इंसानी वजूद जितना कठोर यथार्थ में जीता है उससे कहीं ज़्यादा कल्पनालोक में न केवल विचरण करता है बल्कि उसने कई सारे कल्पनाओं को ही सत्य मान लिया है और उन्हें उस कल्पना पर यथार्थ से भी कहीं ज़्यादा विश्वास और भरोसा है। वहां तर्क की कोई संभावना नहीं है बल्कि यह खेल शुद्धतम रूप से केवल और केवल विश्वास और आस्था का है और इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि आस्था अंधी ही होती है। आज हम अपनेआप को कितना भी आधुनिक और विज्ञान से चलनेवाली व्यवस्था क्यों न मान लें लेकिन सच यह है कि विश्वास बहुत बड़े भाग पर आज भी अपना कब्ज़ा जमाकर बैठा हुआ है बल्कि वो कई मामले में तो विज्ञान और तर्क के माथे पर सवार होकर बड़े शान से नाचता भी है। वैसे सत्य यह भी है कि प्राकृतिक तत्वों को छोड़कर बाक़ी यथार्थ जगत भी यथार्थ होने से पहले कल्पना मात्र ही थी लेकिन वहीं कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो कभी सत्य न भी होगें फिर भी वो लोक मान्यताओं और विश्वासों में न केवल अच्छे से जिंदा हैं बल्कि ख़ूब फल-फूल भी रहें हैं। वैसा ही एक विश्वास भूत, प्रेत, चुड़ैल और ज़ोम्बी का है जो इंसानी भय के वजूद के कारण आदिकाल से लेकर आजतक प्रचालन में है और आज भी इन विषयों पर कला और साहित्य लिखने, पढ़ने और देखने का प्रचलन है। भले ही इसका यथार्थ जगत से कोई सम्बंध न हो लेकिन इसे देखने, पसंद और माननेवाले की संख्या आज भी बहुत है इसलिए तर्क से ज़्यादा भय का हर तरफ कारोबार आज भी बड़े शान से फल-फूल रहा है!
ज़ोम्बियों पर सिनेमा बनाने के मामले में कोरियन सिनेमा का कोई जवाब नहीं है और उसकी एक फिल्म ट्रेन टू बुसान को विश्व सिनेमा के ज़ोम्बी वर्ग में बहुत ही आदर प्राप्त है। फिल्म पेनिन्सुला इसी दक्षिण कोरियन फिल्म ट्रेन टू बुसान का दूसरा भाग है लेकिन आपने पहला भाग नहीं भी देखा है तो भी इस भाग को देख सकते हैं, कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन अगर देखा है तो मज़ा बढ़ जाएगा लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह ट्रेन टू बुसान की उंचाई को दूर-दूर तक नहीं छू पाती बल्कि यह कहा जाए कि उसके आसपास भी नहीं फटकती तो ग़लत नहीं होगा। उसमें मानवीय रिश्ते और संघर्ष की जो गाथा रची गई थी वो यहां बहुत कमज़ोर है लेकिन यहां मानव स्वार्थ चरम पर है और उसके चक्कर में इंसान अब कितना इंसान बचा है इसकी भी कथा है और साथ में हर स्थिति में उम्मीद और कोशिश का दामन न छोड़ने का संघर्ष भी।
ज़ोम्बी होते क्या है? यह इंसान की एक ऐसी प्रजाति है जो जिंदा नहीं बल्कि एक ख़ास प्रकार के वाइरस की चपेट में आकर मर चुका है लेकिन फिर वो चलता है, दौड़ता है और उसके भीतर सोचने शक्ति का पतन हो चुका है। जिसमें किसी वाइरस का इन्फेक्शन हो चुका है और अब वो केवल एक ही काम जानता है कि वो जीवित मनुष्यों को काट ले और उसके भीतर वाइरस का प्रवाह करे ताकि वो भी जल्दी से जल्दी ज़ोम्बी में परिवर्तित हो जाए इसलिए वो किसी भी जिंदा इंसान को देखते ही पुरे झुंड में