फिल्म बनाना और फिर उसे दर्शकों तक पहुंचाना; फिर हिट और फ्लॉप के गणित से गुज़रना एक अलग ही पेचीदा मसला है, इसको फ़िलहाल छोड़ देते हैं और बस इसी बात की ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं कि रामसिंह चार्ली आख़िरकार दर्शकों के समक्ष है, ओटीपी पर ही सही। इस फिल्म के केंद्र में सर्कस में काम करनेवाला चार्ली है तो थोड़ी सी बात पहले सर्कस की ही कर लेते हैं। संभव है कि यह पढ़कर थोड़ा बोरियत की अनुभूति हो लेकिन यह भी सत्य है कि हर वक्त मज़े की मांग करना कोई बहुत अच्छी आदत नहीं है। हां, यह भी संभव है कि कुछ लोगों को कुछ बहुत प्यार से याद आ जाए और वो थोड़ा नॉस्टेल्जिया में भी चले जाएं, वो चलेगा।
तो यह तब की बात है जब दुनिया छोटी-बड़ी स्क्रीन्स पर नहीं सिमटी थी और रात होते ही आकाश में दूर से आती हुई एक लंबी प्रकाश की किरण घूमने लगती थी। गर्मी की रातों में खुले आकाश के नीचे लेटे हम गांव के बच्चे घंटों इस प्रकाश को इधर से उधर घूमते देखते रहते और देखते-देखते कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता। बड़े बुजुर्गों का कहना होता कि यह सर्कस वाला टॉर्च है, जो फोकस मारता है। शहर में सर्कस आया हुआ है और वो इस प्रकाश के माध्यम से बता रहा है कि सर्कस आ गया है, आपलोग देखने आने का प्लान बना लो। यह उसके प्रचार करने का अपना एक अलहदा तरीक़ा था। अब सर्कस आया हुआ है और लोग दूर-दूर से प्लान बनाके देखने न जाएं, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो। प्लान बनता और लोग तांगा-बैलगाड़ी या किसी अन्य सवारी पर सवार होकर दूर-दूर से सर्कस देखने आते और सर्कस के जादू में खो जाते। एक दिन सर्कस देखते और कई महीनों तक सर्कस पर बात होती रहती, कोई उस आइटम की चर्चा करता कोई इस आइटम की। किसी को जाल और झूला पसंद आता, कोई शेर के खेल को सर्वश्रेष्ठ घोषित करता, किसी को मौत का कुआं और मोटरसाइकिल का खेल पसंद आता, कोई जोकर का मुरीद होता तो कोई भालू, बंदर और चिड़िया के खेल को पसंद करता। सर्कस के पास इतने आइटम थे कि कोई भी वहां से निराश नहीं लौटता था।
हां, ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं जो सर्कस के विशाल तम्बू को देखकर ही आह्लादित होते रहते। कई नौजवान तो साइकिल उठाकर रोज़ ही सर्कस के तंबू के चक्कर लगा आते थे। जहां भी सर्कस का तंबू होता वहां मेले से माहौल हो जाया करता था और फिर इलाक़े में प्रचार गाड़ी का घूमना भी एक कौतूहल का विषय होता। उस गाड़ी से एक ख़ास तरीक़े से सर्कस का प्रचार होता, गाड़ी पर तरह-तरह के कटआउट लगे होते और फिर दूर तक उस गाड़ी के पीछे-पीछे भागना से रंग-बिरंगे पोस्टर-पर्चा लूटना तो हम बच्चों का प्रिय खेल हुआ ही करता था। लेकिन टीवी, सिनेमा और ज़माने के चलन ने सबको लील लिया। सब एक छोटे से स्क्रीन के भीतर समाहित हो गया और धीरे-धीरे सर्कस नुक़सान का सौदा हुआ और ग़ायब हो गया। वो बंद हुआ और उसमें काम करनेवाले कलाकारों की दुर्दशा शुरू हो गई। तंबुओं में अपनी पूरी ज़िंदगी बितानेवाले कलाकार सड़कों और गलियों की धूल छानने को अभिष्पत हुए। जिसने कभी अपने हुनर से अनगिनत दर्शकों का दिल जीता था, वो कलाकार एकाएक अर्श से फ़र्श पर धड़ाम से गिर पड़े, जिसकी चिंता अमूमन न किसी सरकार ने की और ना ही समाज ने। रामसिंह चार्ली ऐसे ही एक कलाकार की कथा है जो सर्कस में चार्ली चैप्लिन बनकर अपनी कलाकारी दिखाता है और जोकर कहे जाने पर जवाब देता है – चार्ली जोकर नहीं है!
