Friday, December 6, 2024

बंबइया फार्मूले के विरुद्ध ‘तीसरी कसम’ (फिल्म 1966)

‘तीसरी कसम’ फिल्म लगभग ख़त्म होनेवाली है। कंपनी के सारे प्रमुख लोग हीराबाई के तम्बू में जमा हैं, वहां हीराबाई को अपने भविष्य का निर्णय करना है कि उसे हीरामन के भोलेपन का लाभ उठाकर तथाकथित सामान्य जीवन (घरेलू) में प्रवेश करना है या नौटंकी की बाई ही बने रहना है। विमर्श चल रहा है। दुनिया उसे बाजारू मानती है और हीरामन देवी और आख़िरकार हीराबाई बाजारू और देवी दोनों को ठुकराकर अपनी राह पकड़ती है। फिर जिसे अठन्नी देकर लोग देखते हैं उसे पर्दे के भीतर छुपाकर कुछ घंटे की यात्रा तो की जा सकती है, पुरे जीवन की नहीं। हीराबाई जो है उसे हीरामन स्वीकार नहीं करता और हीरामन जो स्वीकार करता है उसका अभिनय हीराबाई मंच पर कुछ पल के लिए तो कर सकती है लेकिन अपने ऊपर इस चोले को ताउम्र आरोपित करना हीराबाई को उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। ऐसे निर्णय न आसान होते हैं और ना ही आसानी से नहीं लिए ही जाते हैं। ना ही सबमें इतना दम ही होता है कि वो किसी निर्णायक बिंदु पर पहुंच सके। लेकिन हीराबाई में दम है कि नायक और खलनायक के इच्छा के विरुद्ध जाकर अपना निर्णय लेती है। अब निर्णय से किसको क्या हासिल होता है वो बात अलग है। वैसे भी नारीत्व पुरुषत्व की अर्धांगिनी है, यह एक वाहियात सोच है। जीवन में भी हम जिन चीज़ों को बहुत ही आसान मानकर चलते हैं, दरअसल वो उतनी आसान होती नहीं हैं या फिर यह भी हो सकता है कि चीज़ें होती तो आसान है लेकिन किन्तु-परंतु के चक्कर में हम उसे पेंचीदा बना देते हैं। फिर नाच-गाने के पेशे में कला के स्थान पर इंसान के शोषण का भी अपना एक प्रखर इतिहास रहा है, जैसे हर उजाले का एक अंधेरा पक्ष भी होता है।

सन 1957 में नर्मदेश्वर प्रसाद के सम्पादन में पटना से प्रकाशित होनेवाली अप्रम्परा नामक पत्रिका में लम्बी कहानी छपती है। कहानी की तरह इसके रचनाकार फनीश्वरनाथ रेणु कहानी का नाम भी लंबा ही रखते हैं – तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम। यह उर्फ़ में मारा जाना जान से मारा जाना नहीं है बल्कि यह वह मारा जाना है जिसके बारे में इसी फिल्म का एक गीत कुछ यूं कहता है  –

इस प्यार की महफ़िल में, वो आए मुक़ाबिल में
वो तीर चले दिल पर, हलचल सी हुई दिल में
चाहत की सज़ा पाई, अजी हां मारे गए गुलफ़ाम

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यह कहानी कहे से ज़्यादा अनकहे में चलती है और कहे से अनकहे तक यात्रा में ही तो असली आनंद है। सबकुछ कह देने में कोई महानता नहीं बल्कि कुछ कहे और बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया जाए, मज़ा वहां ज़्यादा है। वैसे यह उर्फ़ लगाने का चलन नौटंकी और पारसी रंगमंच से आया है जहां नाम के बीच में उर्फ़ लगाया जाता था, जैसे लैला मजनू उर्फ़ मख्ताब की मुहब्बत। फिर लोक पारंपरिक से आधुनिकता तक की यात्रा में रेणु जी माहिर तो हैं हीं, इसलिए यह महुआ घटवारिन की लोक कथा का आधुनिक संस्करण भी प्रतीत होता है, तभी तो आख़िर में स्टेशन पर हीरामन से विदा लेते वक्त हिराबाई भरे गले से कहती है – तुम्हारी महुआ घटवारिन को सौदागर ने ख़रीद लिया है मीत। यह मीत का रिश्ता अद्भुत है, जहां आज़ादी ही आज़ादी है और किसी ने यह सच ही कहा है कि रिश्ते आज़ादी का विस्तार होना चाहिए ना कि ग़ुलामी का वायस।

