हिन्दुस्तानी सिनेमा सौ साल से ज़्यादा का हो गया. इन सौ सालों में यहाँ हर तरह की फ़िल्में बनी, बन रही हैं. पर जब भी तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य लोग फिल्मों के बारे में बात करते हैं तो बात वही दस-बीस-पचास फिल्मों तक घूमाकर समाप्त हो जाती है. सेक्स की बात करना वैसे भी हमारे समाज में अभी तक लगभग वर्जित है. लगता है जैसे हम सेक्स नहीं करते बल्कि हमारे बच्चे अवतार लेते हैं. सो मॉर्निंग शो वाली फिल्मों की बात करना हो सकता है उदंडता मानी जाय. यह एक वर्जित इलाका है, जिधर जाना तो सब चाहते हैं, पर सब दिखावा ऐसे करते हैं कि हमें मालूम ही नहीं कि सेक्स किस चिड़िया का नाम है ! वैसे आज हम जिसे मुख्यधारा का सिनेमा कहते हैं वहां भी अब धडल्ले से सेक्स को एक ब्रांड के रूप में परिवर्तित कर बेचा जा रहा है और वेबसिरिज़ तो एक से एक रसभरी है ही. खैर, तत्काल बात मॉर्निंग वाली सिनेमा की.
भारत में इन ‘केवल वयस्कों के लिए’ फिल्मों के दर्शकों की कभी कोई कमी नहीं है. चुकी इन फिल्मों को पहले से ही घटिया मान लिया जाता है, ऐसी फ़िल्में बनानेवालों को समाज इज्ज़त की नज़र से नहीं देखता. सो अमूमन कोई भी ‘सभ्य’ व्यक्ति ऐसी फ़िल्में बनाने, देखने का काम चोरी-चोरी अंजाम देता है. शायद इसीलिए आज भी ऐसी फिल्मों पर निहायत ही वाहियात किस्म के लोगों का राज है जिन्हें फिल्म विधा की कोई खास जानकारी नहीं. ये फ़िल्में निहायत ही बकवास लेखन, निर्देशन, अभिनय, संपादन सहित हर स्तर पर घटियापन का नायब उदाहरण पेश करतीं हैं. भारतीय सेंसर बोर्ड से (ए) प्रमाणपत्र प्रदत् ऐसी फिल्मों के नाम तक निहायत ही घटिया और विकृत मानसिकता वाले होतें हैं. मसलन – जंगल में ओए ओए, जवानी सोलह साल की, गर्म जवानी, प्यासी पड़ोसन, नमकीन साली, छलकती जवानी, कच्ची कली, रात के लड्डू, दूधवाली, जवानी की कुर्बानी, लाल मिर्ची, एक बार मज़ा लीजिए, कुआंरा पेईंग गेस्ट, जलता बदन, तन की आग, रातों की रानी, मस्ती बड़ी सस्ती, यारबाज़ बीबी, एक बार ढोल बजाओ न, उफ़ मिर्ची, रात की बात, चस्का, ऐय्यास, गरम पड़ोसन आदि.
सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाहॉल के ज़माने में ये फ़िल्में अमूमन मॉर्निंग शो में दिखलाई जाती थीं इसीलिए इसे मॉर्निंग शो वाली फ़िल्में भी कहतें हैं. किसी-किसी शहर में कोई खास सिनेमा हॉल ऐसी फिल्मों के रेगुलर शो के लिए भी विख्यात होता थे. ये फ़िल्में बहुत ही कम लागत में बनाई जाती हैं. किन्तु शायद ही कोई ऐसी फिल्म हो जिसने आपने लागत से कम माल कमाया हो. इसे सॉफ्ट पोर्न फ़िल्में भी कहा जाता है. इसकी कहानी अमूमन हर दस मिनट पर किसी मर्द-औरत या औरत-औरत को बिस्तर, बाथरूम, स्वीमिंगपूल, जंगल के किसी कोने आदि जगहों में कुछ-कुछ करने लिए ही लिखी जाती है. इन फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री को भी अभिनय से ज़्यादा मज़ा कपड़े उतरने में आता है. इन फिल्मों का साउंडट्रैक तो दुनियां के किसी भी सिद्धांत के पकड़ से बाहर की रचना होतीं हैं. इसके बाद शुरू होता है सिनेमा हॉल वालों का कमाल. जैसे ही मौका आता है वो बीच-बीच में दो-चार मिनट ब्लू फिल्मों की क्लिप चला देते हैं और दर्शक वाह-वाह करने लगते हैं. फिर क्या सिनेमा हॉल, फिल्म वितरक और पुलिस थाने की चांदी हो जाती है. वैसे ज़माने में जब पोर्न मोबाईल में कैद हो इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं हुआ था लोग इन फिल्मों में कहानी, अभिनय, संवाद, तकनीक आदि नहीं बल्कि पोर्न की वो क्लिपिंग ही देखने जाते थे. जिस फिल्म में जितनी क्लिपिंग उसमें उतनी भीड़. जहाँ यह नदारत वहां दर्शकों की भुनभुनाती हुई गालियाँ. सिनेमाघरों में ऐसी फिल्मों के दर्शक केवल पुरुष ही होते हैं.
ऐसी फिल्मों के पोस्टर में कम से कम कपड़ों वाली अधेड़ महिलाओं के उतेजक (भद्दी) तस्वीरों की भरमार होती और ये पोस्टर्स शहर के हर सार्वजनिक स्थलों की शोभा बढ़ा रही होती हैं. वे दीवारें जहाँ खुलेआम मूत्रविसर्जन का कार्य संपन्न किया जाता है वहां तो इन फिल्मों के स्पेशल पोस्टर्स लगाए जातें हैं. जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘केवल वयस्कों के लिए’ लिखा रहता है यानि जिसे सिर्फ 18 साल की उम्र से ही देख सकेते हैं. किन्तु ये फ़िल्में केवल वयस्क लोग देखतें हो ऐसा नहीं है. मुनाफाखोरी के युग में किसे पड़ी है कि कोई किसी का उम्र प्रमाणपत्र देखकर टिकट दे. हाँ, कभी-कभी कोई खडूस टिकट काटनेवाला कम उम्र के लोगों को टिकट देने से माना भी कर देता. इस दिल तोड़ देनेवाले अनुभव से द्रवित होकर कई बच्चे घर आके अपने गालों पर पापा का रेज़र चलाने लगते ताकि जल्दी से जल्दी दाढ़ी-मूंछ निकाल आए और वे सिनेमा हॉल पर सार्वजनिक रूप से अपमानित होने से मुक्त हो जाएँ.
ऐसे सिनेमा हॉल के दरबानों और सीट पर बैठानेवाले टॉर्च बाबुओं की अपनी ही त्रासदी है. सिनेमा खत्म होते ही इनके एक हाथ में टॉर्च होता और दूसरे हाथ में पोछे का कपड़ा. वो बुदबुदाते और दर्शकों को गन्दी-गन्दी गालियाँ बकते हुए सीटों पर टॉर्च जलाकर कोई मानवीय तरल पदार्थ पोछ रहे होते हैं. जिस दिन ये काम नहीं किया जाता उस दिन सीट पर बैठते ही दर्शकों माँ-बहन का सुमिरन शुरू कर देते. इन सिनेमाघरों के मूत्र-विसर्जन गृह की भी एक अपनी सुगंध-दुर्गन्ध होती है और फिल्म में ब्लू फिल्म की क्लिपिंग आते ही दरवाज़ा युक्त पखानाघर शायद ही कभी खाली मिलाता है. इन पखाना घरों से एक सिर नीचा किये निकलता तो दूसरा तेज़ी से घुस जाता. सबको पता है कि अंदर जानेवाले को न तो पखाना जाना है न पेशाब ही करना है.
