Sunday, December 8, 2024

रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) : होना, दिखना व दिखाना!

हिन्दू संस्कृति में जब किसी का देहांत होता है तब उसकी तेरहवीं मनाने की परम्परा है, जो किसी की मृत्यु से लेकर ब्रह्मभोज तक में संपन्न होती है। अब यह परम्परा कब, कैसे और क्यों बनी, रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) का विषय नहीं है वैसे भी कोई भी चीज़ परम्परा कैसे बनती है उसके ऊपर मोटी-मोटी पुस्तकें हैं लेकिन अगर उसका फटाक से समझना है तो उसका सबसे सटीक जवाब शरद जोशी अपने नाटक एक था गधा में देते है – “जो चीज़ एक बार होती है और होती चली जाती है, उसे परम्परा कहते हैं।” तो यह एक परम्परा है, जो कहीं कभी एक बार कहीं हुई होगी और अब तक होती चली आ रही है। आस्थाओं की बात फ़िलहाल रहने देते हैं क्योंकि आस्थाओं के पीछे न कोई तुक है और न तर्क है। बाक़ी सबकुछ समय के अनुसार से परिवर्तित होतीं हैं, जीवन भी और परम्पराएं भी। किसी अपने के मृत्यु का शोक, एक साथ जुटना और फिर उस शोक से बाहर निकलने के लिए किए कर्मकांड के नाम पर किए जानेवाले प्रयत्नों का नाम है तेरहवीं। मृत्यु जीवन का सत्य है और किसी की मौत से बाद बाक़ी सबका जीवन रुक नहीं जाता बल्कि जीवन की अपनी गति है जिसे संचालित होते रहना है। वैसे अलग-अलग व्यक्तियों का शोक भी अलग-अलग है, वो व्यक्ति और व्यक्तित्व पर निर्भर करता है और बाक़ी संवेदना का भी प्रश्न है। अब कर्मकांड और संवेदना का क्या अंतर्संबंध है यह मेरी समझ से परे की बात है। वैसे किसी का शोक पूरी दुनिया मनाती है तो कोई अपने परिवार तक ही सीमित रहता है। तो किसी-किसी का शोक जबरन मानना पड़ता है। वहीं किसी की मौत से हमारा सीधा रिश्ता न होते हुए भी हम उनसे जुड़ जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि किसी भी चीज़ के पीछे कोई एक बात न होती है, न होगी और होनी भी नहीं चाहिए।  

यह परम्पराएं आदिकालीन हैं। तब दुनिया की बनावट कुछ और थीं लेकिन वर्तमान का सत्य यह है कि धरती देश में बंटी, देश राज्य में, राज्य ज़िला में, ज़िला गांव, कस्बा और शहर में, फिर मोहल्ले और टोले बांटें और ऐसा बांटते-बांटते आज रोज़ी-रोज़गार की तलाश में परिवार भी बंट गया और अब एक ही कमरे में एक इंसान दूसरे इंसान से से क्या अपनेआप भी कई टुकड़ों में बंटा हुआ है। आज एक ही परिवार के लोग कोई वहां है तो कोई कहां और सबका अपना-अपना संघर्ष, अपना-अपना समाज और बंटते-बंटते दुःख और दर्द ही नहीं बल्कि संवेदनाएं भी बंट गईं हैं। फिर भी कहीं न कहीं एक सोच अभी भी क़ायम है कि ख़ुशी में शरीक हो या न हों, ग़म में तो आपको शरीक होना ही होना है – दुःख हो या ना हो इस बात से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। वैसे भी दुःख का होना, दुःख का दिखना और दुःख का दिखाया जाना, दुःख महसूस होना सब बिलकुल अलग-अलग बातें हैं और सबका अपना-अपना महत्व और उद्देश्य है और सबके अपने-अपने फ़ायदे और नुकसान हैं। परम्परा और संस्कृति के नाम पर अब यह भी पूर्वनिर्धारित हो गया है कि एक इंसान को कब, कैसे, कहां और किस प्रकार क्या करना है! अनिश्चितता और पूर्वनिर्धारन, इसी के बीच पैदा होता है ड्रामा!   

