Friday, March 29, 2024

‘द ग्रेट इंडियन किचेन’ का बजबजाता सत्य

अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक स्त्री उपेक्षिता में स्त्रियों के ऊपर चिंतन करते हुए सिमोन द बोउवार भूमिका में ही लिखती हैं कि “पुरुष बड़ा चालक होता है और सत्ता के मद में स्त्री का दमन किए बिना रह ही नहीं सकता।” यह बात अधिकतर पुरुषों को नागवार लग सकती है और वो यह तर्क (जो दरअसल कुतर्क है) दे सकते हैं कि वो स्त्रियों की बड़ी इज्ज़त करते हैं और उन्होंने कभी किसी स्त्री का दमन नहीं किया है। वो यह बात इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उन्होंने इस दमकारी व्यवस्था को ही सहज और स्वाभाविक मान लिया है। पुरुष क्या अधिकतर स्त्रियों को भी नहीं पता कि समाज, परिवार, इज्ज़त, संस्कृति, कर्तव्य आदि के नाम पर उनको ऊपर जो बड़ी ही सहजता और कुशलतापूर्वक आरोपित, उसे ही दरअसल दमन कहते हैं। यह बात जेओ बेबी द्वारा लिखित-निर्देशित मलयाली भाषा की फिल्म द ग्रेट इंडियन किचेन देखकर समझने की चेष्टा कीजिए और उसके बाद भी समझ में नहीं आ रही तो अपने इंसान होने पर संदेह कीजिए। वैसे एक और भारतीय फिल्म है जो इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए वो है कौशिक मुखर्जी निर्देशित बंगला फिल्म गार्बेज। कौशिक मुखर्जी सिनेमा जगत में क्यू के नाम से प्रसिद्द हैं और उनकी फिल्मों को पचा पाने का हाजमा अभी भारत में ज़रा कम ही लोगों के पास है। बाक़ी महान भारतीय परिवार के महिमा का बखान करता एक से एक नकली और सजावटी सिनेमा की कमी हमारे यहां न कल थी और न आज है!  

बहरहाल, वो क्या बात है जो द ग्रेट इंडियन किचेन नामक इस फिल्म को एक अद्भुत कलाकृति के रूप में स्थापित करती है? इसका सीधा सा जवाब है अच्छी पुताई के भीतर की बजबजाती उस दुनिया को दिखाती है जिसमें हम सब जीते रोज़ हैं लेकिन हमें लगता है यह सबकुछ सामान्य है; लेकिन यह सबकुछ जिसे हमने सामान्य मान लिया है वो किसी के लिए कितना पीडादायक है, इसे समझने की संवेदना बहुत कम के पास है और इस कम में स्त्री पुरुष दोनों शामिल हैं क्योंकि चिंतन और अवस्था का नर या मादा से कोई ख़ास सम्बंध होता नहीं है।

हम सबने हाउस वाइफ यानि घरेलु पत्नी नामक शब्द सुना है लेकिन क्या किसी ने हाउस हसबेंड घरेलु पति नामक शब्द सुना है और कोई सुनाए भी तो जितना घरेलु पत्नी को सहजता से लिया जाएगा उतना ही घरेलु पति पर लोग चौंक जाएगें, और उस ऊपर तुर्रा यह कि मैडम कुछ नहीं करतीं क्योंकि वो हाउसवाइफ हैं। यही आम मान्यता है लेकिन हॉउसवाइफ मैडम का यह कुछ नहीं वाला काम जब पुरुष जी को करना पड़ता है तब उनकी समझ में आता है कि नहीं भाई यह वाला काम तो बड़ा मुश्किल है और दिन भर बैल की तरह खटने के बाद उसके ऊपर रात को पतिदेव के लिए बेबी डॉल मैं सोने दी बनके सेक्स का आनंद भी देना होता है। उक्त सन्दर्भ में हरिशंकर परसाई का एक छोटी सी व्यंग रचना “वो ज़रा वाइफ है न” भी पढ़ा जाना चाहिए।  

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परिवार नामक संस्था के उदय के साथ ही साथ स्त्रियों की भीषण ग़ुलामी का अध्याय शुरू हो जाता है और इसमें धर्म, राजनीति, सामजिकता, संस्कृति आदि का भी बहुमूल्य योगदान हुआ और आज भी हो रहा है क्योंकि सबकुछ पुरुषों ने अपनी सुविधा और सहूलियत को देखकर गढ़ा है। पुरुष सुरक्षा और सुविधा के नाम पर स्त्री को एक चारदीवारी देता है और उसके इर्दगिर्द मयार्दा की लक्ष्मणरेखा खींचता है। इस काम में पूरा समाज उसकी मदद करता है और बदले में स्त्री अपने पुरे वजूद को मिटाकर मुस्कुराते हुए उसकी ग़ुलामी करती है। पत्नी, वेश्या और नौकरानी का काम हंसते-हंसते न केवल अंजाम देती है बल्कि इसे ही अपने जीवन की सार्थकता मानती है और ग़लती से स्त्री ने टेबल पर पड़ा जूठन उठाने के बदले टेबल मैनर्स का ज़िक्र भी छेड़ा तो फिर पुरुष की जलती आंखें उसकी ओर उठती हैं और “औकात में रहो” का जयघोष करती हैं। द ग्रेट इंडियन किचेन की स्त्री पहले सब निभाने की चेष्टा करती है लेकिन वहां अपनी आख़िरकार कोई सार्थकता न देखकर अपनी आज़ादी का चयन करती है, क्योंकि आज़ादी किसी भी क़ीमत पर एक बेहद आवश्यक चीज़ है। स्त्रियां जबतक पुरुषों द्वारा फैलाए सभ्यता, संस्कृति, इज्ज़त आदि के बकवास मायाजाल के भ्रम को तोड़कर आज़ाद नहीं होतीं तबतक स्त्री मुक्ति का सपना एक सपना ही है। द ग्रेट इंडियन किचेन स्त्री के उसी सपने का एक जीवंत दस्तावेज़ है और हमें गौरवान्वित कराती है कि भारत में कुछ लोग हैं जो सिनेमा के नाम पर टट्टी बनने और आक्रामक प्रचार के साथ ही साथ उसकी शानदार पैकेजिंग करके माल कमाने का पैशाचिक कर्म को ही सिनेमा नहीं मान रहे हैं। वैसे स्त्री के सम्बंध में सिमोन द बोउवार एक बात कहते हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बना दिया जाता है। यह बात समझ में आई तो नहीं, नहीं तो तमंचे पे डिस्को करिए और मस्त रहिए।

फिल्म की आधिकारिक भाषा वैसे तो मलियाली है लेकिन इस फिल्म को समझाने के लिए किसी भाषा नहीं बल्कि तार्किक दिमाग की आवश्यकता है. फिल्म वाचिक से ज़्यादा विजुअल में चलती है और खाने की खुशबु से लेकर बजबजाने की दुर्गन्ध सबकुछ स्वादानुसार और बख़ूबी प्रस्तुत करती है.फिल्म में मूलतः तीन अभिनेता स्त्री, पुरुष और ससुर हैं, कुछ अन्य आते जाते हैं लेकिन फिल्म बड़ी कुशलतापूर्वक भारतीय समाज के उस काले अध्याय को सामने रखती है जो आज भी कमोवेश घर-घर की कहानी है और जिसमें किसी न किसी भूमिका में हम सब शामिल हैं।


द ग्रेट इंडियन किचेन अमेज़न प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है।

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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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