कला का एक सामाजिक दायित्व है और अगर कोई कला शोषण, दमन, झूठ, फरेब, अन्याय के ख़िलाफ़ नहीं खड़ी है; इंसान के भीतर सत्य, सुंदर, कोमल और मानवीय भावना का प्रसार नहीं करती तो वह केवल एक व्यापार, आत्मप्रचार, आत्मप्रवंचना, आत्ममुग्धता से ज़्यादा कुछ ख़ास नही है। एक कलाकार होने के नाते राजनैतिक रूप से सही होना एक बेहद ज़रूरी शर्त है, यह किसके पक्ष और किसके विपक्ष में होगा इससे कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। सत्ता, विपक्ष, नफ़ा, नुक़सान सोचना व्यापारियों का काम है, कलाकारों का नहीं! माना कि कलाकार बिरादरी कुछ ख़ास और तात्कालिक रूप से फौरन बदलाव नहीं ला सकते लेकिन कम से कम बात तो कर ही सकते हैं, मांग तो रख ही सकते हैं, अपने चिंतन और व्यवहार में उसे स्थान तो दे ही सकते हैं, आस्था और कुतर्क का दामन छोड़के तर्क और सत्य का पक्ष तो ले ही सकते हैं।
कलाकार होने की कुछ बेहद ज़रूरी शर्तें हैं, कुछ कर्तव्य और ज़िम्मेदारी-जवाबदेही हैं, अगर उसका अनुपालन नहीं हो रहा तो वो व्यक्तिगत नफ़ा-नुक़सान और दिखावे की क़वायत का व्यापार मात्र है, जो अपने अहम और ज़रूरतों मात्र के लिए कला का इस्तेमाल भर कर रहा है। ऐसी कला और ऐसे कलाकार से समाज दूषित होता है, सभ्य और सुंदर नहीं। कला जितने प्रभाव से लोगों की सांस्कृतिक रूचि का स्तर ऊंचा उठाने में मददगार होता है उतने ही प्रभावशाली ढंग से वो लोगों की रुचि को भ्रष्ट भी करने की ताक़त रखता है। इटली के नाटककार, अभिनेता और रंग-चिन्तक दारियो फो साफ़-साफ़ कहते हैं कि “वो रंगमंच, वो साहित्यिक और कलात्मक कृति जो अपने समय की आवाज़ नहीं बनती, उसकी कोई उपयोगिता नहीं है।”
ऐसे समय में जब पूरी दुनियां एक महामारी की चपेट में आकर घरों में क़ैद होने को अभिशप्त हो गई है, लोग अपनी रोज़ी-रोटी को लेकर चिंतित और भ्रमित हैं। वहीं दुनियाभर की सरकारें वो सारे काम कर रहीं हैं जो कम से कम शायद फ़िलहाल तो उन्हें नहीं ही करना चाहिए। भय, नफ़रत और मूढ़ता की खेती चरम पर है, असल मुद्दों को भटकाने के लिए रोज़ बेमतलब के मुद्दों को उछाला और बहसें कराई जा रही हैं और दुनियाभर की तमाम सत्ताएं निरीह और शातीराना व्यवहार सी करती नज़र आ रही है, मूढ़, अज्ञानी और चारण बन जाने को सकारात्मक होना बताया जाने लगा हो, ठीक ऐसे वक्त में मानवता के महान नायक चार्ली चैप्लिन को उनके सही अर्थों और समझ के साथ याद करना और उनकी कला से देश, दुनिया और समाज को रूबरू करवाना भी एक बेहद ज़रूर काम हो जाता है।
चार्ली कहते हैं – “मनुष्य एक व्यक्ति के रूप में प्रतिभाशाली है लेकिन भीड़ के बीच मनुष्य एक नेतृत्वहीन राक्षस बन जाता है, एक महामूर्ख जानवर जिसे जहां हांका जाए वहां जाता है।” यह चैप्लिन के उन महत्वपूर्ण कथनों में से एक है जिसकी उपयोगिता आज भी जस की तस है, क्योंकि इंसान को भीड़ में परिवर्तित करनेवाली शक्तियां आज पुरज़ोर सिर उठा रहीं हैं।
चैप्लिन मतलब कि विश्व सिनेमा का एक अभिनेता, लेखक, निर्देशक, संपादक, संगीतज्ञ अर्थात बहुमुखी प्रतिभावाला इंसान जिसकी कला केवल आनंदित करनेवाला कल्पनालोक नहीं रचता बल्कि उनके कलात्मक चिंतन में समाज और सर्वहारा आवाम हमेशा प्रखर रूप से रहा और जब भी ज़रूरी हुआ उन्होंने अपनी कला और विचार से हमेशा ही हस्तक्षेप किया। चैप्लिन साफ-साफ लिखते हैं – “मैं लोगों के लिए हूं, इसका मैं कुछ नहीं कर सकता।” अब यह लोगों के लिए होना और लोग मेरे लिए हैं के बीच अंतर समझना भी एक ज़रूरी काम है। यह समझ लिया जाए तो शायद बहुत बड़ी समस्या हल हो जाए।
