इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैग़ाम हमारा
नए जगत में हुआ पुराना ऊंच नीच का क़िस्सा
सबको मिले मेहनत के मुताबिक़ अपना-अपना हिस्सा
सबके लिए सूख का बराबर हो बटवारा
यही पैग़ाम हमारा
जैमिनी कंपनी की पैग़ाम (फिल्म) प्रसिद्द कवि प्रदीप के लिखे इस गीत से शुरू होती है जो विशुद्धरूप से गांधीवादी दर्शन से प्रभावित है। फिल्म का नायक रतन (दिलीप कुमार) शहर में अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई सुचारू रूप से चलाने के लिए रिक्शा चलता है और जब सवारी का इंतज़ार करते हुए गांधी जी की आत्मकथा पढ़ रहा होता है, जैसे ही सवारी मिलती ही आत्मकथा को रिक्शे के सीट के अंदर रखकर काम पर निकल पड़ता है; झूठ नहीं बोलता और ज़रुरतमंदों की हर संभव सहायता करता है। वह गांधी को पूजने से ज़्यादा मानता है और उनके बताएं सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने की चेष्टा करता है और ऐसा करते हुए वह मजबूत होता है मजबूर नहीं। रतन का बड़ा भाई है राम (राजकुमार), जो एक कपड़े के मील में काम करता है और आजकल कमाई में हाथ तंग होने के कारण अपने भाई को पढ़ाई के लिए पैसे नहीं भेज पा रहा है। राम भोला है और मील को मंदिर तथा उसके मालिक सेठ सेवकराम (मोतीलाल) को भगवान मानता है। इस परिवार में राम और रतन के अलावा उसकी मां (प्रतिमा देवी), राम की पत्नी और उसके दो बच्चे हैं। बेटी जवान है और मील के एक मजदूर से ही उसकी शादी होने वाली है। रतन अपनी पढ़ाई पूरी करके घर वापस आता और उसे अपने भाई के मील में चीफ इंजिनियर की नौकरी इसलिए मिल जाती है क्योंकि वो मील के मशीन का एक पुर्ज़ा ख़ुद से ही बना देता है जिसके बारे में उस मील के इंजिनियर का मानना है कि इसे विदेश से मंगवाना पड़ेगा और तब तक यह मील बंद रहेगा। यहां थोड़ा स्वदेशी और विदेशी की बहस होती है लेकिन आख़िरकार जीत स्वदेशी की ही होती है। अब ज़रा सोचिए, आज़ादी के 70 साल से ज़्यादा के बाद भी हम आज अधिकतर चीज़ों के लिए विदेशों पर ही निर्भर हैं और हमारे नेतागण मेड इन इंडिया और मेक इन इंडिया आदि आदि के नारे के तहत विदेशी माल की स्वदेशी पैकेट बनाने में व्यस्त हैं जबकि गांधी ने आत्मनिर्भरता की बात न केवल की थी बल्कि उसे मानने के लिए भी प्रेरित किया था! लेकिन ज़माने को गांधी का मज़ाक बनने से वक्त मिले तब तो वो उनके कथन पर विचार करे!
बात अगर पैग़ाम (फिल्म) के सन्दर्भ में किया जाए तो देश को आज़ाद हुए एक दशक से ज़्यादा हो गया था और देश की उन्नति के लिए सत्तासीन लोगों की तरफ से उद्योगिक क्रांति का नारा दिया जा चुका था। देश में उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सरकार तरह-तरह की सुविधाएं प्रदान कर रही थी लेकिन सामंती मानसिकता से लैश मालिक और मजदूर के बीच अभी भी भाईचारे का वह रिश्ता क़ायम नहीं हो पाया था, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। मजदूरों का शोषण जारी था और मजदूर अपने भोलेपन में मील को मंदिर और मालिक को भगवान मानके काम किए जा रहे थे क्योंकि इससे उनका पेट जुड़ा हुआ था। इधर देश भर में इसी समस्या को लेकर आन्दोलन की सुगबुगाहट थी, यह फिल्म उसी समस्या को केंद्र में रखती एक बेहद ज़रूरी फिल्म है जो मालिकों को मजदूरों का हक़ देने की बात करती है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी जस की तस बनी हुई है बल्कि दुःखद सत्य यह है कि आज तो और भी ज़्यादा बढ़ गई है कि क्योंकि देश की आज़ादी से देश के आम आवाम ने जो सपने देखे थे उसकी भ्रूणहत्या तो इस देश के नेताओं ने न जाने कब का कर दिया है और उसे ठीक करने के लिए हुए तमाम प्रकार के आन्दोलन अपने मूल चरित्र में आख़िरकार इतने ज़्यादा अराजक निकले कि उन्होंने गढ़ा कम अराजकता ज़्यादा फैलाई, उसका नतीज़ा यह कि अमीर और ग़रीब के बीच की खाई आज और भी ज़्यादा गहरी हुई है बल्कि आज तो हालत यह है कि किसान कड़कड़ाती ठण्ड में देश की राजधानी के बाहर महीनों से सड़कों पर आन्दोलन कर रहे हैं और सत्ता अपने घमंड में चूर हैं और देश के ज़्यादातर निवासी पता नहीं किस नशे में मदहोश! जुमलों की खेती चरम पर है; अब सच में देश ने कितनी तरक्की कर ली है ना!
