Thursday, March 28, 2024

अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी देखने से पहले यह पढ़ने से स्वर्ग मिलेगा!

अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी एक दक्षिण भारतीय पैसाकमाऊ फिल्म का पुनर्निर्माण है और इसमें अक्षय कुमार को ऑस्कर मिलना चाहिए कि वो दुसरे के हिट ब्रांड को अपने चेहरा लगाकर बेचने और शुद्ध माल कमाने के मामले में वर्तमान समय में किसी भी भारतीय अभिनेता के भीष्म पीतामह हैं बाक़ी उनके सिनेमा में सिनेमा और तर्क खोजना ठीक वैसा ही है जैसे नेताओं के भाषण में सत्य खोजना।नेता को जीतने से मतलब होता है और अक्षय कुमार को माल कमाने से, चाहे वो हाउसफुल जैसी गोबर सिनेमा से कमाई जाए या देशभक्ति या सरकारी नीतियों को भूनाकर सिनेमाई संडास बनाने से या चाहे कनाडा की नागरिकता लेकर भारतीय देशभक्ति का होलसेल करने से। उनको कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि वो आज भी मूलतः एक ज़िम्मेवार कलाकार और एक रसोइया में अंतर करना शायद भूल से गए हैं और सेहत से ज़्यादा स्वाद के चक्कर में पड़ गए हैं। हालांकि वो ख़ुद अपनी सेहत के प्रति बहुत सतर्क रहते हैं। यकीन नहीं तो इनकी आजतक की फिल्मों की पूरी फेहरिश्त उठाकर देख लीजिए और उसे विश्व के महानत फ़िल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक के इस कथन की कौसौटी पर परख लीजिए – Give them pleasure. The same pleasure they have when they wake up from a nightmare. वैसे इस कसौटी पर अच्छे से अच्छे फुस्स पटाखा ही साबित होगें! अब जहां तक सवाल कुछ अच्छे कर्म का है तो गुटखा बेचनेवाला भी कभी-कभी कैंसर का अस्पताल खोलने की चैरिटी करता है, यह फैशन है। जैसे गर्मी के दिनों में पहले बड़े से बड़ा ज़ुल्मी सामंत अपने बाप दादा के नाम से प्याऊ खुलवाकर सबको मुफ्त में पानी पिलाता था।

लक्ष्मी फिल्म का नाम पहले लक्ष्मी बम था लेकिन आजकल भावना आहत (!) होने का सीजन चल रहा है तो इसमें से बम निकाल दिया गया और कमाल की बात यह है कि इतना करने मात्र से ही भावना अपनी जगह सही-सलामत और धर्म की रक्षा भी हो गई। अब इसके पीछे क्या तर्क है, भावना को भी नहीं पता। अब इस बात से आज किसे सरोकार है कि धर्म वो है जो धारण किया जाए वो नहीं जिसका प्रदर्शन हो। फिर वहिष्कार का भी मौसम है तो वह भी चल ही रहा है ठीक वैसे ही जैसे कम्बल ओढ़कर घी पीने का चलन आआदिकाल से है। अब किसको कौन समझाए कि भाई नाम में क्या रखा है, काम देखो। अब हमारे यहां गांव में चले जाइए, किसी अनपढ़ का नाम वाकिलवा होगा और किसी मजदूर का नाम अनिल। इसका क्या अर्थ हुआ कि वकील और अनिल अम्बानी की भावना आहात हो जाए! यह भावानाओं का आहात होना एक भेड़ियाधसान है, जिसकी आड़ में कुछ बड़े ही चालाक और शातिर लोग दुनिया को बांकेलाल बनाते है और अपने लिए मुद्दा, नाम, यश, पद, पुरस्कार और प्रतिष्ठा कमाते हैं और असली खेल ठीक वैसा ही है कि जैसे कोई गडेडिया आगे वाली एक भेड़ को हांकता है और बाक़ी भेड़ें आदतन चुपचाप उसके पीछे चल देती हैं। बाक़ी जहां तक सवाल भावना के आहात होने का है तो अब वो एक स्टंट मात्र है। वैसे भी मुर्गे की टंगा चबाते हुए भूख और ग़रीबी पर विमर्श करने का अपना ही एक मज़ा है; सोशलमिडिया के ज़माने में यह मज़ा हर कोई लेना चाहता है क्योंकि इसमें हिंग लगे न फिटकिरी और हमेशा ही रंग चोखा ही होता है। वैसे यह सरकारी सोच (!) का राजनीतिक तुष्टिकरण और देश की जनता की मूढ़ता का फ़ायदा उठाकर दरअसल अपना उल्लू सीधा करके अपनेआप को स्थापित करने, चर्चा और विमर्श में बनाए रखने और इसी बहाने पद्मश्री या कोई अन्य शानदार स्थान वगैरह हसोत लेने का अनुपम खेल मात्र है, बाक़ी कुछ ख़ास नहीं। जिन बातों पर सच में भावना आहात होनी चाहिए, उन बातों का कहीं ज़िक्र तक नहीं होता और दुनियाभर के बेसिरपैर के मुद्दे दिन रात हर जगह तैरते रहते हैं। अभी हाल में बिना किसी तैयारी के अचानक हुई लॉकडाउन में हज़ार-हज़ार किलोमीटर चलकर किसी प्रकार अपने गांव पहुंचने पर ख़ुद चलनेवालों की भावना आहत नहीं हुई तो बाक़ी तो क्या ही कहा जाए! 

ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान में ज़मीन आसमान का फ़र्क होता है हालांकि दोनों पढ़ने में एक जैसे ही लगते हैं। इंसान में संवेदना का होना उसके मनुष्य होने का प्रमाण है लेकिन अगर आप केवल और केवल संवेदनात्मक ज्ञान से संचालित होते हैं तो आप अभी कच्चे और बच्चे हैं आपका कोई भी कभी भी फुन्नी काट सकता है और अगर आपको यह कटवाने में मज़ा आता है तो मुझे कुछ नहीं कहना – मज़े लीजिए और क्या। वैसे एक सच्चा मनुष्य वो है जो ज्ञानात्मक संवेदन से संचालित होता है ना कि संवेदनात्मक ज्ञान से। बात पकड़ में आई तो ठीक वरना वादे, नारे और सिनेमा के नाम पर भारत में एक से एक कूड़ेदान की न कभी कोई कमी थी और न आज है। वैसे किसी भी कला का मूल काम किसी भी प्रकार मनोरंजन (?) करके लोगों के जेबों में डकैती करना नहीं होता बल्कि कलाकारी एक बहुत बड़ी सामाजिक ज़िम्मेवारी का काम होता है कुछ नहीं तो वो अपने दर्शकों-पाठकों के मानवीय सांस्कृतिक चेतना और स्तर को बढ़ाने में थोड़ी मदद और थोड़ा विस्तार कर देता है। कोई भी कला अगर यह छोटा सा मगर बेहद आवश्यक काम कर रही या करने की चेष्टा कर रही है तो ठीक है वरना सब कहने सुनने की बातें हैं। वैसे मूल मामला ज्ञान और चेतना का ही है। अक्षय कुमार की फिल्मों का जो इतिहास है उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि उसमें फिल्म खोजना ठीक वैसा ही है जैसे आप शक्ति कपूर के चरित्रों में शरफात खोज रहे हों। कुछ भी बेसिरपैर के बातें कमरे में कैद कर लेने और उसे तड़का मारके डेढ़-दो घंटे में एकत्र कर लेने को सिनेमा नहीं कहते भाईजान! वैसे किसी मैदान में आपको मर्दाना कमज़ोरी से डराकर अपनी पुड़िया बेचनेवाले कलाकार एक से एक हैं, वह भी एक कलाकारी ही है। सिनेमा के बारे में Slavoj Zizek. कहते हैं – 

 “Cinema is the ultimate pervert art. It doesn’t give you what you desire – it tells you how to desire”

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ओह! आपके दिमाग में अभी तक संभव है कि इस आलेख का शीर्षक घूम रहा होगा कि “अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी देखने से पहले यह पढ़ने से स्वर्ग मिलेगा!” तो स्वर्ग का रास्ता सच्चा ज्ञान है बाक़ी आप ख़ुद समझदार हैं!  हां, अगर आप मेरी ही तरह उनके डाई हार्ट फैन हैं तो फिर ऊपर कही सारी बातों को कूड़ेदान में फेंकिए और मस्त रहिए।

लक्ष्मी फिल्म आज (9 नवंबर) शाम 7 बजके 5 मिनट पर डिजनी हॉटस्टार पर आ रही है, इसे देखने या न देखने की आज़ादी आपकी है, किसी और को उसमें कुछ कहने का कोई हक़ नहीं है। जीवन आपका है तो निर्णय भी आपका ही चलना चाहिए। वैसे भी एक फिल्म देखने न देखने से न किसी संस्कृति को कोई फ़र्क पड़ता है और किसी की भावना को ही, बाक़ी अपनी अपनी राजनीति अपना अपना (कु)तर्क!

वैसे प्रसिद्ध अभिनेता Sean Penn ने कहा है – “जहां सारे जवाब मिलें, वहां धूर्तता है।


अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी Disney+Hotstar पर उपलब्ध है।

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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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