दिलीप कुमार और कामिनी कौशल अभिनीत शबनम (फिल्म) का दौर वह है जब भारत देश के भीषण बंटवारे का घाव अपने आस्तीन में छुपाए अंग्रेज़ो से आज़ादी का जश्न मना रहा था। हर तरफ़ बस आशा और उम्मीद थी तो सिनेमा में भी बस मौज ही मौज दिखाई पड़ती थी। यह वह दौर भी था जब सिनेमा पर भीषण रूप से पारसी रंगमंच का प्रभाव था और सिनेमा की विधिवत पढ़ाई-लिखाई और ट्रेनिंग न होने (वो तो शानदार तरीक़े से अब भी नहीं है) की वजह से ख़ुद सिनेमा बनानेवाले सिनेमा की ताक़त से अपरिचित थे और शादी के विडिओ की तरह नाटक को ही भव्यता से फिल्मा लेने को सिनेमा समझते थे। बाक़ी दर्शकों का क्या है, उन्हें तो जो मिला उसी को सिनेमा मानते हैं, कल भी और आज भी। अब चुकी सिनेमा, रंगमंच, गीत-संगीत को लेकर आम इंसान की न कोई पढ़ाई है और कोई तैयारी तो उसकी हालत आज भी बंदर और अदरक वाली कहावत की ही तरह है और ज़्यादातर लोग आज भी सिनेमा का अर्थ केवल और केवल विशुद्ध मनोरंजन ही समझता है, जो कि कहीं से भी उचित नहीं है।
शबनम (फिल्म) पर आगे बात करें इससे पहले इसके कुछ पंथ (cult) सच्चाई पर गौर कीजिए। पहली बात तो यह कि इस फिल्म में दिलीप कुमार अमूमन हास्य करते हुए देखे जा सकते हैं और इसे देखकर आपको सहज ही अंदाज़ हो जाता है कि उनके ऊपर “ट्रेजडी किंग” की मुहर निश्चित ही किसी महामूर्ख ने लगाईं होगी और प्रचंड मुर्ख इसे मानते आए हैं। वैसे भी किसी भी अभिनेता को किसी भी एक ख़ास प्रकार के इमेज में बांध देना एक महान मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं माना जाना चाहिए। दिलीप कुमार एक शानदार अभिनेता हैं और वो किसी भी प्रकार की भूमिका के लिए उपयुक्त थे और यह बात उनकी कई अन्य फिल्मों को देखकर बड़ी ही आसानी से समझा जा सकता है। शबनम (फिल्म) भी उनमें से एक है। इस फिल्म में दिलीप कुमार के चरित्र का नाम मनोज है और ऐसा कहा जाता है कि फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने इसी फिल्म के प्रभाव में आकर अपना फिल्मी नाम मनोज कुमार रखा वरना उनका वास्तविक नाम तो हरिकिशन गोस्वामी है। दिलीप साहब मनोज कुमार के चहेते कलाकार भी थे और शायद आदर्श भी और मनोज कुमार के ऊपर दिलीप कुमार का भीषण प्रभाव ताउम्र रहा और वो साफ़-साफ़ देखा भी जा सकता है। वैसे ख़ुद दिलीप कुमार में अपने मूल नाम युसूफ ख़ान के बजाए हिन्दू नाम दिलीप कुमार के नाम से काम कर रहे थे, अब यह उन्हें क्यों करना पड़ा इस बात को आसानी से समझा जा सकता था क्योंकि हिन्दू और मुस्लिम विवाद जम के शुरू हो चुका था जिसके जिन्न की चपेट से हम आजतक बाहर नहीं निकले हैं बल्कि उसका जिन्न आज एक बार पुनः राजनैतिक और सामाजिक अमृत प्राप्त कर रह है। बहरहाल, इस फिल्म के शुरुआत के दृश्यों में दिलीप कुमार का चरित्र अपने कंधे पर एक झोला टांगता है और ऐसा ही झोला उन्होंने फूटपाथ (1953) में भी पत्रकार की भूमिका के लिए अपने कंधे पर डाला था। यह झोला भी “शबनम बैग” के नाम से बाज़ार में ख़ूब चल पड़ा और यह आज भी उपलब्ध है लेकिन अब इसका नाम शायद ही कोई “शबनम झोले” के रूप में जानता हो। तो इन सब मामलों में यह फिल्म एक पंथ बनाने का काम करती है।
जहां तक सवाल इस फिल्म की कलात्मकता का है तो फिल्मिस्तान जैसे बड़े स्टूडियो की फिल्म होने के नाते इसमें भव्यता दिलीप कुमार, कामिनी कौशल और जीवन का अभिनय तो है लेकिन उसके बाद बाक़ी सबकुछ पारसी रंगमंच की ही तरह मेलोड्रामा ही है। कहानी वर्मा के माइग्रेशन के समकलीन मुद्दे (1943) से शुरू होती तो है लेकिन बहुत जल्द ही यह पलायनवादी होकर उत्सवधर्मी हो जाती है और पलायन का दुःख दर्द और पीड़ा ठीक वैसे ही ग़ायब हो जाता है जैसे आजकल नेता के भाषण मात्र से ज़रूरी मुद्दे स्वाहा हो जाया करते हैं। पूरी फिल्म ऐसे चलती है जैसे कोई पलायन का पिकनिक मनाया जा रहा हो। एक से एक आइटम नम्बर आते रहते हैं और एक मूंछ लगा लेने से इंसान पहचान में नहीं आता और पैंट पहन लेने मात्र से भरी-पूरी जवान लड़की शांति देवी से ऐसे शांतिलाल कुछ ऐसे बन जाती है कि उसे पीठ पर भी उठाकर भी नायक पहचान नहीं पाता। यह और इस जैसा एक से एक महानतम सिनेमाई कु-तर्क भी हैं, जिसका दोहन आगे चलकर मनमोहन देसाई और एक से एक महानतम सिनेमाई व्यक्तित्व करनेवाले होते हैं।