रामसिंह चार्ली सर्कस के बंद होने से सपने के खोने और उसके पुनर्जीवित होकर स्वरूप बदलने की कथा है। यह वही वक्त था/है जब सबकुछ नफे-नुक़सान की तराजू पर तौला जाने लगा था और बाज़ार ने इंसान के दिल-दिमाग पर राज करना शुरू कर दिया था। सर्कस बंद होने की सूचना के बाद भी चार्ली अपने बेटे के साथ अपने रियाज में लगा है। सर्कस का नया मालिक कहता है –
“बेवकूफ़! अभी भी रियाज कर रहा है! पता तो है कि सर्कस बंद हो गया है।”
जवाब में पुरानी मालकिन कहती है –
“आर्टिस्ट का रियाज और मुल्ला की नमाज़ सेम होती है। मस्ज़िद टूट गई तो नमाज़ थोड़े न छूट सकता है।”
सर्कस के ऊपर पूरी दुनिया समेत भारत में भी अच्छी-बुरी कई फिल्में बन चुकी हैं। राजकपूर ने ख़ुद मेरा नाम जोकर बनाई थी, जिसमें सर्कस के असली कलाकारों ने भी काम किया था लेकिन उसमें सर्कस का ग्लैमर था, स्टारपना था क्योंकि वो ज़माना भी उसी का था। उस ज़माने में जब सर्कस आता था तो उस इलाक़े में सिनेमा का धंधा मंदा हो जाता था। अब बदले ज़माने में सर्कस बंद हो चूका है और सर्कस का चार्ली समेत बाक़ी सारे कलाकार बेरोज़गार हो चुकें हैं।
बाक़ी अपने देश में फ़िलहाल करोड़ों लोगों को रोज़गार देने का वादा करके सत्ता में आई सरकार भी जब रोज़गार देने के नाम पर नौजवानों से पकौड़ा तलने को कह रही है, वैसी स्थिति में एक ऐसे कलाकार के जीवन पर क्या असर होगा जो पैदा ही कलाकारी की दुनिया में हुआ है और जिसे उसके सिवा कुछ आता भी नहीं है। यह खेल सदियों पुराना है, वो राजकपूर साहब ने गाया था न –
“जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां”
लेकिन अब जब वो स्थान ही बंद हो चूका है तो वहां न आप जी सकते हैं और न मर ही सकते हैं, और बाहर रोज़गार है नहीं, तब?
सर्कस बंद पड़ जाने के बाद भी रामसिंह पहले चार्ली ही बने रहना चाहता है! यह चार्ली भी अजीब क़िस्सा है। वही चार्ली चैपलिन। जनाब पैदा हुए कहीं और लेकिन पूरी दुनिया पर आज भी उनका राज चलता है और आज भी पूरी दुनिया में अनगिनत कलाकार चार्ली बनके अपना जीवन काट रहे हैं। लेकिन अब लोग किसी चार्ली को नौकरी पर इसलिए नहीं रखना चाहते क्योंकि चार्ली तो अब आसानी से टीवी पर उपलब्ध है (अब तो मोबाइल में भी) तो कलाकार को मुर्गा बनने का काम मिलता है। यहां उसे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना है। वो लाख समझाता है लेकिन लोग उसे जोकर से ज़्यादा कुछ और मानने को तैयार नहीं हैं। मतलब कि अब मुर्गा बनके उसे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना है और अच्छे पैसे कमाने हैं तो मुर्गा बनना पड़ेगा। यह सच्चाई भी है और एक क्रूर “मेटाफ़र” भी! आख़िरकार मरता क्या न करता, रामसिंह तैयार हो जाता है लकिन अब असली कलाकार की फ़ितरत यह है कि वो चाहकर भी बहुत ज़्यादा समय तक मुर्गा बन नहीं सकता, तो काम भी छूटता है और पैसे भी नहीं मिलते!