शुरुआत में हम इन्हें और इनकी कला को केवल हास्य के रूप में लेते हैं लेकिन जैसे-जैसे हमारी समझ बढ़ती है, हम इनकी कला के भीतर व्यापत कटाक्ष, दुःख, दर्द, पीड़ा, चिंता, व्यंग्य, विडम्बना और विचारों से आत्मसात होने लगते हैं। उनकी पूरी कला के चिंतन में शुरू से ही आम इंसान रहा है। वही आम इंसान जो अपनी मेहनत के बल पर दुनिया को खड़ा रखता है लेकिन पूंजी से संचालित यह दुनिया इसे इसका हक़ नहीं देती, उसकी सबसे कम परवाह करती है और जब काम पूरा हो जाता है तो इसे दूध में पड़ी मक्खी की तरफ निकालकर बाहर फेंक देता है। इसी दुनियां के लिए कवि लिखता है – ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
चार्ली ने पूरी ज़िंदगी एक ऐसे चरित्र को निभाया जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं लेकिन पाने के लिए पूरी दुनियां है और जो अपार से अपार कष्ट में भी मानवता का दामन नहीं छोड़ता। लेकिन शायद इसे कुछ पाना भी नहीं है, कम से कम भौतिक रूप से तो नहीं ही बल्कि यह अपनी अल्ल्हड़पन और फक्कड़पन में ही मस्त है और कभी जाने-अनजाने धूर्तता दिखाई भी तो दूसरे ही पल उससे ज़्यादा ज़िम्मेदार और मानवीय बनकर उभर आया। उनकी प्रसिद्ध फिल्म द किड को कौन भूल सकता है, जहां एक अनाथ बच्चे को पालने के लिए ख़ुद एक मासूम बच्चे जैसा उनका चरित्र क्या-क्या न करता है। जिसे अंत में विलासिता भी मिलती है तो वहां से निकलकर वो आराम से अपनी छड़ी फटकारते इस विचार के तहत निकल पड़ता है कि “सबसे दुःखद चीज़ जिसकी मैं कल्पना कर सकता हूं वो है विलासिता का आदी हो जाना।” इसी विलासित का मज़ाक वो द गोल्ड रश में बनाते हैं जहां इंसान धन-संपदा की प्राप्ति के लिए जानवर से भी नीचे गिर जाने को तैयार है। जहां एक इंसान दूसरे इंसान को मुर्ग़ा दिखने लगता है और उस फिल्म में जूता पकाने और उसे खाने का वो त्रासदियों भर दृश्य आज भी विश्व सिनेमा की एक अनमोल धरोहर है।
कौन भूल सकता है कि जब दुनिया औद्योगिकरण और साम्राज्यवाद की चपेट में आकर किसानों को मजदूर और मजदूर को मजबूर के रूप में परिवर्तित कर रहा था और सनकी लोगों के सनक से उपजी विश्वयुद्ध के कारण बेरीज़गारी से जूझने को अभिष्पत हो गए थे तो एक चीत्कार के रूप में उन्होंने द मॉडर्न टाइम्स को परिकल्पित करके अपना प्रतिकार दर्ज़ किया। दुनियां जब तानाशाहों के चरणों में लोट-लोटकर अराधना करने में व्यस्त थी तब चार्ली चुप होकर ख़ुद को बचाने की चेष्टा में लीन होने या सत्ता की चापलूसी करने के बजाए अपनी कला से प्रतिकार रचते हुए कह रहे थे – “तानाशाह खुद को आज़ाद कर लेते हैं, लेकिन लोगों को गुलाम बना देते हैं।”
एक तानाशाही विचार कितना मूढ़तापूर्ण और हास्यास्पद होता है इसका साक्षात चित्रण आज भी पूरी दुनियां द ग्रेट डिक्टेटर के रूप में देखती है। जहां वो घोषणा करते हैं – “इंसानों की नफरत ख़तम हो जाएगी, तानाशाह मर जायेंगे, और जो शक्ति उन्होंने लोगों से छीनी वो लोगों के पास वापस चली जायेगी और जब तक लोग मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी ख़त्म नहीं होगी।” इस फिल्म में उनका वक्तव्य आज एक महागाथा है, जब वो सकुचाते हुए मानवता की गाथा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं – “माफ कीजिए, लेकिन मैं सम्राट बनना नहीं चाहता। यह मेरा काम नहीं है। मैं किसी पर हुकूमत नहीं करना चाहता, किसी को हराना नहीं चाहता। बल्कि मैं हर किसी की मदद करना पसंद करूंगा। युवा, बूढ़े, काले, गोरे सभी की। हम सब एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं। इंसान की फितरत ही यही है। हम सब साथ मिल कर ख़ुशी से रहना चाहते हैं, ना कि एक दूसरे की परेशानियां देखकर खुश होना। हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं चाहते। इस दुनिया में हर किसी के लिए गुंजाइश है और धरती इतनी अमीर है कि सभी की जरूरतें पूरी कर सकती है।
