AK vs AK (फिल्म) दर्शकों(?) के साथ किया गया एक शरारत है और जैसी ही फिल्म ख़त्म होती है वैसे ही आपके मन में किसी भारतीय टेलीविजन सीरियल की तरह तीन बार – “क्या! क्या!! क्या!!!” चलने लगता है और वो भी बिना किसी पार्श्वध्वनि और बार-बार आनेवाले फ्रेम के! यह फिल्म क्या है, कैसा है से ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह बन जाता है कि यह फिल्म क्यों है? मतलब कि सिनेमा के नाम पर कुछ भी? शरारती (प्रैंक) विडिओ “आप बकरा बन गए” पांच-दस मिनट अच्छा लगता है यहां आप ढेढ़-डेढ़ घंटा शरारत करते रहेगें तो क्या होगा?
क्या भारतीय सिनेमा उद्योग में कहानियों (पटकथा) का इतना आकाल हो गया है कि सिनेमा के नाम पर भिन्न-भिन्न प्रकार के मज़ाक, चुटकुले, कानाफूसी और शरारत का भी सिनेमा बनाया जाने लगेगा! वैसे किसी महाग्रन्थ में तो यह लिखा नहीं गया है कि किस बात पर सिनेमा बनाना चाहिए और किस बात पर नहीं इसलिए कोई भी व्यक्ति, किसी भी बात पर सिनेमा बना ही सकता है। अब यह हमारा चयन है कि हम उसे देखें या न देखें। इसलिए AK vs AK फिल्म और फिल्म के मार्फ़त जो घटित हुआ उस पर ही वार्तालाप किया जाए तो ही बेहतर है। वैसे अगर आप विश्व सिनेमा के प्रेमी हैं तो यह फिल्म नवाचारी की उम्मीद लिए एक चटनी सिनेमा लगेगी जिसमें थोड़ा थोड़ा क्रिस्टोफर नोलेन की फॉलोविंग वाला भी एहसास होगा वो भी उतना ही जितना वेज मोमो।
AK vs AK फिल्म में कोई चरित्र नहीं है बल्कि यहां सब अपने-अपने ही चरित्र को जी रहे हैं। इसलिए आप इसे एक कैरेक्टरलेस सिनेमा भी कह सकते हैं। यहां अनुराग कश्यप अनुराग कश्यप हैं, अनिल कपूर अनिल कपूर हैं और बाक़ी सब भी वही हैं जो वो सच में हैं। अब पुलिसवाले और कैमरामैन सच में वही हैं कि नहीं यह बात आप उन्हीं से पूछें। लेकिन क्या जो इंसान जैसा है वैसा ही कैमरा और मंच पर आ सकता है उसका जवाब हैं बिलकुल नहीं। क्योंकि जीवन सत्य है और यहां सबकुछ बनाबटी और दिखावटी होता है और फिर उसे प्रस्तुतिपरक भी बनाना होता है।
भले ही आप अपना ही चरित्र क्यों न निभा रहे हों जैसे ही कोई स्क्रिप्ट और कैमरा आता है या सामने दर्शक होते हैं और चयनित परिस्थितियां होती हैं तो वहां वास्तविकता का अवास्तविकता में परिवर्तन और उस अवास्तविकता को वास्तविक लगने की कवायत एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है जिसे आप चाहकर भी बदल नहीं सकते और अगर उसे बदलना चाहते हैं तो भी आप लाख कोशिश करके भी नहीं बदल सकते इसलिए यह करने के लिए एक दक्ष अभिनेता की ज़रूरत होती है जिसे अभिनय नामक विद्या को दर्शाना आता हो। लेकिन यहां अनुराग कश्यप, अनिल कपूर का पूरा खानदान से लेकर अनुराग के माता-पिता सब अभिनय कर रहे हैं। यह सत्य है कि ग़ैर अभिनेताओं को लेकर विश्व सिनेमा ने कई अद्भुत सिनेमा बनाई है लेकिन यहां वो जादू दूर-दूर तक घटित होता प्रतीत नहीं होता और तो और अनिल कपूर भी वास्तविक से ज़्यादा अपनी छवि के अनुरूप अभिनय कर रहे हैं, वहीं अनुराग कश्यप के अभिनय के बारे में ख़ुद अनुराग कश्यप ही बोलें तो बेहतर होगा।