साज़ को कभी भी बेसुरा नहीं छोड़ना चाहिए, साज़ की इज़्ज़त करनी चाहिए नहीं तो सुर नाराज़ हो जाएगें।” को जीवनमन्त्र माननेवाले रामप्रसाद (नासिरुद्धीन शाह) की अचानक मृत्यु हो जाती है और उसके तमाम रिश्तेदार जमा होते हैं और उसके बाद शुरू होता है कुछ सुरीला और कुछ बेताला, बेसुरा सुर-ताल का असली खेल। इस खेल में वो सबकुछ हो रहा होता है जो होना चाहिए और वो सबकुछ भी जो नहीं होना चाहिए। वैसे भी जब साज़ के ही सुर-ताल सही न हों तो कैसा संगीत पैदा होगा। इसलिए पहले ही दृश्य में बुजुर्ग और बीमार रामप्रसाद एक बच्चे का सुर ठीक करने की ज़िद्द रहा है।

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वैसे सारा खेल ही इस होने और न होने का है और कुछ होता है तो कुछ निभाया जाता है और जीवन अपनी गति से चलता रहता है क्योंकि कितनी भी सामाजिकता और समूह की बात की जाए, व्यक्ति का अपनेआप में एक अलग वजूद का होना भी सत्य है, वो एक सामाजिक प्राणी के साथ ही साथ एक अलग व्यक्तित्व भी है, यह बात है लेकिन इसकी मान्यता बहुत कम है। इंसान एक सामाजिक प्राणी है – सारी बात पता नहीं क्यों यहीं आकर ख़त्म हो जाती है जबकि “बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं” की तरह सबका अपना एक अस्तित्व (वजूद) होता है। वजूद के ऊपर जब जबरन सामाजिकता थोपी जाती है जब जो पैदा होता है उसे “काला हास्य” कहते हैं। यह होने और दिखने का द्वन्द है और जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती रहती है आप पटकथा लेखक और निर्देशक सीमा पाहवा के भारतीय समाज के सूक्ष्म से सुक्षतम अवलोकन और यथार्थवादी दृश्यबंध के साथ दृश्यों के फिल्मांकन पर मोहित होते जाते हैं। यह सब सत्य की धरातल पर किसी भोगे हुए यथार्थ सा प्रतीत होता है जिसमें भीतर रिश्ते, नाते और इंसान का हर वो भाव समाहित है जो होना तो नहीं चाहिए लेकिन है और जो फिल्मों और जीवन की बनी-बनाई नकली दुनिया और नायक-खलनायक की झूठी और विशालकाय परिधि से बिलकुल अलहदा है। सीमा लम्बे समय तक रंगमंच से जुडी रही हैं और उन्होंने ऐसी ही एक घटना को लेकर पिंडदान नामक नाटक लिखा था। रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) उसी नाटक का सिनेमाई रूपांतरण है। जिसका कैमरा मूवमेंट, कला-सम्पादन, अर्थवान संगीत, अभिनेताओं की ब्लौकिंग और चरित्रांकन, संवाद, अभिनय सब के सब दिखावे से दूर और यथार्थवाद(?) की धरातल पर स्वादानुसार है।

रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म)

सिनेमा का सिनेमा होना और कैमरा की आंखों से सिनेमा देखते हुए सिनेमा न देखने का एहसास होना एक बड़ा ही विरल अनुभव होता है, यह फिल्म आपको उस अनुभव की अनुभूति देती और आश्वस्त कराती है कि भले ही तमाम प्रकार के आडम्बरों ने आंख, दिल, दिमाग को चौंधिया देनेवाली सिनेमाजगत को घेर लिया है लेकिन सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और हृषिकेश मुखर्जी जैसे पुरोधाओं की धरती अभी भी बंजर नहीं हुई है और आंखों के सहारे दिल और दिमाग में बस जानेवाली रचनात्मकता की भारतीय पैदाइश का रास्ता उसी गली से गुज़रता है। वैसे भी बिना स्थानीय हुए वैश्विक होने की बात वैसा ही है जैसे बिना जड़ के पत्ते, फूल और फल की उम्मीद पालना। सिनेमा को लेकर गंभीर चिंतन करनेवाले लोग सिनेमा की दुनिया में बड़े मुश्किल से ही बरामद किए जाते है। अब यहां कला कम व्यवसाय ज़्यादा है। यह फिल्म उस मुख्यधारा(?) से अलग और सार्थक है।

रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) के अभिनय के बारे में बात न किया जाए तो उचित नहीं होगा। अभिनय क्या है और क्या नहीं, यह बड़ा पेंचीदा सवाल है और इसके चक्कर में पड़कर दिमाग का घनचक्कर हो सकता है इसलिए इस बात को यही छोड़ देते हैं और बात केवल इस फिल्म तक ही केन्द्रित रखने की चेष्टा करते हैं। अभिनेता का चरित्र में बदल जाना एक दुर्लभ प्रकिया है, जिसे सीखना, समझना और साधना पड़ता है। यह “अंदर से बदलो बाहर अपनेआप बदल जाएगा” वाला सूक्ष्म और पेंचीदा खेल है। यह प्रक्रिया इस फिल्म के अधिकतर अभिनेताओं में इसलिए देखने को मिलती है क्योंकि ज़्यादातर कलाकार अभिनय के साधक हैं, जिनके इतिहास और वर्तमान में रंगमंच की एक लंबी प्रक्रिया है। इन्हें जब भी मौक़ा मिलता है अभिनय करते और साधने की चेष्टा करते हैं क्योंकि ये अभिनेता हैं सितारे (?) नहीं। इसलिए यहां आपको अभिनय का स्वाद मिलता है बशर्ते आपको अभिनय का रसास्वादन करने की तरीका और उसकी आदत हो। लगभग सारे कलाकारों का क्राफ्ट एकदम सहज और सरल है और अभिनय में सहजता को पाना भी एक कठिन तप है।   

नाट्यचिंतन स्तानिस्लाव्सकी का कथन है कि कोई भी भूमिका छोटी-बड़ी नहीं होती बल्कि अभिनेता छोटा-बड़ा (अच्छा-बुरा) हो सकता है। यहां नसीरुद्दीन शाह चंद मिनट की भूमिका में हैं लेकिन फिल्म ख़त्म होने बाद भी आप उन्हें ठीक उसी प्रकार याद रखते हैं जैसे गोदो के इंतज़ार में नाटक पढ़ते और देखते हुए गोदो को याद रहता है, जो मंच पर कभी आता ही नहीं है और अगर किसी से पूछा जाए कि गोदो के इंतज़ार में नाटक में मुख्य भूमिका किसकी है तो संभव है कि किसी ज्ञानी का जवाब हो गोदो और आप चौंक पड़ें!

रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म)

विनीत कुमार अपने तरह के एक अलहदा इंसान और अभिनेता हैं जो वैसे तो बहुत कम ही दिखते हैं लेकिन जब भी दिखते हैं, ख़ास और पूरी तैयारी के साथ होते हैं। वो छापनेवाले नहीं बल्कि रचनेवाले अभिनेता है और यह बात इस फिल्म में उनके पहले ही दृश्य से तय हो जाता है। जब वो फ्रेम में आते हैं और सबसे पहले कोई संवाद बोलने से पहले अपनी रीढ़ सीधी करते हैं। आप अगर सोचें कि यह क्यों किया तो पता चलता है कि उनका चरित्र रिक्शे की यात्रा करके आया है और यात्रा में पीठ का अकड़ जाना एक आम बात है और उनका यह एक जस्चार सिनेमा के मूल कथ्य में कोई बहुत बड़ा योगदान करता हो या न करता हो लेकिन उनके चरित्र की जर्नी को स्थापित कर देता है। ऐसे सूक्ष्म योगदान अभिनय कला की बारीकियां हैं जो मंच, सिनेमा, धारावाहिक या वेबसिरिज़ किसी में भी उत्पादित हो, कला को समृद्ध करता है। ऐसा कुछ रचाने के लिए “हम जहां खड़े हो गए, लाइन वहीं से शुरू होती है” के तर्ज़ पर “हमने जो कर दिया, वही अभिनय है” वाली सोच का दाह-संस्कार करना पहली शर्त है। वैसे भी इस देश में प्रतिभावों की नहीं, अवसरों की कमी है। सुप्रिया पाठक, विनय पाठक, कोंकणा सेनगुप्ता, मनोज पाहवा, ब्रिजेन्द्र काला, राजेन्द्र गुप्ता और परमब्रत चक्रवर्ती सहित तमाम अभिनेता यहां चरित्र हैं।   

