरित्र से ज़्यादा स्टार या स्टार पुत्र/पुत्री को देखने के लिए उत्सुक होते हैं और इस प्रकार वो एक दर्शक न होकर शिकारी का शिकार (victim) हो जाते हैं। लेकिन वो कहते हैं न कि किसी के कह देने से लाल पिला और पिला हरा नहीं हो सकता, अब आप लाल को पिला और पीले को हरा मानते हों तो बात और है।
पूर्व निर्मित किसी चरित्र को लेकर सिनेमा गढ़ने का चलन पुराना है और विश्व इतिहास में कई ऐसी अच्छी-बुरी फ़िल्में मिल जाएगीं जो इस प्रथा का अनुपालन करती हैं। अभी हाल ही में बैटमैन के जोकर को लेकर भी एक फ़िल्म रची गई थी, जो विश्वस्तर पर काफी देखी और सराही भी गई। ‘Bob Biswas’ नामक यह फ़िल्म उसी परम्परा को आगे बढ़ाती है लेकिन यहां यह नहीं कहा जा सकता कि उस चरित्र की परतें खोलने में सार्थक होती हैं। फ़िल्म की कहानी, पटकथा बड़ी सतही और बोझिल सी है और संवादों में भी कोई ख़ास दम दिखता नहीं है। ना ही यहां कथा चरित्र के आंतरिक और वाह्य परतों को ही कुछ इस प्रकार खोलता है कि देखनेवाला उसके आकर्षण में रम जाए बल्कि उसके बजाए बड़ा सतही सा ही कुछ उभरता है।
अब एक थ्रिलर फ़िल्म सतही पटकथा का शिकार हो तो बाकी क्या बन पड़ेगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है और जहां तक सवाल निर्देशन का है तो अभी नवोदित निर्देशक दिया अन्नपूर्णा घोष, सुपुत्री सुजॉय घोष को किसी और फ़िल्म में साबित करना होगा कि उनके भीतर एक बढ़िया निर्देशक के गुण हैं। अगर अभिनेताओं की बात करें तो अभिषेक बच्चन ने इस चरित्र के लिए अपना वजन बढ़ाया है, बिग और चश्मा भी धारण किया है; यह सब अभिनय का आहार्य पक्ष है, सात्विकता की प्राप्ति के लिए अभी उन्हें और इम्तेहान से गुज़रना होगा। उसे चरित्र हो जाना और चरित्र बनना या चरित्र की नक़ल करना के बीच के बारीक अंतर को समझना होगा यदि वो आगे भी अभिनय जैसा कुछ करने में विश्वास करते हैं या करना चाहते हैं तो वरना तो अभिनय के नाम पर अपनेआप को भिन्न-भिन्न पोशाकों और मुख़्सज्जा में प्रस्तुत करने का खेल तो बहुत पुराना है ही।
अभिषेक कहानी में प्रस्तुत अभिनेता शाश्वत चटर्जी के बॉब से उन्नीस ही पड़ते हैं। जिसने भी कहानी देखी है वो शाश्वत चटर्जी की मुस्कान को कैसे भूल सकता है, जो यहां लगभग ग़ायब ही है। चित्रांगदा सिंह बड़े दिनों बाद दिखीं पर उनके पास यहां करने को कुछ ख़ास है ही नहीं। बाक़ी काली दा के रूप में परन बंदोपाध्याय, मिनी के रूप में सामरा तिजोरी और धोनु के रूप में पवित्र राभा का काम यादगार है, वहीं भानु उदय और विश्नाथ चटर्जी के ज़िम्मे जितना काम था उतना उन्होंने कुशलता से निभाया है। कुल मिलाकर यह मामला फिसड्डी ही साबित होता है, वैसे पुत्रमोह में पड़के सदी के महानायक ने इस फ़िल्म के ट्रेलर मात्र को देखकर अपने पुत्र अपना उत्तराधिकारी घोषित किया ही है।
‘Bob Biswas’ फ़िल्म Zee5 पर उपलब्ध है|