नेटफ्लिक्स पर फ़िलहाल अंग्रेजी में एक नई डाक्युमेंटरी आई है – द सोशल डिलेमा. यह बेहद चर्चित हो रही है और बहुतेरे लोग एक दुसरे को इसे देखने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं, जो एक अच्छी बात भी है. यह है भी बहुत शानदार और इसे हर इंसान को न केवल देखना चाहिए बल्कि अच्छे से समझना भी चाहिए और साथ मैं व्यक्तिगत रूप से यह भी उम्मीद करूंगा कि नेटफ्लिक्स को इसे हर भाषा में डब करना चाहिए, क्योंकि दुनिया का हर इंसान आज भी अंग्रेज़ी नहीं समझता है! हालांकि लिखने-पढ़ने और पुस्तकों की दुनिया में विचरण करनेवाले लोग इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि दुनिया कि लगभग हर भाषा में यह चिंतन बहुत पहले ही शुरू हो गया था और आज एक से एक आलेख और पुस्तकें उपलब्ध हैं.
इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि किसी भी चीज़ के दो पहलु होते हैं, अच्छा और बुरा. इंसान के लिए कोई भी चीज़ अच्छा है या बुरा है इसका आंकलन निहायत ही व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर ही संभव है. अगर कोई भी चीज़ इंसान को और ज़्यादा सामाजिक, कोमल, सहृदय, तर्कशील, विवेकशील, सत्य और सौन्दर्य का अनुगामी बनाता है तो वो सही है, वरना ग़लत. वैसे इस कसौटी पर बड़े-बड़े सुरमा और उनके विचार ध्वस्त हो जाएगें.
आजतक हम पढ़ते, देखते और सुनते आए हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिकता से कटके उसका कोई ख़ास वजूद नहीं होता है हालंकि ऐसे भी इंसानों की कहानियां हैं जो एकांतवास में जीवन बिताना पसंद करते हैं, लेकिन वो जीवन जीने का उनका अपना व्यक्तिगत चयन होता है, सामाजिक नहीं. लेकिन अगर इस एकांतवास में भी अगर आभासी महा-सामजिकता का भ्रम पैदा कर दिया जाए और इंसान वास्तविक दुनिया के सत्य को भी उसी भ्रम और बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी बात को बस कुछ पल के लिए लाइक्स, कमेंट्स, इमोजी और व्यूज़ में बदलना को ही अपना और अपने वजूद की सार्थकता माने, घंटो-घंटो शब्दभेदी तीर चलने को क्रांतिकारिता और कर्तव्य माने, तब पैदा होती ही मूल समस्या.
एकाध अपवादों को छोड़कर पहले इंसान की हर क्रिया में वास्तविक सामाजिकता की ज़रूरत होती थी लेकिन धीरे-धीरे हर हाथ में स्मार्टफोन और हर स्मार्टफोन में इंटरनेट और अनगिनत अप्लिकेशन का फ्री में एक्सेस मील जाने ने इंसान को समूह में भी अकेला कर दिया है और इंसान ने उसी अकेलेपन से अर्जित आभासी सामाजिकता को ही जब सत्य मान लिया है, तब शुरू हुआ असल द सोशल डिलेमा. जहां ख़ूब सारे शब्द हैं, फोटो है, विडिओ है, लाइक्स हैं, डिसलाइक्स हैं और पता नहीं क्या-क्या से भरपूर एक अंधा मीठा-खारा और गहरा ख़तरनाक विशाल समुद्र हैं जिसमें जितनी डुबकी लगाओ, उतने ही भीतर धंसते जाते हैं. वास्तविक दुनिया से कुछ इंच की स्क्रीन पर सिमट आई इस आंख, दिल, दिमाग का कच्चा चिटठा खोलती है यह फिल्म द सोशल डिलेमा.
यह एक प्रकार की लत है और लत शब्द का इस्तेमाल दो जगह ही ज़्यादा होता है, एक ड्रग्स के सेन्स में और दूसरा सोशल मिडिया के सेन्स में. हम ड्रग्स के लत से पीड़ित हों ना हों लेकिन आज समाज का एक लंबा हिस्सा सोशल मिडिया के लत से पीड़ित है. लत की लत यह है कि किसी भी गिरफ़्त व्यक्ति को कभी यह लगता ही नहीं कि वो पीड़ित है बल्कि उसे हमेशा ही ऐसा लगता है कि वो कोई बेहद महत्वपूर्ण काम कर रहा है, जिसे किसी भी क़ीमत पर किया ही जाना चाहिए! इसमें किसी को भी कोई संदेह कभी नहीं रहा कि हम सब अपनी लत के लिए एक से एक तर्क (जो मूलतः कुतर्क होता है) गढ़ने में तो माहिर हैं हीं. इस बात में कोई संदेह नहीं कि लत अमूमन संकट ही पैदा करता है, जैसे एक शराबी शराब के लिए किसी भी स्तर पर गिर सकता है और कुछ भी नैतिक-अनैतिक कर सकता है. हमें लगता है कि हम उसका सेवन कर रहे हैं जबकि हम उसके गुलाम हो चुके होते हैं और फिर वो कैसे हमारे पुरे वजूद पर राज करता है, हमें ख़बर भी नहीं लगती. कैसे हमारे ऊपर मुद्दे उड़ेले जाते हैं, वास्तविकता से हमारा ध्यान हटाया जाता है, प्रोपगेंडा, झूठ, भ्रम और मार्केटिंग हमारे दिमाग में बड़ी ही सहजता से उड़ेल दिया जाता है, ज्ञान की जगह हमारा वजूद कूड़ेदान में बदल जाता है और आभासी दुनिया से हमारा वास्तिविक सत्य बुरे तरीक़े से प्रभावित होने लगता है, हमें या तो समझ नहीं आता या समझ आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है! हमने लगता है हम इस सोशल साइट्स का बड़ी ही आज़ादी से इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि सत्य यह है कि बड़ी ही सफ़ाई और कुशलता से वो हमें अपना शिकार बना रहीं है, हमें निगल भी ले रहीं हैं और डकार भी नहीं लेतीं और हद तो यह है कि हम उसमें ख़ुश हैं जैसे नाली में कोई कीड़ा मस्त होता है.