शब्द जब ख़त्म हो जाते हैं और मौन मुखर हो जाता है तब कला अपने चरम पर होता है। रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) में कई ऐसे दृश्य हैं जहां मौन है लेकिन उन दृश्यों का असर बड़ा अद्भुत है। उदारहण के लिए वो दृश्य जब मामा जी (विनीत कुमार) छत पर दारु पीते भाइयों के बीच उपस्थित होते और एक चुप्पी व्याप्त हो जाती है या फिर वो दृश्य जब सबलोग छत से देर रात शराबखोरी करके उतर रहे होते और दूर से मां उन्हें चुपचाप देख रही है। बहुओं की चुगली करते हुए किसी के आगमन पर एकदम चुप हो जाना और थोड़ी देर सिनेमाई पर्दे पर उस चुप्पी को होल्ड करना। ऐसे करेजा को चीर देनेवाले दृश्य बहुत विरले ही देखने को मिलते हैं और यह किसी सिनेमाई धरोहर की तरह हैं। यह निश्चित ही सीमा पाहवा की नाटकीय दृश्य परिकल्पना के ज़ोरदार दस्तक का घोतक भी और भविष्य के लिए उम्मीद जगृत करनेवाला भी।  

सत्य जलते अंगारे के जैसा होता है और जिस तक पहुंचने के लिए तमाम प्रकार के सामजिक, व्यक्तिगत झूठ, भ्रम, आवरण को चीरना पड़ता है। “सात सुरों जैसी है ये ज़िन्दगी, बस अपने सुर की पहचान होना ज़रूरी है, जिस दिन सही सुर समझ जाओगे, ज़िन्दगी आसान हो जाएगी। जिंदगी तुम्हारी है तो सुर भी तुम्हारा होना चाहिए।” अपने आख़िरी संवाद में मानव जीवन का सार तत्व समझाती इस फिल्म के भरतवाक्य को सुनना, देखना और समझने से ज़्यादा आवश्यक है महसूस किया जाना क्योंकि जीवन का सार तत्व भी कहना, बोलना, समझना-समझाना से ज़्यादा महसूस किए जाने में है और महसूस करने का असल सूत्र यह नहीं है कि अंडे पर मुर्गी के मानिंद बैठे गए कि लो हम महसुस कर रहे हैं बल्कि निराकार भाव से अपना साज़ और वाद्य (इन्द्रियां) सुर, ताल और लय में रखना है, जिसके अलग-अलग समन्वय से सामूहिकता और समाज का निर्माण होना है बाक़ी सब अपनेआप घटित और उद्घाटित होगा। वैसे भी अपनी-अपनी सांस्कृतिक ज़मीन और जड़ों से मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से (धर्मिक और कर्मकांड नहीं) से अलग हुए और अपने ही जीवन में अपने आप तक से प्रवासी हो गए और किसी के कहने पर कान और कौए की कहावत को चरितार्थ करते हमलोग देखते, सुनते, बोलते और करते बहुत ज़्यादा हैं महसूस बहुत ही कम करते हैं जबकि सत्य यह है कि सत्य कहा, सुना, देखा नहीं बल्कि धारण और महसूस किया जाता है और ऐसा घटित होने के लिए संवेदनाओं की सच्ची और मानवीय जागृती आवश्यक है किन्तु भौतिक जगत में जीभ और जांघ का भूगोल चलन के साथ ही साथ भ्रम और झूठ का आकर्षण भी, बाक़ी बातें हाथ पोंछकर कूड़ेदान में डालने के काम में इस्तेमाल होने लगी हैं। रामप्रसाद की तेरहवीं को देखा उसे अपने भीतर महसूस करना हैं और साल की शुरुआत के लिए यह एक सार्थक मौक़े के जैसा है


रामप्रसाद की तेरहवीं (फिल्म) सिनेमा घरों में दिखाई जा रही है। यह फिल्म ज़रूर देखें।

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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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