Thursday, April 25, 2024

भारतीय सिनेमा : कला पर व्यवसाय का राज

“यहां कोई अंत नहीं है, कोई शुरुआत नहीं है; केवल जीवन की अनंत जुनूनी यात्रा है. ।” फैलिनी, विश्व प्रसिद्द फिल्मकार

सृजनात्मक क्षेत्र में एक जगह से कॉपी-पेस्ट करना चोरी कहा जाता है पर पचास जगह से कॉपी-पेस्ट करना रिसर्च वर्क। इसलिए इस आलेख पर नक़ल का आरोप लगाने का अर्थ है रिसर्च की महान भारतीय परम्परा को नकली कहना। अब चुकी इस आलेख के केन्द्र में भारतीय सिनेमा है तो नक़ल का आरोप तो वैसे भी अपने आप ही खारिज हो जाता है। अगर ये आलेख मौलिक नहीं है तो भारतीय सिनेमा में बहुतेरी फ़िल्में नकली हैं। जहाँ तक संभव होगा मैं कॉपी-पेस्ट वाली जगह के मूल श्रोतों को आभार सहित उल्लेख करने की पूरी कोशिश करूँगा, हालाँकि ये महान भारतीय फ़िल्मी परंपरा के ख़िलाफ़ है और ऐसा करते हुए मेरा दिल बार-बार रोएगा और मेरे फिलम्ची होने पर मुझे धिक्कारेगा। हे फिल्म नामक उत्पाद के अंधभक्त खरीदार फिलमचियों, स्टार के जलवों और हिरोइन की वैक्स की हुई सूखी टांगों और थोड़ी दिखाती थोड़ी छुपती वक्षों पर कुर्बान होने वाले सात्विकों और फ़िल्मी पंडितों, हालांकि यह संभव नहीं फिर भी मेरे इस अपारंपरिक कृत के लिए हो सके तो मुझे क्षमा करना। जो हिट है वो फिट है! 

भारतीय फिल्म उद्योग सौ साल से ज़्यादा का हो गया। जितना तेज़ी से इस कला का व्यावसायीकरण हुआ है वो काबिलेतारीफ भी है और चिंताजनक भी। भारत में सिनेमा के इतिहास पर जब भी बात हो उसे 7 जुलाई 1896 की तारीख से की जानी चाहिए जब फेंच कैमरामैन मरियस सेस्तियर (लुमियर ब्रदर्स) ने बॉम्बे के वाटसन होटल में 6 फिल्मों का पैकेज मेजिक्लैम्प फिल्म दिखाई जो कि भारत में पहली बार किसी भी प्रकार के फिल्म (चलचित्र) का प्रदर्शन था। देश में पहली बार किसी घटना की फिल्म 1897 में भाटवडेकर ने उतारी। उन्होंने मुंबई हैंगिंग गार्डन में हुई एक कुश्ती का फिल्मांकन किया था। भारत में सबसे पहला चलचित्र कैमरा 1818 में कोलकाता के हीरालाल सेन ने ख़रीदा था। इससे वो राजा-महाराजाओं की दिनचर्या और राजप्रासादों का फिल्मांकन करके आम जनता को दिखाते थे। 1901 में कैम्ब्रिज़ विश्वविधालय से गणित की परीक्षा में सर्वाधिक अंक पानेवाले भारतीय छात्र आरपी परांजपे की भारत वापसी की घटना पर सावे दादा ने देश की पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी। (तहलका, सिनेमा विशेषांक) यह सब तथ्यगत सच्चाइयां हैं पर समस्या यहां यह रही है कि सिनेमा ने शुरुआत से ही व्यावसायिक सफलता को ही अपने इतिहास में जगह दिया है।

खुद फाल्के साहेब (30 अप्रैल 1870 -16 फरवरी 1944) यश और आय में वृद्धि की बात बार-बार करतें हैं। शायद यही कारण है कि भारतीय सिनेमा अपना इतिहास राजा हरिश्चंद्र से ही मानता है या मानने में सहजता महसूस करता था, जो व्यावसायिक रूप से एक “सुपरहिट फिल्म” थी। स्वयं दादा साहेब फाल्के अपने एक आलेख में कहतें हैं “इस चित्रपट (राजा हरिश्चंद्र) की एक ही प्रति पर इतनी आश्चर्यजनक आय हुई कि कोई भी ललचा जाये। इस चित्रपट की दर्जन भर प्रतियों की मांग थी। लेकिन एक ही प्रति की यह आय इतनी अधिक थी कि कारखाने (दादा साहेब फिल्म बनाने की कंपनी को कारखाना नाम देतें हैं, जिससे प्रभावित होकर मराठी में उनके जीवन और रचनाकर्म पर आधारित फिल्म “हरिशचंद्रची फैक्ट्री” के नाम रखने का माध्यम भी बना) के काम को आगे बढ़ाया जा सकता था। (नवयुग, 1913)” 