ज़िंदगी जीने का तरीका आज़ाद और ख़ूबसूरत हो सकता है, लेकिन हम रास्ते से भटक गए हैं। लालच ने इंसान के ज़मीर को जहरीला बना दिया है। दुनिया को नफ़रत की दीवारों में जकड़ दिया है। हमें मुसीबत और ख़ून-ख़राबे की हालत में धकेल दिया है। हमने रफ़्तार विकसित की है, लेकिन खुद को उसमें बंद कर लिया। मशीनें बेशुमार पैदावार करती हैं, लेकिन हम कंगाल हैं। हमारे ज्ञान ने हमें पागल बना दिया है। चालाकी ने कठोर और बेरहम बना दिया है। हम सोचते ज्यादा हैं और महसूस कम करते हैं। मशीनों से ज़्यादा हमें इंसानियत की ज़रूरत है। होशियारी कि जगह हमें नेकी और दयालुता की जरूरत है। इन ख़ूबियों के बिना ज़िंदगी हिंसा से भर जाएगी और सब कुछ खत्म हो जाएगा।
हवाई जहाज़ और रेडियो जैसे अविष्कारों ने हमें एक दूसरे के करीब ला दिया। (आजकल इंटरनेट, टीवी आदि) इन खोजों की स्वाभाविक प्रवृत्ति इंसानों से ज्यादा शराफत की मांग करती है। दुनिया भर में भाईचारे की मांग करती है। इस समय भी मेरी आवाज़ दुनिया भर में लाखों लोगों तक पहुंच रही है, लाखों निराश-हताश मर्दों, औरतों और छोटे बच्चों तक, व्यवस्था के शिकार उन मासूम लोगों तक, जिन्हें सताया और कैद किया जाता है। जो मुझे सुन पा रहे हैं, मैं उनसे कहता हूं कि नाउम्मीद ना होइए। जो बदहाली आज हमारे ऊपर थोपी गयी है, वो लोभ-लालच का, इंसानों की नफ़रत का नतीजा है। लेकिन एक न एक दिन लोगों के मन से नफरत ख़त्म होगी ही। तानाशाह ख़त्म होंगे और जो सत्ता उन लोगों ने जनता से छीनी है, उसे वापस जनता को लौटा दिया जाएगा। आज भले ही लोग मारे जा रहे हो, लेकिन उनकी आज़ादी कभी नहीं मरेगी।
सिपाहियो! अपने आप को धोखेबाजों के हाथों मत सौंपो। उन लोगों को जो तुमसे नफ़रत करते हैं, तुम्हें गुलाम बनाकर रखते हैं। जो तुम्हारी ज़िंदगी के फैसले करते हैं। तुम्हें बताते हैं कि तुम्हें क्या करना है, क्या सोचना है और क्या महसूस करना है। जो तुम्हें खिलाते हैं, तुम्हारे साथ पालतू जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं। अपने आप को इन बनावटी लोगों के हवाले मत करो। मशीनी दिल और मशीनी दिमाग वाले इन मशीनी लोगों के हवाले। तुम मशीन नहीं हो! तुम पालतू जानवर भी नहीं हो! तुम इंसान हो! तुम्हारे दिलों में इंसानियत के लिए प्यार है।
तुम नफरत नहीं करते! नफरत सिर्फ वो लोग करते हैं जिनसे कोई प्यार नहीं करता, सिर्फ अप्रिय और बेकार लोग। सैनिकों, गुलामी के लिए नहीं, आज़ादी के लिए लड़ो। ” आज यह वक्तव्य मानवता की महागाथा है, जिसे आज का मानव जितना जल्दी समझ ले और अनुपालन करे, उतना ही अच्छा है।
चार्ली एक ऐसे विचारक कलाकार के रूप में उभरकर दुनिया के सामने आते हैं जिनके बारे में लिखने और लिखते रहने के लिए एक ज़िंदगी कम है। उनका जीवन और उनकी एक-एक फिल्मों का एक एक फ्रेम पर कई कई बातें हो सकतीं है। चार्ली अपने आप में एक पूरा सार्थक और कलात्मक स्कूल हैं। वो शायद विश्व के एकलौता कलाकार है जो दोषरहित है, परिपूर्ण है और जिसने दुनियां को यह बताया कि एक कलाकार क्या हो सकता और अपनी कला में दक्षता हासिल करके वो क्या रच सकता है। चार्ली अपने मासूम चेहरे, सुनी और गहरी आंखे, अल्हड़, फ़क़ीर और मस्तमौला चरित्र व मूकता के माध्यम से मानवता की जो महागाथा रच गए, वो न केवल दर्शनीय है बल्कि अनुकरणीय भी। चार्ली यह बात भलीभांति जानते थे कि लोग शब्द भले ही न पकड़ पाएं लेकिन भाव सबको समझ में आता है. लेकिन आज हम कैसे वक्त में जी रहे हैं जहां हम शब्दों के मुरीद हो गए हैं और भाव से हमारा दूर-दूर का कोई नाता ही नहीं बचा है. यह कितना ख़तरनाक हो सकता है, शायद इसका किसी को अंदाज़ा ही नहीं है.
