शूटिंग के दौरान यह चर्चा थी कि यह वेबसिरिज़ भारत का हाउस ऑफ कार्ड्स होगा। हाउस ऑफ कार्ड्स की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी दमदार पटकथा और गहरे राजनीतिक समझवाला निर्देशन के साथ ही साथ अभिनेताओं का प्रदर्शन था और पूरी सिरीज़ में कहीं कोई बिखराव नहीं था लेकिन तांडव (टीवी सिरीज़) के साथ अमूमन यह सारी बातें ग़ायब हैं। अच्छे अभिनेताओं की एक लम्बी फेहरिश्त है लेकिन चुकी पूरी सिरीज़ ही कोलाजनुमा बन गई है इसलिए उन्हें अपना प्रभाव छोड़ने का उचित अवसर मिला ही नहीं है वहीं डिम्पल कपाड़िया को अगर छोड़ दे तो अमूमन बाक़ी सारी अभिनेत्रियां सजी सवंरी मॉडलिंग जैसा कुछ करती हुई प्रतीत होती हैं और इनका दूर-दूर तक अभिनय नामक विधा से कोई सम्बंध दिखता प्रतीत नहीं होता है। ऐसी पटकथा में अभिनय करने के लिए एक गहरी राजनैतिक दृष्टी और समझ चाहिए, जो यहां ज़्यादातर अभिनेताओं के पास “शायद” है नहीं, इसलिए जिसे लेयरिंग कहते हैं वो नदारत है।
तांडव (टीवी सिरीज़) में ज़्यादातर घटनाक्रम आम जीवन से उठाए तो गए हैं लेकिन उसका सन्दर्भ इतना ज़्यादा बदल दिया गया है कि उसका प्रभाव बहुत सूक्ष्म हो जाता है। वहीं तीसरी बार होनेवाले प्रधानमन्त्री की हत्या की काल्पनिक कथा भी है, अब कल्पना और यथार्थ का यह घालमेल सम्भाल्पाने के लिए एक बहुत बड़ी और समझदार टीम का होना ज़रूरी थी, जो लगता है कहीं ग़ायब है। यहां दो बार प्रधानमंत्री पद संभाल चुके व्यक्ति की हत्या है, फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए पार्टी के अंदर साज़िश है, अपनी ज़मीन बचने के लिए किसानों का प्रदर्शन है, छात्र राजनीति है, व्यक्तिगत संबंधों का जाल है, पुलिस प्रशासन और गुंडे भी है; लेकिन इतनी सारी चीज़ें एक जगह इकठ्ठा करना आसान है पर उसे संभालना बहुत मुश्किल काम है, जिसमें पटकथा लेखक और निर्देशक मात खाते हुए प्रतीत होते हैं और पूरी सिरीज़ लगभग बिखर सी जाती है, जबकि यह सब अपनेआप में इतने तगड़े विषय हैं कि इन सब पर अलग से एक लम्बी और बढ़िया वेबसिरिज़ बन सकती है। लेकिन सबकुछ एक जगह भर देने से इस वेबसिरिज़ की हालत शादी में खाने के उस प्लेट की तरह हो गई है जिसमें कोई मेहमान इतना सारा खाना इस कदर भर लेता है कि सब एक दूसरे में समाहित हो जाता है। दाल रायते में घुस जाता है और सब्ज़ी चिकन का मुंह चूम रहा होता है तो चटनी के ऊपर गुलाब जामुन नाच रहा होता है और फिर पता ही नहीं चलता कि किसका स्वाद क्या है। बाकि रहा सहा रायता तब और फैल जाता है जब बार-बार आपको युवा फिल्म का गाना सुनाया जाता है।
इस वेबसिरिज़ की तारीफ़ केवल एक वजह से की जा सकती है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म चुकी सेंसर बोर्ड की चंगुल से अभी तक आज़ाद है इसलिए यहां दो प्रकार के लोग ख़ूब आए हैं, पहला एकदम निरर्थक और फ़ालतू के विषय पर सेक्स, हिंसा और बेवजह की गलियां परोसकर बीमारी को और बढ़ानेवाले और दूसरे वो जो सच में कुछ सार्थक और ज़रूरी चीज़ रचना चाहते हैं। तांडव का भी प्रयास समसामयिक मुदों से दो-दो हाथ करने का है, जो आज के समय में यह एक बेहद ज़रूरी और साहसिक कार्य है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए लेकिन ऐसा करते हुए यह जवाबदेही भी बनती है कि अराजक न हुआ जाए। बाक़ी अगर पटकथा और निर्देशन शानदार होता तो बात और ज़्यादा काबिलेतारीफ होती और मोहम्मद जीशन अय्यूब, डिम्पल कपाड़िया, तिगमांशु धुलिया, कुमुद मिश्रा, सुनील ग्रोवर, डीनो मोरया, अनूप सोनी सहित बहुत सारे बेहतरीन अभिनेताओं की मेहनत सार्थक हो जाती। अब रहा सवाल सैफ अली खान का तो उनके अभिनय में नयापन का बेहद आभाव है।
तांडव के कुछ दृश्यों और संवादों पर ट्रोलिंग-पेट्रोलिंग का काम भी चलेगा, चल ही रहा है और चलना भी चाहिए वो शायद जानबूझकर इसी काम के लिए रखे भी गए हैं बाक़ी उनका विषय की गंभीरता में कोई ख़ास योगदान नहीं है और रही-सही कसर वो डिजिटल रुदालियां तो डिजिटली रुदन फैला कर पूरी कर ही देगीं जो बेहद ज़रूरी मुद्दों से देश का ध्यान भटकाने के लिए ही काम पर लगाई गई हैं। वहीं भावनाओं(!) के आहत हो जाने का सफल खेल भी खेला जाएगा लेकिन यह भावनाएं केवल और केवल डिजिटली आहत होगें, यथार्थ जीवन से सोशल मिडिया पर बहाए शाब्दिक भावनाओं का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि यथार्थ में यह भावना इतनी कमज़ोर कभी होती ही नहीं कि ज़रा-ज़रा सी बात पर आहात हो जाए।
तांडव (टीवी सिरीज़) अमेज़न प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है।
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