- Advertisement -
दादा साहेब फाल्के

चालीस वर्ष की उम्र में फाल्के साहेब फिल्मकार बनने से पहले सन 1910 में बोम्बे (मुंबई) के एक सिनेमाघर में द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देख के बहुत प्रभावित हुए। पड़ोसियों से पैसा उधार लेकर अगले दिन पुनः काकी (पत्नी सरस्वती) के साथ फिल्म देखी। “आरम्भिक प्रयोग करने के बाद वे लंदन गए और वहां पर दो महीने रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और फ़िल्म निर्माण का सामान लेकर भारत लौटे। तत्पश्चात् 1912 में ‘दादर’ (मुम्बई) में ‘फाल्के फ़िल्म’ नाम से अपनी फ़िल्म कम्पनी आरम्भ की।” (विकिपीडिया) और तब 3700 फिट लम्बी फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र (3 मई, सन 1913) बनाई। इसे ही भारत की पहली फीचर फिल्म होने का गौरव प्राप्त है।कुछ लोग राजा हरिश्चंद्र को हिंदुस्तान की पहली फीचर फिल्म माने जाने को एक क्रूर बिडम्बना मानतें हैं। उनके अनुसार 8000 फुट लंबी पुंडलिक नामक फिल्म का निर्माण रामचंद्र गोपाल उर्फ़ दादासाहेब तोरने पहले ही कर चुके थे।

उनकी इस फिल्म का प्रदर्शन 18 मई 1912 यानि राजा हरिश्चंद्र के लगभग एक साल पहले ही बम्बई के कोरोनेशन थिएटर में किया जा चुका था। ज्ञातव्य हो कि राजा हरिश्चंद्र का प्रदर्शन 3 मई 1913 को बंबई के कोरोनेशन थिएटर में ही किया गया था। इस बात की गवाही के लिए फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, राष्ट्रीय अभिलेखागार, पुणे विश्वविद्यालय, गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पोलिटिक्स एंड इकोनोमिक्स, मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय आदि का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है। हालांकि इसे पहली फिल्म न मानने के पीछे भी ‘महापंडितों’ के कुछ अपने ही तर्क हैं। उदाहरणार्थ – चूंकि यह एक नाटक पर आधारित थी, इसे लन्दन में प्रोसेस किया गया, इसका कैमरा तथा कैमरामैन विदेशी था वहीं एक तर्क ये भी है कि यह सीधे-सीधे नाटक को शूट कर लिया गया था। इसकी कुछ शूटिंग बाहर (आउटडोर) में भी की गई थी इसका प्रमाण भी मिलता है। अन्य जिन तर्कों के आधार पर “पुण्डरीक” को ख़ारिज किया जाता है आज वे तर्क बेमानी से लगतें हैं। आज कई सारी फ़िल्में नाटक तथा अन्य साहित्यिक अथवा गैर साहित्यिक कृतियों को आधार पर गढ़ी जाती है जिसे विदेशी तकनीक यहां तक की अभिनेता आदि के साथ शूट किया जाता है, तो क्या इन्हें हम भारतीय सिनेमा नहीं मानते?

भारतीयता का अर्थ आज उतना स्पष्ट भी नहीं है। उदाहरण भरे पड़े है आज क्या हम तो अपने सिनेमा के बाल काल से ही विदेशों की हू-ब-हू नक़ल करके बने हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों को बड़े आराम से भारतीय सिनेमा मानते हैं। राजकपूर की फिल्म चोरी-चोरी हालीवुड की फिल्म “इट्स हैपेन वन नाईट” का हिन्दुस्तानी संस्करण है, तो क्या हम चोरी-चोरी को भारतीय सिनेमा नहीं मानते! किसे भारतीय कहें किसे गैर-भारतीय इसका जवाब देना आज इतना आसान नहीं हैं। वैसे कुछ फ़िल्मी महापंडित “पुण्डरीक” को पहली नाट्य-टॉकी तक तो मानने को तो तैयार हो जाते हैं पर पहली फीचर फिल्म नहीं। वैसे यह इतिहास का झगड़ा है और ये कतई ज़रूरी नहीं कि एक को सही साबित करने के लिए दूसरे को ग़लत साबित किया जाय।

