इंसान का दिमाग उसका सबसे बेशकीमती ख़जाना है लेकिन एक वो वाला सिनेमा होता है जो खुलेआम यह घोषण करता है कि दिमाग गिरवी रखकर आइए और मस्ती कीजिए और बड़े ही शान के साथ ऐसे सिनेमा के साथ अपना मानसिक बलात्कार कराते हैं और नजीजतन ऐसी फ़िल्में सौ-दो सौ करोड़ की कमाई करते हमें और ज़्यादा बेदिमाग बनाती हैं। एक दुसरे तरह का सिनेमा भी होता है, जहां अगर हमने अपने दिमाग के सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर का ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक अपडेट नहीं कराया है तो हमें नींद आती है और हम यह मान लेने की मूढ़ता बड़े ही शान के साथ करते हैं कि मज़ा नहीं आया! वैसे हर बार और हर बात पर हमको मज़ा ही क्यों चाहिए, यह बात आजतक किसी के पल्ले न पड़ी है। सिनेमा कोई वेश्यावृति का काम नहीं है कि वो तमाम मजबूरियों में भी केवल मज़े के लिए काम करे बल्कि यह एक ज्ञानात्मक संवेदना का काम भी है। सीरियस मैन आपसे ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान, दोनों की मांगा करता है। पहले दुनिया का जाति, वर्ग और रंग विमर्श के साथ ही साथ अवसर और उन अवसरों पर एक ख़ास वर्ग के कब्ज़े का वैज्ञानिक इतिहास और समाजशास्त्रिय अध्ययन से वाक़िफ़ होकर पुरातनपंथी सोच से मुक्त हो जाइए, साथ ही थोड़ा विश्व सिनेमा के सार्थक और कलात्मक पक्ष के प्रति भी सजगता रहे, तत्पश्चात इसका दीदार कीजिए तब देखिए क्या आनंद की अनुभूति है। वैसे आनंद भी एक ज्ञानात्मक मामला है और कला का असली आनंद लेने के लिए हमें कलात्मक और ज्ञानात्मक रूप से शिक्षित होने की ज़रूरत है। वो ज्ञान ही है जो इंसान को सबकुछ सही से समझने में सहायता करता है, अब वो किताब और व्यावहार दोनों से अर्जित होता है, साक्षर और ज्ञानी होना दो अलग बातें हैं. वैसे सत्य यह भी है कि मानवीय इतिहास में ज्ञान हमेशा अल्पमत में ही रहा है.
सीरियस मैन एक ऐसे इंसान (समूह) का अपने अतीत से भागने की छटपटाहट का काव्य है जो जानता है कि उसके समुदाय के लिए शानदार अवसर आसानी से उपलब्ध नहीं होता बल्कि उसको अच्छी शिक्षा जैसी मौलिक अधिकार तक के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। फिर शिक्षा का निजीकरण और धीरे-धीरे एक बृहद व्यवसाय में परिवर्तित होना और सेवा के नाम पर धर्मान्तरण तक का लोभ भी है, इस कूड़ेदान से निकलने के लिए वो हर संभव सही-ग़लत का सहारा लेना और अंतत उस परिणति को प्राप्त होना, जहां के बारे में उसने कभी कल्पना भी न की थी। बच्चा सामान्य है लेकिन वो उसे साजिश से जीनियस मनवाना ताकि उसका बच्चा वो सब न झेले जो उसने और उसके दलित समुदाय के लोग हज़ारों सालों से झेला है और आज भी झेलने को अभिशप्त हैं। इस चक्कर में सुलझने के बजाए बहुत कुछ उलझ जाता है।
उपरी तौर पर सीरियस मैन एक सामान्य सी कहानी और बहुत ही सामान्य सी लिखित, निर्देशित, परिकल्पित और अभिनीत फिल्म लगती है लेकिन जैसे ही आप इसकी उपरी परत को भेदकर भीतरी विमर्श में प्रवेश करते हैं तो इसके भीतर कई सारे चीत्कार और कठोर सामाजिक सत्य के छुपे होने से आपका परिचय प्राप्त होता है और यह फिल्म दलित विमर्श की एक अद्भुत और निष्पक्ष गाथा भी बनकर उभरी हुई दिखती है जहां नारेबाज़ी और हाय हाय नहीं बल्कि इंसानी फ़ितरत का दीदार होता है। यहां उनकी स्थिति, परिस्थिति, आन्दोलन, आन्दोलन का भटकाव सब है बशर्ते आप सजग रहें और उसके सूत्र पकड़ सकें। वैसे भी फिल्म में एक संवाद बार-बार और बड़े ही ज़ोर के साथ आता है कि आई कांट डील विथ प्रिमीव माइंड अर्थात पुरातनपंथी सोच का मैं कुछ नहीं कर सकता!