फिर एक कलाकार मजबूरन मजदूर बनकर हाथ रिक्शा खींचने का काम करता है और इस चक्कर में उसे दुनिया के क्रूरतम सत्य से सामना होता है, कलाकारी का उसका ख़्वाब गफूर हो जाता है और मज़दूरी ही उसकी नियति बन जाती है। अब मजदूर की नियति क्या है? अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिनभर हाड़ तोड़ मेहनत करना, शाम को थकान मिटाने के लिए दो चार पैग सस्ती दारू चढ़ाना और लम्बी तानकर सो जाना और फिर कोई उससे उसकी कलाकारी की बात करे तो चिढ़ जाना और यह कहना कि हमने सच्चाई को स्वीकार कर लिया है! फिर किसी दिन किसी बात पर यह एहसास होना कि वो कलाकार है और कलाकारी में ही उसके प्राण बसते हैं। फिर सहारे के रूप में आता है नवाबी मिजाज़ का चालाक शाहजहां, जिसका कहना है –
“बहुत कम लोग होते हैं जो ख़्वाब देखते हैं और उससे भी कम होते हैं जो उस ख़्वाब को पूरा करने की कोशिश करते हैं, और जो उन्हें पूरा कर पाते हैं वो तो चिलगम होते हैं, मिलते ही नहीं.”
आगे की कथा एक सपने की मृगतृष्णा का पीछा करने के समान है क्योंकि वक्त बदल चूका है! अब यह बदलाव सही है या ग़लत, हम यह तय करनेवाले कौन हैं?
“असली कलाकार सबके लिए नहीं बल्कि अपने लिए कलाकारी करता, फिर सब उसे देखते हैं.”
किसी वक्त चार्ली अपने बेटे को कलाकारी सिखाते हुए यह बात कहता है लेकिन उस बात की हवा तब निकल जाती है जब जीवन के वैसे यथार्थवादी सवालों से उसका सामना होता है जिसे किसी भी क़ीमत पर आप नज़रंदाज़ कर ही नहीं सकते। पेशा बंद और कोई सड़क पर वाइलिन बजा रहा है तो कोई बार के बाहर बेइज़्ज़ती सहन करते हुए दरबानी कर रहा है, तो कोई कहीं नौकर बना फिर रहा है और आख़िरकार फिल्म जब समाप्त होती है तब आपका सामना इस संवाद से होता है कि “तुम कभी हार नहीं सकते क्योंकि तेरे हिस्से का भी मैं हार चूका हूं.” अब यह एक आशावादी संवाद है या निराशावादी संवाद पता नहीं लेकिन यथार्थवादी संवाद तो है क्रूरतम सत्य से भरा हुआ, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं। अब यह यथार्थ अच्छा है, बुरा है या महत्वहीन है, मालुम नहीं क्योंकि कलाकार तो पहले ही बोल चूका है कि “सर्कस हमसे नहीं है, हम सर्कस से हैं।”
रामसिंह चार्ली की मुख्य भूमिका में कुमुद मिश्रा हैं। रंगमंच से फिल्मों में गए कुमुद निश्चित ही एक बेहतरीन अभिनेता हैं और इस फिल्म के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत भी की है। रामसिंह के चरित्र के साथ ही साथ महानतम अभिनेता चार्ली चैप्लिन के हावभाव को भी उन्होनें बड़ी कुशलतापूर्वक समझने, आत्मसात करने की हर संभव कोशिश की है। इस फिल्म के लिए उन्होंने अपना बहुत सारा वजन भी कम किया है और अपने डीलडौल को चरित्र के शरीर में बदलने की भरपूर चेष्टा की है, जिसका बेहतर परिणाम आया भी है। लेकिन फिर भी कहते हैं न चार्ली चैप्लिन अलहदा अभिनेता है और उसके जैसा कोई दूसरा चार्ली संभव ही नहीं है; यह बात और है कि ज़माना स्नेह और मासूमित में यह कहता है कि “रामसिंह जैसा चार्ली केवल चार्ली ही कर सकता है।” इसमें आदर और सम्मान है ज़्यादा, सच्चाई थोड़ा कम।