बिहार की आंचलिकता की मिट्टी में सराबोर इस कहानी के केंद्र में पात्रों के अलावा भारतीय रंगमंच की विश्वप्रसिद्ध शैली नौटंकी भी है इसलिए कथा में उर्फ़ का समावेश बड़ा ही मौजू बन पड़ता है। बाद में यह कहानी ठुमरी (1959) नामक संग्रह में रेणु की कई अन्य महत्वपूर्ण कहानियों के साथ प्रकाशित होती है। जिसे हिंदी सिनेमा के अप्रितम गीतकार शैलेन्द्र पढ़ते हैं और इस कहानी पर सिनेमा गढ़ने का निर्णय लेते हैं। निर्देशक के रूप में विमल राय के सहायक रह चुके बासु भट्टाचार्या का चयन होता है। जहां तक सवाल अभिनेताओं का है तो जग ज़ाहिर है कि उसमें राज कपूर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफ्तखार, केश्टो मुखर्जी, ए के हंगल, आसीत सेन, सी एस दुबे जैसे अभिनेता हैं। ‘तीसरी कसम’ फिल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान हीरामन और हीराबाई के रूप में आज भी सिनेमाप्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं। फिल्म का संवाद लिखने के लिए ख़ुद रेणु न केवल तैयार हो गए बल्कि कई बार इसके फिल्मांकन के दौरान सेट पर उपस्थित होने के भी क़िस्से सुनने को मिलते हैं। पटकथा नवेंदु घोष तैयार करते हैं जो इससे पहले विमल राय के लिए सुजाता, बंदनी, देवदास जैसी फिल्मों के लिए पटकथा लिखने का कार्य अंजाम दे चुके थे। अब ज़रा कल्पना कीजिए कि एक बड़ा ही महत्वपूर्ण गीतकार और दो बड़े साहित्यकार मिलकर किसी फिल्म की पटकथा और संवाद लिख रहे हैं और वो भी हिंदी के एक अतिमहत्वपूर्ण कहानी के ऊपर। इस फिल्म को एक यादगार फिल्म होने से कोई रोक भी कैसे सकता था लेकिन यह भी सच है कि यादगार चीज़ों की राह कभी आसन रही नहीं।

हीरामन और हीराबाई की कथा जितनी सहज है उतनी ही जटिल भी। दोनों स्टेशन से मेले की यात्रा में अचानक ही मिलते हैं, एक गाड़ीवान है तो दूसरी सवारी। मेला पहुंचकर रिश्ता आगे बढ़ता है और बिना किसी वादे-इरादे के कुछ दिन साथ बितातें हैं, मन ही मन में कुछ सपने पलते हैं और फिर यथार्थ की मरुभूमि से टकराकर एक दिन अचानक ही अलग हो जाते हैं। हीराबाई के चले जाने के बाद भी हीरामन अपने बदन पर पुनः सुरसुरी महसूस करता है ठीक ऐसी ही सुरसुरी मूल तत्व की तलाश में लगे अनामदास के पोथा (लेखक – हजारी प्रसाद द्विवेदी) वाले रैक्व मुनि भी महसुस करते थे और वो हरवक्त अपनी पीठ को खुजलाते रहते हैं। इस सुरसुरी को समझना इतना आसान नहीं है! तभी तो रैक्व मुनी कहते हैं – “सब हवा है!” सन 1966 में श्वेत और श्याम में बनी तीसरी कसम नामक यह महानतम फिल्म का सारा घटनाक्रम इसी हवा को पकड़ने की ज़द्दोजहद है। यह मिलने बिछुड़ने से ज़्यादा उस एहसास की कथा है जो एक बार अन्दर बस गई तो ताउम्र वहीं रहती है, इसका पास और दूर होने से कोई ख़ास लेना देना नहीं है। वैसे भी विश्व की महानतम प्रेम कहानियों का अंत दुखांत हैं और फिर “हमारा यार है हममे, हमन को बेकारारी क्या” का सूफियानी चिंतन भी तो है।