दादा साहेब फाल्के खुद जब भारतीय सिनेमा की नीव की बात करतें हैं तो निम्न बातें कहते हैं – “1910 में बम्बई के अमेरिका-इण्डिया पिक्चर पैलेस में मैंने “द लाइफ आफ क्राइस्ट” फिल्म देखी होंगीं, लेकिन इससे पहले, कई बार अपने परिवार या मित्रों के साथ फ़िल्में देखीं होंगीं, लेकिन क्रिसमस के उस शनिवार को, मेरे जीवन में एक क्रन्तिकारी परिवर्तन आरम्भ हुआ। उस दिन भारत में, उस उद्योग की नीव रखी गई, जिसका वर्तमान छोटे-बड़े बेशुमार उद्योगों में पांचवा स्थान है।”(नवयुग,1913)

दादा साहेब फाल्के

दादा साहेब फाल्के का काल भारतीय इतिहास में स्वदेशी आंदोलन का काल भी था। दादा साहेब लिखतें हैं – “यह स्वदेशी आन्दोलन का काल था। स्वदेशी पर भाषणों की इफरात थी। परिणामतः मैं अपनी अच्छी-भली सरकारी नौकरी छोड़कर स्वतंत्र औद्यौगिक व्यवसाय प्रारंभ करने को प्रेरित हुआ। इसी अनुकूल काल में मैंने अपने मित्रों और स्वदेशी आन्दोलनों के नेताओं को अपने कल्पना जगत के सिनेमा की स्वप्निल आशाएं दर्शायीं। जो लोग 10-12 साल से जानते थे, स्नेह करते थे, उन्हें भी मेरी बात कल्पना जैसी लगी और मैं हंसी का पात्र बन गया ( नवयुग, 1913 )।

इसी आलेख में वो आगे लिखतें हैं – “ऐसे बिलकुल नए लोगों द्वारा हाथ से चलनेवाले यंत्र बिना स्टूडियो के इतनी कम लागत से बनाई गई फिल्म ने विलायत में पूंजी वाले और प्रशिक्षित लोगों को चकित कर दिया। वहां के विशेषज्ञ फ़िल्मी पत्रिकाओं ने उसे अद्भूत करार दिया। इससे अधिक मेरे कारखाने के कर्मचारियों-भारतपुत्रों को और क्या चाहिए था ?” 

आखरी पंक्ति पर यदि गौर किया जाय तो पता चलेगा कि भारतीय फिल्म उद्योग आज तक उपनिवेशिक मानसिकता से नहीं उभरा है। आज भी विदेशों में फिल्मों को थोड़ा सा भी भाव मिलने पर सबकी बांछें खिल जातीं हैं। आज कल तो एक कमाल का फैशन चल पड़ा है कि फिल्म भारत में प्रदर्शित करने से पहले विदेश के किसी महोत्सव में जैसे तैसे दिखाकर, चमड़ी से गोरे लोगों की थोड़ी वाहवाही (आशीर्वाद) पाकर भारत में प्रदर्शित करने पर हिट अथवा सुपरहिट होने कि संभावना ज़्यादा प्रबल हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली स्थित और सदियों से विराजमान हुमायु का मकबरा देखने अमेरिकी राष्ट्रपति जैसे ही जातें है तो उसके बाद उस मकबरे को देखनेवाले भारतियों की संख्या में जादुई इज़ाफ़ा होता है।