वैसे चार्ली चैप्लिन से जुड़ा एक क़िस्सा कुछ ऐसा भी है कि मोंटे कार्लो में एक प्रतियोगिता चल रही थी। इसमें प्रतिभागियों को चार्ली चैप्लिन जैसा बन कर आना था। चार्ली चैप्लिन खुद उस में भाग लेने पहुंच गए और उन्हें तीसरा स्थान मिला। अब इस क़िस्से पर कोई कहे भी तो क्या कहे, हां बस इतना कहा जा सकता जितना फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी क़सम का नायक हिरामन कहता है – जा रे ज़माना! बहरहाल, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि दिव्या दत्ता भी एक कुशल अभिनेत्री हैं लेकिन यहां चरित्र के क्लास के हिसाब से वो बिल्कुल ही अनफिट हैं। लाख जतन के बाद भी वो ग्लैमरस और अर्बन ही नज़र आतीं हैं। अन्य किरदारों में शाहजहां का क़िरदार निभा रहा अभिनेता फ्रेश है और बेहतर है। अब जहां तक सवाल निर्देशन, फिल्मांकन और प्रस्तुतिकरण का है तो बेहद सहज है। फिल्म में कई स्थान पर बिंब और प्रतीक आते हैं लेकिन वो भी कहीं अलग से आरोपित नहीं बल्कि बड़े ही सहज प्रतीत होते हैं। विम्ब और प्रतीक ज़रूरत से ज़्यादा अहसज और बौद्धिक होकर ज्ञानात्मक आतंक नहीं फैलाते, अगर हम विम्बों और प्रतीकों को समझ लेते हैं तो आपका स्वाद और स्वदिष्ट हो जाता है और नहीं भी पकड़ पाते हैं तो भी स्वाद ख़राब नहीं होता। अब वो बिंब और प्रतीक कौन-कौन से और कहां-कहां हैं, इसके लिए आपको यह फिल्म ख़ुद देखनी पड़ेगी, बल्कि देखनी ही चाहिए।
फिल्म में कलकत्ता है और क्या ख़ूब है लेकिन स्टीरियोटाइप नहीं और ना ही एक ख़ास चरित्र के साथ लेकिन उसका होना भी बहुत कुछ कहता है। फिर हाथ रिक्शा के साथ अपने जीवन के संघर्ष के लिए भागता एक इंसान सिटी ऑफ जॉय से लेकर दो बीघा ज़मीन समेत अनगिनत फिल्मों की यादें ताज़ा कर सकतीं हैं बशर्ते हमारी यादों की स्मृतियां ट्यूटर, वाट्सअप और फेसबुक के वाइरल मैसेज और टीवी तक ही सीमित न हों।
फिल्म आख़ीर तक आते-आते मामला थोड़ा फुस्स भी पड़ता है लेकिन शायद यही सच्चाई भी है कि बहुत बड़े-बड़े और कलात्मकता से भरपूर सपनों की नियति बदले वक्त के हिसाब से फुस्स होना ही है। अब ऐसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, यह सवाल और है लेकिन आजकल वक्त कहां है किसी के पास यह सोचने के लिए कि इंसान को इंसान बने रहने के लिए किन-किन चीज़ों की ज़रूरत है! अमूमन सब के सब बड़ी ही तेज़ी से पता नहीं कहां भागे जा रहे हैं! पता नहीं कहां जाना है उन्हें और क्यों?
राजेश जोशी की कविता “रुको बच्चों” की चार पंक्तियां याद आ रही हैं –
नहीं, नहीं, उसे कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहींउसे तो अपनी तोंद के साथ कुर्सी से उठने में लग जाते हैं कई मिनटउसकी गाड़ी तो एक भय में भागी जाती है इतनी तेज़सुरक्षा को एक अंधी रफ़्तार की दरकार है
फिल्म : रामसिंह चार्ली निर्देशक : नितिन कक्कर निर्माता : शारिब हाशमी, नितिन कक्कर, उमेश पवार पटकथा : शारिब हाशमी, नितिन कक्कर अभिनेता : कुमुद मिश्रा, दिव्या दत्ता, आकर्ष खुराना, फर्रुख सेयार संगीत : ट्रॉय आरिफ़, अरिजीत दत्ता छायांकन : सुब्रान्शु दास, माधव सलूखे सम्पादन : शचीन्द्र वत्स कंपनी : लिटिल टू मच प्रोडक्शन वितरक : सोनी लिव भाषा : हिंदी अवधि : 1 घंटा 37 मिनट
रामसिंह चार्ली फिल्म SonyLiv पर उपलब्ध है।
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