बतौर अभिनेता दिलीप कुमार की पारी देश की आज़ादी से तीन साल पहले फिल्म ज्वार भाटा (1944) से शुरू होती है। उसके पश्चात उनकी दो फिल्म और आती है प्रतिमा (1945) और बॉम्बे टाकिज की मिलन (1946)। मिलन रबिन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्द कहानी नौकडूबी पर आधारित थी। यह तीनों फिल्में कुछ ख़ास सफल नहीं हो पाई थीं। दिलीप कुमार ने सफलता का स्वाद पहली बार जिस फिल्म से चखा, वो फिल्म जुगनू (1947) थी, जो 23 मई 1947 को यानि कि भारत की आज़ादी के ठीक तीन महीने पहले प्रदर्शित हुई थी। शौक़त आर्ट प्रोडक्शन द्वारा निर्मित और शौक़त हुसैन रिज़बी द्वारा निर्देशित इस फिल्म का नाम इसकी नायिका के नाम पर है और नायिका थीं मशहूर अभिनेत्री और गायिका नूरजहां। नूरजहां और शौक़त हुसैन रिज़बी आपस में पति-पत्नी थे और इस फिल्म के प्रदर्शन के थोड़े ही दिन बाद पाकिस्तान चले गए और फिर वहीं के होकर रह गए। बाद में शौक़त हुसैन रिज़बी साहब ने पाकिस्तान में रहते हुए कुल तीन फिल्मों चान वे (1951), गुलनार (1953) और जाने बहार (1958) का निर्देशन किया और नूरजहां ने भी चान वे (1951), दुपट्टा (1952), इंतज़ार (1956), अनारकली (1959) और कोयल (1959) में काम किया, बाक़ी ग़ज़ल गायिकी में नूरजहां ने जो मक़ाम हासिल किया उसका गवाह तो आज भी पूरी दुनिया है।
फिल्म जुगनू आधे समय तक एक हल्की-फ़ुल्की रोमैंटिक हास्य और शैतानियों से भरपूर फिल्म है, जिसके केंद्र में कॉलेज के पढ़ने और बोर्डिंग में रहनेवाले नौजवान छात्र-छात्रा हैं। शायद यह हिंदी की पहली फिल्म थी जिसके केंद्र में कॉलेज के छात्र-छात्राओं की ज़िन्दगी थी, दोनों की कक्षाएं अलग-अलग लगतीं हैं और जहां लड़के लड़कियों को याद करते हुए गाते हैं –
वो अपनी याद दिलाने को, एक इश्क की दुनिया छोड़ गए
जल्दी में लिपीस्टिक भूल गए, रूमाल पुराना छोड़ गए
इस गाने में स्केल के साथ ही साथ गायन में ताल और लय का अद्भुत प्रयोग है। यह गाना कई जगह जानबूझकर ताल और सुर से अलग हटता है, जो हिंदी फिल्म में पहली बार ही हो रहा था। इस गाने को मुहम्मद रफ़ी और कोरस ने क्या शानदार अंदाज़ में गाया है। बहरहाल, शुरुआत में लड़के-लड़कियों के बीच छेड़छाड़ और बदमाशियां चलती रहती है जो धीरे-धीरे दोस्ती और फिर नायक-नायिका के प्यार में तब्दील हो जाता है। फिल्म का नायक सूरज दिलीप कुमार) एक राय साहब (ज़मींदार) का बेटा है लेकिन अंदर की बात यह है कि राय साहब का रोआं रोआं कर्ज़दार हो चुका है लेकिन वो झूठी शान के लिए दिखावा करते रहते हैं। अपना कर्ज़ा उतारने के लिए वो अपने बेटे सूरज की शादी सेठ धनीराम की बेटी से तय कर देते हैं लेकिन चुकी सूरज जुगनू (नूरजहां) से प्यार करता है इसलिए वो ज़हर खा लेने की बात कहता है, और इधर यह शादी न होने पर राय साहब ज़हर खा लेने की बात करते हैं। कोई और चारा न देख सूरज की मां ग़रीब जुगनू के पास जाती है और उससे अपने खानदान की खातिर अपने प्यार को क़ुर्बान करने का वादा लेकर आती है। इन दृश्यों में कुछ बेहद ही बेहतरीन संवादों की रचना की गई है। बहरहाल, जुगनू वादा करती है और जब उससे सूरज मिलने आता है तो उसका दिल यह गा उठता है –