AK vs AK (फिल्म) अनिल कपूर की बेटी सोनम के अपहरण की वास्तविक कथा कहने की चेष्टा करती है लेकिन यह सबको मालूम है कि यह कोई वास्तविकता नहीं बल्कि एक फिल्म की पटकथा ही है। वैसे यह होता तो क्या होता का चित्रण हम वास्तविक रूप में कर ही नहीं सकते और जो कुछ भी करेगें वो हमारी कल्पना होगी और कल्पनाओं का क्या है, वो तो वास्तविक-अवास्तविक कुछ भी हो सकतीं हैं। वैसे भी कोई भी कला कितना भी प्रयास कर ले यहां कुछ भी वास्तविक न आजतक हुआ है और न होगा। अब कोई ग्लैडियेटर का युद्ध करने लगे तो बात कुछ और हो। इसलिए कुछ मिलाकर यह एक वास्तविकता का आभास देती, अवास्तविक सिनेमा ही है। वैसे वास्तविकता का आभास पैदा करने के लिए ऐसे कई सारे संवाद कमेन्ट के रूप में हैं जो अनुराग और अनिल के बारे में वास्तविक जगत में भी प्रचालन में है। वैसे संवादों को रखना और उसमें ख़ुद अभिनय करना एक हिम्मत का काम है और इसके लिए दोनों की सराहना की जानी चाहिए।
अनुराग कश्यप, यह नाम आते ही सिनेमा में गाली याद आने लगता है, यहां भी भर-भरके गालियां हैं बल्कि एक जगह तो ऐसा भी आता है जिसमें अनिल कपूर साहब के सुपुत्र महोदय ओथेलो जैसा लंबा सा एकालाप अपने परम पूज्य पिताश्री के सामने बोल रहे होते हैं और उनके लगभग हर वाक्य के आगे, पीछे और बीच में गालियां ही गालियां है। बाक़ी पूरी फिल्म में मां, बहन के अलावे वो सबकुछ यहां प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है, जिसकी तमन्ना आप अनुराग के सिनेमा से कर सकते हैं। अब यह गालियां होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए, इस बात पर मेरी कोई विशेष राय नहीं है। संगत में रंगत को चरितार्थ करते हुए परम आदरणीय अनिल कपूर ने भी ख़ूब जमके गालियां निकाली हैं। हां, सेक्स की कमी खलती है वो भी डाल दिया जाता तो देखनेवालों की मनोकामना पूर्ति हो जाती।
वैसे एक दृश्य में अनुराग अपने कैमरा-वूमेन के साथ टॉपलेस हैं, अब वो क्यों हैं इसके पीछे का लॉजिक गया तेल लेने क्योंकि अनुराग ख़ुद अपने फैन हैं। यह बात मैं नहीं बल्कि इसी सिनेमा में ख़ुद अनुराग कहते हैं एक जगह जब एक लड़का उनसे मिलता है और कहता है सर मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूं तो जवाब में साहब कहते हैं – “मैं भी अपना बहुत बड़ा फैन हूं“। वैसे भी आजकल ख़ुद ही ख़ुद का फैन होने का चलन भी है और इस चलन में आज हर कोई गिरफ़्त है, क्या नेता और क्या अभिनेता और क्या रंगकर्मी और क्या साहित्यकार। सब अपने फैन हैं!
बाक़ी इसे मैं एक शरारत इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि इसके प्रचार से लेकर नेटफ्लिक्स तक प्रदर्शन तक, सबकुछ एक शरारत भरे अंदाज़ में ही किया गया है। अब यह शरारत कितना उचित है यह तय करना दर्शकों का काम है क्योंकि सिनेमा में समीक्षकों का रेस्ट इन पीस कब का हो चुका है! वैसे कई बार इंसान को कुछ बेहतर और सार्थक करने और रचने के लिए कहीं एकदम से ग़ायब हो जाना चाहिए और मानसिक और शारीरिक रूप से तरोताज़ा होकर वापस आना चाहिए वरना भ्रमित होने का भय गहरा होता रहता है।
AK vs AK (फिल्म) नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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