सरकार सदियों से लगभग उपेक्षित पड़े मकबरे का कायाकल्प करती है, पुरातत्व विभाग के आमदनी में इज़ाफ़ा होता है और एक खास भारतीय तबके के लिए उस मकबरे को देखना एक स्टेटस सिम्बल बन जाता है। ये प्रक्रिया ठीक वैसे ही काम करती है जैसे कि हम अपने जीवन में सुपर-स्टारों के विज्ञापनों, जीवन-शिलियों, हेयर स्टाईल्स, कपड़े पहनने के ढंगों यहां तक कि संवाद अदायगी के तरीकों आदि का हास्यास्पद नक़ल करतें हैं। खैर, बात को आगे बढ़ाते हुए ये गौर करतें हैं कि स्वदेशी आन्दोंलन के प्रति फाल्के साहेब का नज़रिया क्या था। अपने उसी आलेख में फाल्के साहेब अंग्रेज़ी शासन काल के बारे में राय व्यक्त करतें हैं – “मेरे मैनजर को इतनी भयंकर बीमारी हुई कि बिना ऑपरेशन के चारा नहीं था। उसे जे।जे। हास्पिटल में किसी अनाथ की तरह रहना पड़ा। इस बीमारी की स्थिति में उसके खिलाफ पुलिस ने झूठा मुकदमा खड़ा किया। वकीलों की फ़ीस, बार-बार बढ़नेवाली पेशियां, गाड़ीभाड़ा, गवाह-सबूत आदि के चक्कर में मैं फंस गया। दयालु सरकार के न्यायी दरबार में मेरा आदमी दोषमुक्त कर दिया गया और स्वयं कोर्ट ने उलटे पुलिस पर मुक़दमा दायर करने की अनुमति दे दी (नवयुग, 1913)।” 

अंग्रेज़ी राज को दादा साहेब फाल्के दयालु और न्यायी कह रहें हैं पूरी स्वेक्षा के साथ। हो सकता है यह उनकी व्यावसायिक मजबूरी हो, नहीं भी हो सकती है, बाकी क्या कहें आप खुद ही समझदार हैं। कोई फैसला करने के पूर्व इतना याद ज़रूर रखियेगा की भारतवर्ष के सिपाही विद्रोह (1857) में मंगल पाण्डेय समेत सैकड़ों बहादुरों की कुर्बानी हो चुकी थी। अगर ज़्यादा लाग लपेट के साथ न कहा जाय तो यह कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति का संघर्ष फाल्के साहेब के इस वक्तव्य से लगभग 55 साल पहले शुरू हो चुका था। मतलब कि फिल्मी दुनिया पहले से ही एक अलग गोले पर रहकर अपना व्यावसायिक हित साधती है!

मद्रास में 23 जुलाई, 1940 को अपने भाषण दिया था, जो उनका आखिरी भाषण भी माना जाता है उसमें फाल्के साहेब कहतें हैं – “मुझे खुशी है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा उद्योग अब सुस्थापित हो गया है जैसी कि उम्मीद थी। शुरू में, मैंने कला-मातृ के इस पवित्र मंदिर में एक उत्साही उपासक के रूप में इसके विकास की दिशा में अपने हिस्से की विनम्र सेवा अर्पित की थी। लेकिन अब मुझे कई कारणों से लगता है कि उद्योग को जिस सही दिशा में यात्रा करनी थी, वैसा नहीं हो रहा है। महंगे ‘सितारों’ को लेने और ढेर सारे गाने और लम्बे-लम्बे संवाद रखने की प्रवृति पर भी लगाम लगना चाहिए। नाटकीय दृष्टि से भी इन फिल्मों का स्तर अत्यंत निम्न है। सिनेमा एक शैक्षणिक उपदेशक है और इस लिहाज से उचित विषय-वस्तु रखे जाने चाहिए। असभ्य और चिढ़ पैदा करने वाले हास्य-प्रसंगों, जिनका कहानी से कोई सम्बन्ध नहीं होता और हमारी हिन्दुस्तानी फिल्मों में जिनकी बहुतायत है, से हमारे निर्माताओं और निर्देशकों को बिलकुल परहेज करना चाहिए।” (अंग्रेज़ी से अनुवाद प्रकाश के रे)

दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जन्मदाता माना जाता है तो भारतीय उद्योग अपने जन्मदाता की ही बात पर कितना अमल कर रहा है ये किसी से छुपा नहीं है।