आज की रात सज़े दिल ए पुरदर्द न छेड़
कौल उल्फ़त का है जो हंसते हुए तारों ने सुना
बेबसों पर ये सितम ख़ूब ज़माने ने किया
खेल खेला था मुहब्बत का अधूरा ही रहा
दुःख ने जुगनू को बीमार कर दिया है और सूरज को लगभग मुर्दा। मध्यांतर से पहले फिल्म में जितनी मस्ती है, मध्यांतर के बाद उतनी ही आसुंओं और दुःख में घनघोर डूब जाती है। उधर जुगनू बीमार होकर बिस्तर पर पड़ी है, इधर सूरज की शादी सेठ धनि राम की बेटी से होने वाली होती है। लेकिन सेठ धनीराम भी कम नहीं है वो दहेज़ में नगद की जगह ज़ेबार भेजता है और वो भी पीतल के। इधर जुगनू अपना सामान बेचकर अपना किसी प्रकार गुज़ारा कर रही है और उसकी हालत और ख़राब होती जा रही है। सूरज की बहन शशि, जो उसके साथ ही कॉलेज में पढ़ती है, उसकी ख़बर लेने जाती है लेकिन जुगनू की हालत देखकर बहुत उदास होती है। वो जब घर वापस आती है तो सूरज उन्हें देख लेता है और जुगनू की एक चिट्ठी जो उसने सूरज की मां को लिखी थी, उसके हाथ लग जाती है और फिर सारा भेद खुल जाता है। मां उसे सबकुछ सच-सच बता देती है कि उसने अपना सुहाग बचाने के लिए उन्होंने जुगनू का सुहाग छीन लिया। सूरज भागकर जुगनू के पास जाता है और जुगनू अपना सर्वस्व सूरज को हवाले करके उसकी बांहों में दम तोड़ देती है। सूरज जुगनू के इनाम में मिले पच्चास हज़ार रुपयों की राशि लेकर अपने पिता के पास जाता है और उनके ऊपर सारे पैसे फेंकते हुए कहता है – “यह लीजिए, यह आपकी दुनिया है, आपकी मुहब्बत है, आपका सबकुछ है” और उसके बाद ख़ुद भागकर दरिया जाकर छलांग लगा देता है और इस प्रकार हमेशा साथ निभाने का वादा निभाता है और पार्श्व में नूरजहां की आवाज़ में यह गीत बज उठाता है –
हाय अदीब उनका जहां से मिट गया नामोनिशान
ख़त्म होती है यहां पर दो दिलों की दास्तां
झूठी शानोशौकत और दिखावे के चक्कर में जुगनू और सूरज की कहानी एक दंतकथा में बदल जाती है। लैला और मजनू के इस आधुनिक संस्करण ने सिनेमा प्रेमियों का कलेजा चीरकर रख दिया और जब जब ऐसा हुआ है सिनेमा सफल साबित हुआ है। यह फिल्म भी सफल हुई और दिलीप कुमार की यह पहली सफल फिल्म थी और समकालीन चरित्रों को लेकर हिंदी की शायद यह पहली फिल्म थी जिसके आख़िर में नायक और नायिका की मृत्यु हो जाती है और फिल्म का अंत सुखान्त नहीं बल्कि दुखांत है। सिनेमा जगत में दिलीप कुमार के सिनेमा ने एक से एक आयाम रचे हैं, एक आयाम यह भी है। दिलीप कुमार और नूरजहां की यह श्वेत और श्याम फिल्म हमेशा के लिए दर्शकों के दिलों में अंकित हो एक यादगार अनुभूति बन जाती है।
फिल्म जुगनू YouTube पर उपलब्द है।
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