बंबइया फार्मूले के विरुद्ध 'तीसरी कसम' (फिल्म 1966)

‘तीसरी कसम’ फिल्म के केंद्र में नौटंकी में काम करनेवाली हीराबाई और गांव का एक सीधासादा गाड़ीवान हीरामन है। इन दोनों पत्रों में एक समानता यह है कि दोनों बड़ा ही अच्छा गाते हैं। हीरामन लोक संगीत गाता है तो हीराबाई नौटंकी की मल्लिका है। अब ऐसे फिल्म में फिल्म संगीत की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। ख़ुद शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी गीत लिखते हैं और संगीतकार हैं शंकर-जयकिशन। शैलेन्द्र के लिखे आ आ भी जा, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, हाय ग़जब कहीं तारा टूटा, पान खाए सैयां हमारो, सजनवा बैरी हो गए हमार, सजन रे झूठ मत बोलो, लाली लाली डोलिया में और हसरत जयपुरी ने ना केवल फिल्म के स्थानानुसार उचित बल्कि एक दर्शन, अर्थवत्ता और ज़िम्मेवारी के तहत लिखा है। सजन रे झूठ मत बोलो और दुनिया बनानेवाले, इन दो गीतों में जो दर्शन है, वो कोई कैसे भूल सकता है। इसलिए इस फिल्म के एक-एक गीत आज भी संगीत प्रेमियों की ज़बान पर हैं। फिल्म में एक लंबा हिस्सा नौटंकी का भी आता है। आज नौटकीं की विधा लगभग समाप्त हो चुकी है इसलिए नौटंकी की विधा को समझने के लिए आज उस हिस्सा का संग्रहणीय महत्व बन जाता है और यह बड़ी ही आसानी से समझा जा सकता है कि नौटंकी कैसे खेला जाता था। इस फिल्म में उसकी धुनें, उसका सुर, उसका संगीत और प्रस्तुतिकरण को जैसे का तैसा बनाए रखा गया है। एक शॉट तो ख़ासतौर पर है जिसमें मंच, अभिनेता, संगीतज्ञ और दर्शक एक साथ दिखाई पड़ते हैं; यहां तक कि नौटंकी के पर्दे, वस्त्र-विन्यास, मुख सज्जा, मंच परिकल्पना आदि को इसे देखते हुए समझा जा सकता है।

जा रे ज़माना और इस्स का कल्लोल अपने भीतर समेटे यह कथा और फिल्म ने अपने में एक ज़माना समेटे है जिसमें मेला है, नाच-नौटंकी है और इसको लेकर सामाजिक मान्यता है, यात्रा है, ग़रीबी है, महाजनी है, चोरबाजारी है, गांव-क़स्बे का जीवन है, लोक संस्कृति और परम्परा है और साथ ही साथ सिनेमा के आगमन और नाच नौटंकी के ग्राफ के पतन कि कथा भी है। हीरामन मनुआ नटुआ के मार्फ़त पहले गाए जाने गीतों का ज़िक्र करता है और साथ ही यह भी बताना नहीं भूलता कि अब सबकुछ बदल गया है। वहीं मेले में पहुंचने के बाद हीरामन चाह (चाय) लाने जब दूकान पर जाता है तो वहां एक छोटे दे दृश्य में (यह दृश्य मैथिली में है) सिनेमा के भीषण आगाज़ की घोषणा सुनाई पड़ती है। राह चलते गीत-गवनई है तो शाम में थकान उतारने के लिए ढ़ोलक, झाल, खड़ताल के साथ ही साथ लोक-संगीत का साथ भी है लेकिन तकनीक ने लोक को पछाड़ दिया और सब जीवंत होने के स्थान पर रिकॉर्ड हो गया। अब तो ज़माना यह है कि जिधर देखो उधर तकनीकीकरण का ज़ोर है, जीबी की मेमोरी बढ़ गई और इंसानी दिमाग और मेहनत का टेराबाईट सिकुड़ने एमबी बन गया और हांफने लगा। इसलिए जा रे ज़माना कहते हुए हीरामन गाने लगता है –

सुनी सेज गोद मोरी सुनी, मरम न जाने कि कोय
छटपट तडपे प्रीत बिचारी, ममता आसूं रोए
डूब गए हम बीच भंवर में करके सोलह पार
सजनवा बैरी हो गए हमारा