नायक वो नहीं होता जो अपना माल बेचकर नाम और दाम कामता है या फिर एक से एक झूठे सपने दिखाकर उल्लू बनाता है बल्कि नायक कहलाने का हक़ उसे है जो कमज़ोर के हक़ की आवाज़ उठाता है, मजलूमों के लिए संघर्ष करता है और दूसरों को अपने हक़ के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करता है।
रतन मील में काम करते हुए देखता है कि मील का मालिक मजदूरों के भलमनसाहत का लाभ उठाकर उनका शोषण कर रहा है। छः महीने पर साइन या अंगूठा लगवाकर एक महीने का बोनस देता है और दुर्घटना होने पर मुआवज़ा देने के बजाए किसी बहाने अपना पीछा छुड़ाने में ही अपनी भलाई देखता है। उसे यह बात अखरती है और वो बड़े भाई के लाख समझाने पर कि अपने काम से काम रखो, हक़ की लड़ाई के लिए एक तरफ मजदूरों का एक यूनियन खड़ा करता है और दूसरी तरफ बिलकुल गांधीवादी तरीक़े से मालिक को समझाने की चेष्टा भी करता है। उसका भाई राम उसके ख़िलाफ़ होता है क्योंकि वो अपने भोलेपन की वजह से मालिक को भगवान मानता है। बहरहाल, बात आगे बढ़ती है, बहुत सारे पड़ाव और चुनातियां आते हैं और अंततः जीत मजदूरों की होती है और मालिक का हृदय परिवर्तन होता है; बाक़ी बीच में प्रेम और जलन का तड़का भी अमूमन हर हिंदी फिल्म में होता ही है, वो यहां भी है लेकिन स्वादानुसार ही है और अंत में मालिक और मज़दूर सब साथ हो जाते हैं, बिलकुल गांधियन तरीक़े से! वैसे भी गांधी क्लास मिटाने की नहीं बल्कि सहृदय, दयावान आदि होने की बात करते हैं।
अब पैग़ाम (फिल्म) के गीत और संगीत पर अगर अलग से बात न की जाए तो यह उचित नहीं होगा। इस फिल्म के गीत और संगीत फिल्म के नायक-नायिका का स्वैग, सिक्स पैक और कम से कम कपड़े दिखाने के लिए नहीं ठुंसे गए हैं बल्कि उसका अलग से अपना एक बेहद ही महत्वपूर्ण, गूढ़ अर्थ और महत्व है। फिल्म में कुल नौ गाने हैं। कवि प्रदीप के लिखे गीतों को सी रामचंद्र ने संगीतबद्ध किया है, जिसे मन्ना डे, रफ़ी, आशा भोसले, सुमन कल्यानपुर के साथ ही साथ ख़ुद सी रामचंद्र में आवाज़ दी है। “तितलियां रे” गाने के अलावा बाक़ी सारे गानों भयंकर अर्थवान हैं, वो चाहे “इंसान का इंसान से हो भाई चारा, यही पैग़ाम हमारा” हो, “दौलत ने पसीने को आज लात है मारी” हो, “कैसे दिवाली मनाए हम लाला, अपना तो बारह महीने दिवाला” हो, “सुनो रे भैया हम लाए हैं” हो, बदला सारा ज़माना बाबू” हो। बदला सारा ज़माना गाना जॉनी वाकर के ऊपर फिल्माई गई है, उसके कुछ बोले देखिए –
अपना यह संसार हुआ है बिलकुल पागलखाना
बदला सारा ज़माना बाबू बदला सारा ज़माना
जिसको ना झाड़ू पकड़ना भी आए
वो बेटा अपना ही झंडा उडाए
आदमी भी कैसा पाजी है हाय
मौक़ा मिले तो भगवान बेच खाए
बदला सारा ज़माना बाबू —
भगवान के नाम पर वोट मांगने और देश बेचनेवाले इस भयंकर देशभक्ति(?) वाले समय में भी इस गाने में आप जॉनी वाकर के मौलिक नृत्य पर मोहित हुए बिना नहीं रह सकते। ऐसा नृत्य अभिनेता की आत्मा से निकलता है, इसे दुनिया का कोई कोई कोरिओग्राफर संयोजित नहीं कर सकता। अब जहां तक सवाल अभिनय का है तो फिल्म में दिलीप कुमार और राज कुमार जैसे अभिनेता हैं, बैजयंती माला जैसी अभिनेत्री और मोतीलाल जैसा प्रतिष्ठित खलनायक। अब अभिनेत्रियों के लिए हीरो से प्रेम