सीरियस मैन में लेखन, अभिनय, निर्देशन, सम्पादन, वस्त्र-विन्यास, मुख्सज्जा, कला-निर्देशन, छायांकन, सम्पादन आदि एकदम ही सहज है, यहां कोई धूम-धड़ाम और चमत्कारिकता नहीं है लेकिन यह सहजता आरोपित नहीं बल्कि अर्जित है, जो निश्चित ही एक तपस्या की मांग करती है। सहजता से निर्मित विम्बों को पकड़ना भी सहृदयता का काम है. नवाजुद्दीन सिद्धकी धीरे-धीरे भारतीय सिनेमा में मौन को मुखर करने वाले अभिनेता के रूप में प्रखर हो रहे हैं, जिसे देखना निश्चित ही एक सुकूनदेह अनुभव होता जा रहा है। बाक़ी अपने परिजन की आशाओं का बोझ माथे पर लादे नौ वर्षीय आक्षथ दास का अभिनय दिल चीर देता है। अन्य भूमिकाओं में इंदिरा तिवारी, नास्सर, संजय नार्वेकर, श्वेता बासु प्रसाद का चयन भी फिल्म को वास्तविक बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा प्रतीत होता है। फिल्म में शुरू का एक बेड सीन और कुछ गालियां आरोपित हैं, उसे सम्पादित किया जा सकता था क्योंकि वो इस फिल्म में अलग से कुछ ख़ास नहीं जोड़ता बल्कि थोड़ा असहज ही करता है। फिल्म समकालीनता को भी आत्मसात करता है और भारतीय मानस के ऊपर बड़ी ही सहजता से यह कहते हुए टिपण्णी भी करता है –
“लोगों को मंदिर-मस्ज़िद से फ़र्क पड़ता है, विज्ञान में क्या हो रहा है किसी को घंटा फ़र्क नहीं पड़ता।”
ऐसे दो चार संवाद फिल्म के स्वाद को और स्वादिष्ट बना देते हैं, जैसे चटनी खाने का मज़ा बढ़ा देता है।
यहां कई सारे दृश्य बगैर किसी संवाद के एक विशाल और सार्थक बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, वैसा ही एक दृश्य है चाल की छत का। पहली बार जब यह दृश्य आता है तब नंबर कम आने की वजह से मम्मी की मार झेलने और घर से निकाल दिए जाने के बाद एक बच्ची पिंजड़े में बंद कबूतरों को दाना खिला रही होती है और जब दूसरी बार वही दृश्य आता है तब सिनेमा का प्रोटोगनिस्ट एक बरसाती शाम के हल्की नीली रौशनी में उन कबूतरों को आज़ाद कर रहा होता है और कबूतर आज़ाद होकर खुले आकाश में विचरण करने लगते हैं। हर बंधन से आज़ादी, यही सोच इस फिल्म की मूल भावना है, जिसकी परिणति जादुई नहीं बल्कि क्रूरतम अथार्थवादी है और संभव है कि इसका अंत देखते हुए “जाने भी दो यारों” का अंत याद आ जाए, वैसे भी इस फिल्म के पटकथा लेखन में इसके निर्देशक का ही नाम है। एक और दृश्य है जहां मीडियावाले बच्चे को मेकअप करके गोरा बना देता है और बाप इसे यह कहके चेहरा साफ़ कराता है कि काले का बच्चा है, किसी गोरे का नहीं। जैसा है वैसा ही दिखेगा। ऐसे कई दृश्य हैं जो अपनेआप में व्यापक अर्थ को समाहित किए हुए, जहां तक पहुंचने के लिए तमाम बन्धनों से मुक्त एक सजग और संवेदनशील नागरिक होना पहली शर्त बन जाती है, वरना तो सब हवा और सुनामी ही है – बहते रहें, किसी को क्या फ़र्क पड़ता है। सुधीर मिश्रा के साथ काम करना नवाजुद्दीन सिद्धिकी का सपना था जिसे पूरा होने में कुछ साल लग गए लेकिन कह सकते हैं कि सपना सार्थक हुआ और मनु जोसेफ़ की पुस्तक पर आधारित सुधीर मिश्रा निर्देशित यह आज के समय की एक बेहद ज़रुरी फिल्म है।
सीरियस मैन फिल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
फिल्मची के और आर्टिकल्स यहाँ पढ़ें।
For more Quality Content, Do visit Digital Mafia Talkies.