अंधेरी रात में – दीया तेरे हाथ में 

ये मायानगरी है। यहां चमकते सूरज को सलामी दी जाती है। ये बात और है कि यहां एक उगता सूरज कई डूबते सूरज के कंधों पर सवारी करके राज करता है। यहां सफल लोगों की लिस्ट असफल लोगों की से बहुत छोटा है। पर जो दुनियां का दस्तूर है सो है। अब असफल लोगों का इतिहास कौन लिखे और कौन पढ़े। हां, यह बात और है की लोग असफल क्यों होतें हैं ये जानना भी ज़रुरी है सफल होने के लिए। यहां सफलता – असफलता का प्रतिभा और प्रतिभावान से उतना ही रिश्ता है जितना पैसा कमाने और सामाजिक कार्यों के द्वारा मात्र नाम कमाने के बीच होता है।  यह बाज़ार है, यहां अक्सर हीं पैसे से पैसा कमाया जाता है। इस बात से कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता की ये पैसा कैसे कमाया गया है। अगर आप पकडे नहीं गए हैं तो आप चोर नहीं हैं। अब पकड़े जाने से भी काम नहीं चलता साबित करना पड़ता है। बड़े-बड़े चोर साबित न होने की वजह से सफेदपोश ज़िंदगी का भरपूर आनंद ले रहें हैं बिलकुल किसी ब्लू-फिल्म की तरह।

अरे हां बात करते करते यह भी याद आया की सिनेमा जब अपना सौ साल से ऊपर का माना ही रहा है तो लगे हाथ थोडा ब्लू-फिल्म के बारे में बी बात हो जाये। आखिर ये भी तो हमेशा हिट होने वाला बाज़ार है। भले ही ये फिल्म किसी सिनेमा घर में आधिकारिक तौर पर प्रदर्शित न हो फिर भी यहां कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। सब अपने लागत से कई गुना ज़्यादा ही कमातीं हैं। संचार क्रांति के इस समय में अब तो संसद तक इसकी सीधी पहुँच भी हो गई है।  पर इस सेंसर्ड विषय पर बात हम आगे करेगें अभी हम चर्चा करते हैं Entertainment, Entertainment, Entertainment का गरमा-गर्म नारा बुलंद करने वाले उद्योग के एक और  दादा यानि दादा कोंडके की। नाम तो आपने सुना ही होगा ? 80 के दशक में जब बच्चन साहेब अंगडाई ले रहे थे तभी सिनेमा उद्योग का दादा साहेब फाल्के से भी सफलतम नाम।

भारतीय सिनेमा : कला पर व्यवसाय का राज

8 अगस्त 1932 को एक गरीब परिवार में जन्में कोंडके साहेब ने मिल मजदूर, लोक नाट्य मंच आदि का स्वाद चखते हुए 1970 में मराठी भाषा के फिल्म निर्माण तक पहुंचे। उनकी पहली फिल्म का नाम था – सोगडया, जिसे हिंदी में हंसोड़ कहा जाता है। आंचलिक भाषा की, कम लागत बनी ये फिल्म ज़बरदस्त हिट होती है। इसके बाद तो दादा एक से एक हिट फिल्म बनते ही चले गए जिसकी गणना दर्जन से भी ज़्यादा है। उनकी फिल्मों की मूल ताकत द्विअर्थी संवाद तथा अश्लील हाव – भाव था। यही वो खोज थी जिसकी वजह से कोंडके साहेब ने एक से बढ़कर एक लगतार नौ सिल्वर जुबली हिट फिल्म बनाई जो गिनीज़ बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड्स में एक कीर्तिमान के रूप में दर्ज़ है। तो दादा एक ब्रांड बन गए। इनके द्वारा फिल्म निर्माण के लिए बनाई शैली आज से कई वर्ष पूर्व ही मराठी अंचल से निकलकर भारत के तमाम परदेशों में फ़ैल गई। कभी अपनी फिल्मों के लिए “” प्रमाणपत्र पाना शर्म का विषय आज गर्व का विषय बन चुका है और फूहड़ता और अश्लीलता मुख्यधारा के सिनेमा में भी बड़ी आसानी से समाहित हो चूका है।

इस यात्रा में आप गौर करेगें तो नायक, महानायक, नायिका, महानायिका, प्रतिष्ठित निर्माता-निर्देशक और एक से बढाकर एक लेखक शामिल है। अब मुनाफ़ावाला डर्टी पिक्चर बनाना और उसमें काम करना कोई शर्म की बात नहीं।  वितरक की बात हम यहां इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि हमारे मुल्क में वितरक फिल्म कों एक माल से ज़्यादा कुछ खास नहीं समझाता जिससे मुनाफा कमाया जा सकता है। वो हिट होनेवाले पर ही दांव खेलता है। ये बात और है की हमारे यहां अधिकार प्रतिशत सिनेमा फ्लॉप का एक ऐसा बाज़ार है जिसमें हर शुक्रवार सैंकडों अरमान और सपने दफ़न होतें हैं। वयस्कों के मनोरंजन के लिए फिल्म बनाना और केवल मुनाफ़े का माल पिटने के लिए अश्लील फिल्म बनाने में फर्क है।