करने और खुश होने और रो भर देने से ज़्यादा कुछ इस फिल्म में भी नहीं है तो उनकी बात क्या किया जाए लेकिन आपको सबसे ज़्यादा आश्चर्य राजकुमार का अभिनय देखकर होता है। उन्होंने अच्छा काम किया है वो शायद इसलिए भी क्योंकि अभी तक वो “जॉनी’ जैसी बकवास इमेज के गुलाम नहीं हुए थे। इसी कारण उन्हें इस फिल्म के लिए सहायक अभिनेता के सम्मान के लिए नामांकित भी किया गया था बाक़ी दिलीप कुमार के अभिनय की बात है तो वो इस फिल्म में एक-एक दृश्य और एक-एक संवाद ही नहीं बल्कि चरित्र का एक-एक क्षण जीवंत करते हैं। एक-एक संवाद का अर्थ निकालकर सामने रखते हैं और हरेक दृश्य को अर्थवान बनाते हैं। हिंदी सिनेमा पहले से ही अतिनाटकीयता का शिकार रहा है और वो ज़माना तो अभिनय के नाम पर एक से एक नकलीपने के प्रदर्शित करने का था, ऐसे समय में अगर कोई अभिनेता चरित्र बनने और दृश्य व संवाद के अर्थ (sub-text) को अभिनीत करने की चेष्टा और अभिनय नामक विधा को एक सार्थक और तार्किक अर्थ और परिणति देने का प्रयास भी करता है तो वो सच में वो आदरणीय है। फिल्म में लम्बे-लम्बे सवाद हैं, जिन्हें दिलीप कुमार रटके या किसी ख़ास अंदाज़ में बोलकर या एक नकली आवरण रचकर नहीं निकल जाते बल्कि उसे आत्मसात करते हैं, जीते हैं और अभिनय नामक विधा की यथार्वादी अवधारण को गरिमामय रूप से स्थापित करते हैं और इस प्रकार वो अभिनय की एक पूरी पाठशाला बनाकर उपस्थित होते हैं। छायाकार पी एल्प्पा, लेखक रामानंद सागर, निर्देशक एस एस वासन और निर्माता बी। नागी रेड्डी की श्वेत और श्याम यह फिल्म न केवल अभिनय का एक आयाम रचता है बल्कि सिनेमा कि सार्थकता और सामाजिक सरोकार और उपयोगिता को भी बड़े ही गौरवपूर्ण तरीक़े से स्थापित करता है।
दिलीप कुमार और राजकुमार हिंदी सिनेमा में केवल दो फिल्मों में साथ आए हैं – पैग़ाम और सौदागर और दोनों ही फ़िल्में अपनी-अपनी जगह पर एक कल्ट है और दोनों ही फिल्मों में दोनों ही अभिनेता को देखते हुए यह तय करना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि सेर कौन और सवा सेर कौन। वैसे क्या ज़रूरी है कि यह तुलना किया ही जाए?
पैग़ाम (फिल्म) ने सन 1959 में जो भाईचारे का पैग़ाम दिया था और आज फिर से उसे दुहराने की ज़रूरत है क्योंकि आज सत्ता के प्रचंड लालच में नेताओं ने सबसे ज़्यादा इसे ही तबाह किया है और नफ़रत की आग भड़काई है। फिल्म नए भारत के सपना सजाए फिर उसी पैग़ाम से ख़त्म होती है –
हरेक महल से कहो कि झोपड़ियों में दीप जलाए
छोटों और बड़ों में अब कोई फ़र्क नहीं रह जाए
इस धरती पर हो प्यार का घर-घर उजियारा
यही पैग़ाम हमारा
लेकिन यह पैग़ाम जब सही तौर पर ग्रहण नहीं किया जाता और चीज़ें ठीक होने के बजाए और ज़्यादा बिगडती ही जाती है तो आगे दिलीप कुमार जब सन 1983 में मज़दूर नामक फिल्म में अभिनय करते हैं और हसन कमाल उस फिल्म के लिए एक युगांतकारी गीत लिखते हैं –
हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग़ नहीं एक खेत नहीं हम सारी दुनिया मागेंगें
अब दिलीप कुमार के सिनेमा का गांधीवाद से मार्क्सवाद की यह यात्रा का क़िस्सा फिर कभी।
पैग़ाम (फिल्म) YouTube पर उपलब्द है।
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