शबनम (फिल्म) का संगीत सचिन देव वर्मन ने दिया है जिनका नाम उस वक्त एस वर्मन आता है यह बीच में डी कब जुड़ा यह एक अलग खोज का विषय हो सकता है। फिल्म के कुल दस गाने हैं जिन्हें बिना किसी तर्क के पूरी भव्यता के साथ फिल्माया गया है। वैसे भी हिंदी सिनेमा में किसी चीज़ के लिए किसी तर्क का होना अमूमन आज भी कोई आवश्यक चीज़ नहीं है। फिल्म के गीत क़मर जलालाबादी ने लिखे हैं और उसे शमशाद बेगम, मुकेश, गीता दत्ता, ललिता देउलकर ने गाया है। यह गीतकार लोग बड़े चालाक होते हैं और बड़ी ही कुशलतापूर्वक वो बात कह देते हैं जो कह देना चाहिए – अब एक गाना है –
हम किसको सुनाएं हाल ये दुनिया पैसे की
नहीं पास हमारे माल ये दुनिया पैसे की
कुछ तो दुनिया के मालिक कर गरीबों का ख़याल
भेज हलवा भेज पूरी भेज रोटी भेज दाल
इसी गाने में एक लाइन आती है कि “आज दुनिया में गरीबों का ख़ुदा कोई नहीं” और यह कल भी सत्य थी और आज भी सत्य ही है। याद रखिए कि यह बात 1949 में कही जा रही थी जब देश की आज़ादी के उत्सव में डूबा था और ऐसा प्रतीत होता था जैसे सब दुःख दूर हो जाएगें – सबके! बाक़ी फिल्म की कहानी यह है कि भारतीय सेना के पास मनोज आता है और फ्लैशबैक में कहानी सुनाता है कि शरणार्थियों के ऊपर जुल्म हो रहा है। वर्मा में हिंसा फैली है और लोग वहां भाग रहे हैं। अब लोगों की भीड़ चलती हुई दिखती है जिसमें शांतिलाल नामक एक लड़का भी है जो अपने पिता के लिए पानी की तलाश कर रहा लेकिन कोई पानी देने को तैयार नहीं क्योंकि आपदा को अवसर बनाते हुए कुछ लोग पानी को सोने के भाव बेच रहे होते हैं। मनोज उनके पास पानी लेकर पहुंचता है और इस चक्कर में वो झुंड जिसके साथ ये लोग चल रहे थे ग़ायब हो चुके हैं। फिर तीनों एक साथ यात्रा को अभिशप्त होते हैं और उसके बाद एक से एक सिनेमाई और अतिनाटकीय दृश्य उपस्थित होते रहते हैं और शरणार्थी की समस्या गधे की सिंग की तरह पता नहीं कहां ग़ायब कर दी जाती है। आगे हम्बाला डम्बाला जैसे गाने भी हैं और प्यार मुहब्बत, हीरो विलेन, हास्य कलाकार, त्याग-कुर्बानी, यादास्त का ग़ायब होना और एक गाने में यादास्त का वापस आना और फिर त्याग और नायक-नायिका का मिलन के साथ ही साथ खुशहाल अंत का जादुई फार्मूला भी है। कुल मिलाकर एकदम फुल्टू पारसी रंगमंच का मेलोड्रामेटिक और सफलता का अजमाया हुआ बेहतरीन तड़का। एक विलेन (जीवन) भी है जो सताईस बार बोलता है – मैंने ज़िन्दगी में कभी हार नहीं मानी और उसका एक चाणक्य नाम का सहयोगी भी है जो एक से एक घटिया आइडिया के साथ खलयानक की वाहवाही लूटता रहता है और हास्य कलाकार के तड़के को पूरा करता रहता है।
फिल्म में एक से एक चिड़ीमार हैं इसलिए गोली चलाते हैं लेकिन किसी का भी निशाना कभी सही नहीं लगता, नजदीक से भी और दूर से भी। यह सब है लेकिन फिर भी यह फिल्म दिलीप कुमार के शानदार अभिनय के लिए आज भी देखा जा सकता है कि कैसे एक अभिनेता अपनी प्रतिभा और मेहनत से भारतीय सिनेमा में अभिनय के अर्थ को अपने जूनून और कठिन श्रम से बदल रहा होता है। ऐसे ही कोई दिलीप कुमार नहीं होता। इसे आज कम से कम दिलीप कुमार के कॉमिकल टाइमिंग के लिए तो देखा ही चाहिए।
शबनम (फिल्म) YouTube पर उपलब्द है।
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