Entertainment, Entertainment, Entertainment के नाम पर जो ज़हर परोसने का क़ानूनी कारोबार हो रहा है वो हमारे समाज कों कहाँ ले जा रही है ये बात क्या बताने की है ? भूलना नहीं चाहिए कि यह वही सिनेमा उद्योग है जिसे स्थापित करने के लिए दादा साहेब फाल्के ने विलायत में रहकर धन की चिंता से मुक्त होकर फिल्म बनाने के प्रस्ताव को सहृदयता पूर्वक अस्वीकार कर दिया था। आज आलम यह है हमारे सिनेमा उद्योग का बड़े से बड़ा नाम अमेरिकन सिनेमा में मुंह दिखने को लार टपकते घूम रहें है। कागज़ी ज़मीन कागज़ी आसमान  वर्तमान समय की बात करें तो हमारा समाज वास्तविक अपराधियों (खलनायक) से खौफ खाता है या कुछ हद तक (समाज का एक खास तबका ही सही) उसे अपना आदर्श भी मानता है।  ये अमीर, ताकतवर और प्रशासनिक तौर सुरक्षित लोग हैं। ये आम जन के गुस्से से सीधे-सीधे प्रभावित नहीं हैं या यूं भी कह सकतें हैं कि एक प्रकार से महफूज़ हैं अथवा महफूज़ किये गए हैं।

वैचारिक रूप से दिवालिया समाज या व्यक्ति इनके स्थान पर कुछ बहुत ही स्टीरियो टाइप और कुछ हद तक असहाय खलनायक  खोज निकालता है या गढ लेता है जिसे अपना शिकार बनाकर ये अपना गुस्सा शांत कर विजेता या सच्चाई का नायक बनाने का सपना पूरा करता है। इस तरह की हिंसक प्प्रवृति का हमारी फिल्मों से भी बढ़ावा मिलता  है, जो दिन ब दिन और क्रूर और हिंसक होती जा रही है। हमारी फिल्मों का नायक खुद ही तय कर लेता है कि क्या सही और क्या गलत है और वह न्याय करने कैसे भी हिंसक तौर तरीके अख्तियार कर लेता है। हमारी फिल्मों में क्लाइमेक्स चतुराई पूर्वक इस तरह ज़ोरदार संवादों और तेज़ पार्श्व संगीत की मदद से रचे जातें हैं कि नायक की हिंसा को न्यायोचित ठहराया जा सके।

दक्षिण भारतीय सिनेमा एक्शन फिल्मों के रीमेक ने वास्तव में हिंदी सिनेमा को एक सदी पीछे धकेल दिया है। हम इन फिल्मों की कमाई से इतने प्रभावित रहतें हैं कि हम यह भी नहीं देख पाते कि वे नैतिक रूप से कितने प्रतिगामी हैं और उन्होने हमारे सौंदर्यबोध को किस तरह पाषाणकालीन बनाते हुए हिंसा को एक कलारूप का दर्ज़ा दे दिया है। (प्रीतिश नंदी, दैनिक भास्कर, शुक्रवार, 24 मई, 2011 ) अब जहां तक सवाल नैतिकता और जवाबदेही की है तो उसके लिए श्रीलाल शुक्ल ने राग-दरबारी में बहुत पहले ही लिख दिया था  – “नैतिकता की बात न करो रंगनाथ बाबू, किसी ने सुन लिया तो चलान हो जाएगा।

जहां तक सवाल आज सिनेमा की ताक़त और प्रभाव की बात है तो यहां उसकी शक्ति अपार है लेकिन यह पानी का बुलबुला तब साबित हो जाता है जब इसका इस्तेमाल नैतिक और मानवीय रूप से सही होने से ज़्यादा व्यावसायिक रूप से सफल होने के लिए होता है। फिर भी जिस प्रकार आंधियों में भी कुछ चराग जलते हैं, वैसे भी पूंजी के भीड़ में भी कुछ सार्थक काम कभी-कभी देखने को मिल ही जाते हैं।


फिल्मची के और आर्टिकल्स यहाँ पढ़ें।

For more Quality Content, Do visit Digital Mafia Talkies.

पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

नए लेख