उसकी तरफ काटने को दौड़ता है और उसे काट लेने के बाद आगे बढ़ जाता है। एक ज़ोम्बी को तबतक चैन नहीं आता जबतक वो जीवित नसान को काटकर ज़ोम्बी न बना ले और एक बार अगर ज़ोम्बी ने जिसे काट लिया उसके पास ज़ोम्बी में बदल जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है। वैसे ज़ोम्बी और इंसान के बीच का अंतर्संबंध केवल शारीरिक नहीं है बल्कि कई बार बौद्धिक भी होता है! तो क्या अब हम पुरे विश्वास से कह सकते हैं कि ज़ोम्बी का कोई वजूद नहीं है – नहीं! आज हर तरफ जैसा इंसान सोच, समझ, तर्क और इंसान द्वारा कठिन संघर्ष के बाद हासिल किए गए लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है और यथार्थ जगत और सोशलमिडिया पर जिस प्रकार लिंचिंग और ट्रोलिंग का चलन चला है वो अपने तरह का एक ज़ोम्बिलैंड का गठन नहीं तो और क्या है! अब कौन सा इंसान जिंदा है और कौन सा नहीं यह तय करना ज़रूरी है। केवल सांस लेते रहने को जिंदा होना माना जा सकता है लेकिन इंसान में बुद्धि, विवेक और ज्ञान का पतन हो जाना एक इंसान रुपी जीव को ज़ोम्बी बनाता है। वैसे ज़ोम्बियों का सच में कोई वजूद हो या न हो लेकिन ऐसे लोगों का भरपूर वजूद है जो ख़ुद से कुछ नहीं सोचते, अपना बुद्धि-विवेक इस्तेमाल नहीं करते, वो बस अपने मालिक क हुक्म का पालन करते हुए लिंचिंग और ट्रोल करते हैं और प्यार, स्नेह सम्मान, आदर भाईचारे के स्थान पर केवल और केवल नफ़रत की खेती में व्यस्त और मस्त हैं!
फिल्म पेनिन्सुला का एक दृश्य अद्भुत है और इसके भीतर हम आज की क्रूरतम सच्चाई को देख सकते हैं। ज़ोम्बी से जान बचाकर कोरिया के कुछ लोग किसी प्रकार हांगकांग में अप्रवासी का नारकीय जीवन जी रहे हैं। उनमें से दो लोग एक सस्ते से रेस्तरां में खाना खा रहे होते कि बाक़ी लोगों को पता चल जाता है कि वो पेनिन्सुला के लोग हैं, जहां से ज़ोम्बी का वाइरस फैला है फिर क्या था बाक़ी लोग उनसे नफ़रत करने लगते हैं, उन्हें भद्दी-भद्दी बातें कहने लगते हैं और तो और रेस्तरां का मालिक भी उन्हें वहां से यह कहते हुए भगा देता है कि यहां से तुमलोग जाओ, तुम्हें यहां खाना नहीं मिलेगा। क्या यह सब बातें हम कोरोना वाइरस को लेकर नहीं देख रहे हैं? चीन और मुसलमान इसके लिए क्या निशाना नहीं बनाए गए जबकि सत्य यह है कि किसी भी मुसीबत से परेशान हर कोई होता है और वो ज़्यादा ही मुश्किलात का सामना करता है जसके ऊपर बीतती है लेकिन आश्चर्य कि हमें पता नहीं क्यों हर हाल में एक खलनायक चाहिए, जसके कंधे पर बन्दूक रखके हम अपने स्वार्थ की सिद्धि कर सकें!
ज़ोम्बी की कहानियां भले ही एक कल्पना हो लेकिन ज़ोम्बिलैंड एक सत्य है और कई बार ऐसा भी होता है कि कोई कलाकार बात को सीधे-सीधे न कहके बात थोड़ा घुमा-फिराकर कहता है। यही कला है और यही कला की ताक़त। निर्देशक वांग सांग हो कि यह फिल्म पेनिन्सुला उसी क्रम में देखा जाना चाहिए।
फिल्म पेनिन्सुला सिनेमा घरों में चल रही है ।आप इससे अमेज़न पे रेंट करके देख सकते हैं
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