जहाँ चीज़ों पर ज़रूरत से ज़्यादा पहरा हो वहां ऐसी विकृतियों का जन्म होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं. सेक्स को लेकर अति वर्जना की वजह ऐसी फ़िल्में अपराध बोध से ग्रसित होकर अमूमन अकेले या किसी अति विश्वसनीय मित्र के साथ देखी जाती, जिसकी चर्चा कहीं कोई नहीं करना चाहता. सिनेमा समाप्ति के पश्चात हॉल से निकलते ही टिकट को बड़ी बेदर्दी से फाड़कर अपने शरीर से दूर कर दिया जाता है और पाक साफ़ होने का दिखावा शुरू हो जाता है.
एक खास उम्र के पश्चात सेक्स के प्रति आकर्षण और उसकी चाहत मनुष्य ही नहीं किसी भी जीव का प्राकृतिक स्वभावों में से एक है. सभ्य समाज के नाम पर मनुष्य ने कई अप्राकृतिक बातों को भी अपने ऊपर थोपा है. रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं बल्कि मैथुन भी इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है. मानवीय इच्छाओं का ज़रूरत से ज़्यादा दमन भी बुरी प्रवृतियों का ही पोषक होता है. सेक्स के नाम भर से ही चैनल बदल देनेवाले हमारे समाज का एक सच आज ये भी है कि हमारे लेपटॉप, कंप्यूटर, मोबाईल फोन्स, नेट और सीडी-डीवीडी के दराज़ ब्लू फ़िल्में से भरे पड़े हैं और आध्यात्म और भारतीय परम्परा पर बड़े-बड़े प्रवचन देनेवाले बाबा, समाजसेवक, नेता आदि लोगों के सेक्स कांड की फ़िल्में इंटरनेट की शोभा बढ़ा रही हैं. ज्ञातव्य हो कि चीज़ों का सही और गलत इस्तेमाल से उनकी उपयोगिता का आंकलन करना उचित नहीं.
सेक्स शिक्षा के नाम पर आज भी हमारे यहाँ दादी, नानी, दोस्तों, फिल्मों, पोर्नोग्राफी युक्त किताबों और ब्लू फिल्मों के अधकचरे, असम्मानजनक, हिंसक ज्ञान और किस्से के अलावा कुछ नहीं है. विद्यालयों में सेक्स का प्रकरण आते ही गुरूजी या तो रस लेकर पढ़ाने लगतें हैं या घर से पढ़के आना कहके पन्ना पलट देतें हैं. आश्चर्य है कि कामसूत्र, अजंता-एलोरा आदि के भारत में सेक्स शिक्षा के नाम पर कुछ खास नहीं है.
आज ज़रूरत है सेक्स को सहजता से स्वीकार करने की. तब शायद ये पता चले कि यह एक प्राकृतिक क्रिया है पाप नहीं. विश्व में कई ऐसे देश हैं जहाँ सेक्स को केन्द्र में रखकर कुछ निहायत ही ज्ञानवर्धक और मनोरंजक फ़िल्में बनी हैं, बन रहीं हैं और जिसे दर्शकों का प्यार भी मिला है. भारत में भी एकाध प्रयास हुए हैं किन्तु समाज और दर्शक अपनी दकियानुसी मानसिकता की वजह से इन प्रयासों का समर्थन करने की स्थिति में नहीं है. यहाँ लौंडा नाच, बाईजी का नाच आदि देखना सम्मान और परम्परा का अंग बनता है किन्तु सेक्स की विधिवत शिक्षा नहीं. यहाँ बात-बात पर लोगों की भावनाएं ही आहात होने लगतीं हैं.
वैसे अब ज़माना इंटरनेट और स्मार्टफोन का है तो अब एक टच पर हर किसी के मोबाइल की पहुंच में पोर्न फिल्में हैं, लेकिन वहां भी कचरे का भरमार है जो केवल और केवल विकृतियों को ही फैलाने का काम करती हैं। आज ज़रूरत है कि इसे एक सहज मानवीय क्रिया माना जाए और सेक्स एजुकेशन पर आधारित बेहतरीन फिल्मों, धारावाहिकों और वेबसिरिज़ का निर्माण हो, जो इंसान के मनोरंजन के साथ ही साथ सेक्स के विषय में बने टैबू को समाप्त कर सके.
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