यह तुम्हारा नहीं तुम्हारे वोट का सम्मान है। तमिल फिल्म मंडेला में जब यह संवाद आता है तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह संवाद फिल्म के चरित्र के लिए बल्कि लोकतंत्र की उस जनता के लिए लिखी गई है, जो केवल वोट देने को ही अपना कर्तव्य मानती है और जहां चुनाव के वक्त नेता सेवक बन जाते हैं, तरह-तरह के रूप धारण करने लगते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार से लुभाते हैं, एक से एक वादे करते हैं। कोई किसी के घर खाने खाने लगता है, कोई किसी के पैर पखारने लगता है, कोई कुछ तो कोई कुछ। फिर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर और सीना ठोककर तरह-तरह के प्रलोभन भी दिए ही जाते हैं, बाक़ी धर्म और जाति का खेल तो है ही, जिसके जाल में फंसकर जनता वोट करती है और फिर अगले चुनाव तक अपना गाल और झाल बजाती रहती है और आख़िरकार कुल मिलाकर मामला होता है ढ़ाक के तीन पात!
मंडेला लोकतंत्र, जनता और नेता के बीच चुनाव और वोट की क़ीमत का इज़हार करता एक फ़र्स है अब यह बात और है कि अपने यहां फ़र्स ही यथार्थ हो गया है! जहां तक सवाल वोट की क़ीमत का है तो यह पूरी तरह से जनता के बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है कि वो अपने एक वोट की क़ीमत जाति, धर्म, सम्प्रदाय या मुर्ग, दारु, पैसे से तय करता है या बड़ी मुश्किलात के बाद हासिल लोकतंत्र की क़ीमत वो समझता है। वैसे भी लोकतंत्र में नेता और जनता एक दूसरे के पूरक हैं, पृथक नहीं। जैसा चयन, वैसा परिणाम; वो कबीर कहते भी हैं न कि
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों काहे पछिताय
बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से खाए
तमिलनाडु के एक छोटे से गांव की कहानी है जिसमें वोट देनेवाले लगभग एक हज़ार लोग हैं। गांव दो भागों में विभक्त है, उत्तर और दक्षिणवाले। गांव का प्रधान अबतक इन दोनों को जोड़कर चलता है लेकिन स्वक्ष भारत अभियान के तहत गांव में बने एकमात्र सावर्जनिक शौचालय के उद्घाटन के क्रम में दोनों पक्ष आपसे में लड़ पड़ते हैं और उसी क्रम में ग्राम-प्रधान बीमार पड़ जाता है। पेरियार को अपना आदर्श माननेवाले नए ग्रामप्रधान के लिए अलग-अलग पत्नियों से पैदा हुए उसके दो बेटे अब प्रधानी के लिए मैदान में हैं, एक उत्तर का प्रतिनिधि है तो दूसरा दक्षिण का लेकिन पेंच तब जाकर फंस जाता है जब चुनाव से पहले के गणित में दोनों पक्षों का वोट बराबर होता है और अब जीत हार का फैसला गांव में सबका सेवक और सबसे तुच्छ समझे जाने वाले एक नाई के वोट से तय होना है। अब हर कोई उसे हर तरह से लुभाने में लग जाता है। एकाएक उसका भाव बढ़ जाता है और मंडेला पहले इसका ख़ूब नाजायज़ फायदा उठाता है लेकिन जब उसे यह अहसास होता है कि वो अपने एक वोट से गांव में क्या-क्या बदलाव ला सकता है तब पूरी स्थिति ही बदल जाती है। फिर फिल्म में उसके बेनाम (गांव वाले उसे सूअर, गधा आदि नाम से पुकारते हैं और किसी को नहीं मालूम की उसका असली नाम क्या है) से नेंशन मंडेला के नामकरण की भी एक बड़ी रोचक कथा भी है।
भारतीय सिनेमा उद्योग विश्व बहुत वृहद है लेकिन यहां सिनेमा, सीरियल आदि के नाम पर ज़्यादातर कूड़ा ही बनाया और ख़ूब चाव से परोसा व देखा जाता है और इन फिल्मों से गांव तो लगभग ग़ायब ही है लेकिन इसी बीच में कुछ महत्वपूर्ण काम भी होता ही रहता है, माडोने आश्विन द्वारा लिखित और निर्देशित यह फिल्म भी महत्वपूर्ण भारतीय सिनेमा की श्रेणी वाला सिनेमा है जिसके केंद्र में भारतीय गांव, राजनीति और सामजिक व्यवस्था आदि है। वैसे भी क्षेत्रीय भाषाओं मराठी, मलयालम, बंगला, असामी, पंजाबी, तेलगु और तमिल आदि में कुछ बेहद ही महत्वपूर्ण काम हो रहे हैं, जिसे देखा और सराहा जाना चाहिए। विश्व के किसी बड़े फ़िल्मकार ने उचित ही कहा है कि सबटाइटल के सहरे सिनेमा देखना सीख लीजिए, आपके सामने विश्व के बेहतरीन सिनेमा का एक शानदार दरवाज़ा खुल जाएगा।
मंडेला फिल्म में गाने बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक हैं जिन्हें गीतकार युगाभारती, अरिवु, मालीवा रंद्रिमीमीहाजासोया और प्रदीप कुमार में लिखा और भारत शंकर ने संगीतबद्ध किया है। बहुत दिनों बाद आपको किसी भारतीय फिल्म में सार्थक बोल और सार्थक धुन सुनने को मिलेगा, वहीं पर्श्वध्वनी भी अनूठा है और जहां तक सवाल अभिनेताओं का है तो मंडेला के रूप में योगी बाबु का भोलापन और चालाकी दोनों दिल जीत लेती और अपने डीलडौल से उन कठपुतलियों के मुंह पर तमाचा भी मारती है जो अभिनय का अर्थ डोले बनाना और डांस स्टेप्स व फाईट सीन अच्छे से अभिनीत कर लेना भर मानते हैं। अन्य भूमिकाओं में शीला राजकुमार, संगिल मुरुगन, जी एम सुंदर, कन्ना रवि, सेंथि कुमारी, जौर्ज मार्यान समेत सभी अपनी-अपनी भूमिका में सही और सार्थक हैं। सादगी के साथ ग्रामीण जीवन का सही चित्रण इस फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त है और इसलिए माडोने आश्विन की यह पहली फिल्म सार्थक और शानदार है और भविष्य में उनसे इसी प्रकार के और बेहतर सिनेमा की उम्मीद बांधती है।
फिल्म ‘मंडेला’ नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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