फिल्म द सोशल डिलेमा का एक दृश्य है कि पूरा परिवार डिनर करने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठा है. मम्मी तय करती हैं कि आज कोई भी आदमी यहां स्मार्टफोन का प्रयोग नहीं करेगा और वो सबका स्मार्टफोन लेकर एक शीशे के एक डब्बे में डालकर पैक कर देतीं हैं. थोड़ी देर बाद किसी के फोन का नोटिफिकेशन बजता है. सब फोन की तरफ देखते हैं. मम्मी बोलती है – नो स्मार्टफोन. सबके चेहरे पर बैचैनी, तभी युवा बेटी उठती है और डब्बे से फोन निकलने की कोशिश करती है, डब्बा तालाबंद है इसलिए फोन नहीं निकल सकता. वो एक हथौड़ा लाती है और डब्बा तोड़कर अपना फोन निकलती है और अपने कमरे में चली जाती है और तरह-तरह के मूंह बनाकर अपनी सेल्फी लेती है और उसे फ़िल्टर करने सोशल एकाउंट्स पर लोड़ करती है. वही लड़की एक और दृश्य में आइने के सामने अपनेआप को निहारते हुए रो रही है! ऐसे दृश्य आज शहर के हर घर में आम हैं और हर आयुवर्ग के लोग इसकी गिरफ़्त में हैं. कोई बचा नहीं है, न हम और न आप. हम माने या न माने लेकिन यह एक बेहद ख़तरनाक बात है और बहुत सारी मानसिक और शारीरिक बीमारियों की जड़ भी. फोटो या स्टेट्स पर लाइक/कमेन्ट कम होने से हम परेशान होते हैं, कोई कम कोई ज़्यादा और अब तो डिप्रेशन और आत्महत्या तक का सिलसिला शुरू हो चूका है.
ऐसा नहीं है कि स्मार्टफोन, टीवी, इंटरनेट के आने से पहले दुनिया स्वर्ग थी और अब नर्क बन चुकी है बल्कि निश्चित ही तकनिकी क्रान्ति ने बहुत सारे शानदार काम किए हैं लेकिन यह कितनी ख़तरनाक बात है कि आभासी दुनिया की एक झूठी और भ्रामक ख़बर मात्र में वास्तविक दुनिया में भूचाल आ जा रहा है! हम बिना सही जानकारी के सूचना पर सहज यकीन कर रहे हैं और उसे प्रसारित व प्रचारित कर रहें हैं, उसके प्रभाव में आ रहे हैं और सच का सामना होने पर दुम दबाकर पतली गली से निकल जा रहे है या बात को किसी और बात की तरफ मोड़ दे रहे हैं. किसी की कोई ज़िम्मेदारी नहीं! यह मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक दिलालियापन है, जो पूरी मानवता के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा है. जिसे न रोका गया तो वह समय दूर नहीं जब यह वो सबकुछ निगल लेगा जिसे इंसान ने हज़ारों साल के कठिन परिश्रम और तप से मानव हित में अर्जित किया है. प्रसिद्द कथाकार लू शुन की कहानी पागल की डायरी का एक अंश लेकर अगर अपनी बात समाप्त की जाए जो वो बात यह है कि – “संभव है नई पीढ़ी के छोटे बच्चों ने अभी नर मांस न खाया हो, उन बच्चों को तो बचा ही लें.”
जैसे किसी भी नशे के गिरफ्त में गिरफ्तार इंसान अपने को नसेड़ी नहीं मनाता, हत्या करनेवाला अपनेआप को हत्यारा नहीं मानता, बलात्कारी अपनेआप को बलात्कारी नहीं मानता ठीक वैसे ही स्मार्टफोन, कम्प्यूटर्स और टीवी के मकड़जाल में फंसा व्यक्ति अपनेआप को बीमार नहीं मानता जबकि वो ग्रसित है और रोज़ व रोज़ और ज़्यादा इस दलदल में समाहित होते जा रहा है, इससे बाहर निकलने का केवल एक ही रास्ता है कि बड़ी ही तर्कपूर्वक यह चिंतन किया जाए कि कहीं हम इसके गुलाम तो नहीं हो गए हैं और यह समझने की ज़रूरत है कि असली दुनिया इन सक्रिनों के बाहर है और वो हमेशा बाहर ही रहेगी! साधन का इस्तेमाल इंसान करे तो अच्छा, इंसान का इस्तेमाल साधन करने लगे तो वो बेहद ख़तरनाक बात है! ऐसा ना हो इसके लिए सजग मनुष्य की आवश्यकता है और वर्तमान का ज़्यादातर मनुष्य कितना सजग है, वो मुझे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है. किसी ज़माने में जब दुनिया किताबी हो रही थी तो शायर निदा फाजली ने क्या ख़ूब कहा है कि
धुप में निकालो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो
द सोशल डिलेमा नेटफ्लिक्स पे अवेलेबल है
फिल्मची के और आर्टिकल्स यहाँ पढ़ें।
For more Quality Content, Do visit Digital Mafia Talkies.