‘तीसरी कसम’ फिल्म पर बहुत सारे सच और क़िस्से कहानियां भी है कि राजकपूर में केवल एक रुपया लिया था इस फिल्म के लिए, यह शैलेन्द्र का सपना था और इस फिल्म के असली रचनाकार वही हैं, जिसे पूरा करने के लिए वो रोम-रोम क़र्ज़ में डूब गए थे और बम्बैया फिल्मी दुनिया के लीख से हटकर चलने की हिम्मत दिखाई। लीख से बेलीख होने पर हीरामन को भी गाड़ीवान टोकते थे और बदले में हीरामन उन्हें देहाती भुच्च कहता है तो बम्बई वालों से शैलेन्द्र को टोका।

इसकी कथा ख़ुद रेणु जी कुछ यूं दर्ज़ करते है – “तीसरी कसम पूरी हो चुकी थी। शैलेंद्र ने बताया कि वे लोग फिल्म का अंत बदलकर हीरामन-हीराबाई को मिला देना चाहते हैं। शैलेंद्र का रोम-रोम कर्ज में डूबा हुआ था फिर भी वे इसके लिए तैयार नहीं थे। उनका जवाब था कि बंबइया फिल्म ही बनानी होती तो वे तीसरी कसम जैसे विषय को लेते ही क्यों? और जब वह विषय लिया है तो उसका मतलब है कि वे कुछ अलग काम कर दिखाना चाहते हैं। दवाब से तंग आकर आखिर उन्होंने कह दिया कि लेखक को मना लीजिए तो वे आपत्ति नहीं करेंगे। शैलेंद्र ने मुझे सारी स्थिति समझा दी। टक्कर राज कपूर जैसे व्यक्ति से थी, जो न केवल फिल्म के हीरो थे, बल्कि उनके मित्र और शुभचिंतक भी। भाषण शुरू हुआ। उपन्यास क्या है, साहित्य, फिल्म, पाठक क्या हैं और दर्शक क्या हैं? कहानी लिखने से पाठक तक पहुंचने की प्रक्रिया क्या है, खर्च क्या है और फ़िल्म निर्माण क्या है, उसका आर्थिक पक्ष क्या है? शैलेंद्र पर चढ़े कर्ज और उसे उबारने की भी दुहाई दी गयी। और तो और, पैसा लगानेवाला मारवाड़ी भी जो आंखें बंद किये बैठा था, कहने लगा – आप यह मत समझिए कि मैं सो रहा था। मैं तो कहानी का एंड सोच रहा था। चेन खींचकर गाड़ी रोक लो और दोनों को मिला दो। आखिर मैंने कह दिया कि वे जो चाहें कर लें। मेरा पारिश्रमिक मिल चुका है। हां, अगर कुछ परिवर्तन होता है, तो मेरा नाम लेखक के रूप में न दिया जाये। जब मैं अंतिम निर्णय देकर लौटा तो शैलेंद्र छाती से लगकर सुबकने लगे। ऐसा निर्माता आज तक किस लेखक को मिला होगा? मुझे पूरा विश्वास है कि अगर शैलेंद्र का निधन न होता और यह फिल्म ठीक से प्रदर्शित हो पाती तो व्यावसायिक दृष्टि से भी सफल होती। लेकिन वह एक साजिश का शिकार हो गयी, जिसमें अपने-बेगाने जाने किन-किन का हाथ था और इसकी वजह यह थी कि उन्हें भय था कि तीसरी कसम अगर सफल हो गयी तो बंबइया फार्मूले पर वह बहुत बड़ा आघात होगा।“

तीसरा तारा फूल बगिया में टूटा, फूलों से पूछे कोई है कौन झूठा

लूटा रे लूटा दरोगा ने लूटा, हाय ग़जब कहीं तारा टूटा


‘तीसरी कसम’ फिल्म YouTube पर उपलब्द है।


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पुंज प्रकाश
पुंज प्रकाश
Punj Prakash is active in the field of Theater since 1994, as Actor, Director, Writer, and Acting Trainer. He is the founder member of Patna based theatre group Dastak. He did a specialization in the subject of Acting from NSD, NewDelhi, and worked in the Repertory of NSD as an Actor from 2007 to 2012.

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