सिनेमा की शुरुआत में ही फ़्रान्सीसी दर्शनिक बर्गसन ने कहा था कि “मनुष्य की मस्तिष्क की तरह ही कैमरा काम करता है। मनुष्य की आंखे इस कैमरे की लेंस हैं। आंखों से लिए गए चित्र याद के कक्ष में एकत्रित होते हैं और विचार की लहर इन स्थिर चित्रों को चलायान करती हैं। मेकैनिकल कैमरा और मानवीय मस्तिष्क के कैमरे के बीच आत्मीय तादात्म्य बनने पर महान फ़िल्म बनती है।” तात्पर्य यह कि एक कलाकार को वैचारिक और बौद्धिक स्तर पर भी समृद्ध होना पड़ेगा तभी वो महान कला का सृजन कर सकता है केवल तकनीक की जानकारी मात्र से कुछ ख़ास हासिल नहीं होनेवाला और चार्ली इस कला में माहिर थे। वो एक समृद्ध व्यक्तित्व थे और यह समृध्दि किताबी नहीं बल्कि व्यवहारिक और यथार्थ जगत की कड़वी धरातल से उपजी थी। वो मानवीय चेतना के सच्चे चितेरे थे लेकिन इस अजब-गजब दुनियां की रीत भी निराली है। कलाकार अपना काम कर रहा होता है और दुनियां अपनी ही दुनियादारी में मगन रहती है। जिस चार्ली ने यह कहते हुए दुनियां में केवल खुशी ही बांटी कि “मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी किसी के दर्द की वजह नहीं बनेगी।” उसी चार्ली की शव उनकी कब्र से तीन महीने बाद ग़ायब हो जाता है और ग़ायब करनेवाले ने उनके शव के कॉफिन लौटाने के लिए 6 लाख स्विस फ्रैंक्स की मांग करता है। तभी तो चार्ली इस दुनियां को मक्कार और बेरहम कहते हुए कहते हैं – “ये बेरहम दुनिया है और इसका सामना करने के लिए तुम्हे भी बेरहम होना होगा।” ग़ालिब ने भी शायद सही ही कहा है –
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
वैसे त्रासदी शायद महान कलाकारों की नियति है। मोज़ार्ट, ग़ालिब, काफ़्का, रिल्के, गुरुदत्त, मीना कुमारी जैसे अनगिनत नाम त्रासदियों के बीच रचनात्मक बने रहे। खुद चार्ली का जीवन भी तो त्रासदियों का महासागर ही रहा। यह त्रासदी चार्ली की फिल्मों में भी किसी ना किसी रूप में विद्दमान है। पूरी दुनियां अमूमन चार्ली को हास्य के लिए जानती है लेकिन चार्ली ने खुद अपने लिए जो चरित्र गढ़ा वो अभाव और त्रासदी का ही काव्यात्मक सिनेमेई कलात्मक स्वरुप नहीं तो और क्या है? शायद तभी चार्ली यह कहते हैं कि “असल में हंसी का कारण वही चीज़ बनती है जो कभी आपके दुख का कारण होती हैं।” अपने दुःख से लोगों को ख़ुशी पहुंचाना कोई चार्ली से सीखे। वैसे भी जीवन त्रासदी और कॉमेडी का मिला जुला रूप है। चार्ली शायद सच ही कहते हैं – “ज़िंदगी करीब से देखने में एक त्रासदी है और दूर से देखने में कॉमेडी।” यह सूफ़ियाना अंदाज़ है और हर सच्चा कलाकार दिल से सूफी संत ही होता है, वैसे कलाकार और कला के नाम पर धोखेबाज़ों और धंधेबाज़ों की भी न पहले कोई कमी थी और न आज है।
एक सच्चा कलाकार दुनियां में रहते हुए भी दुनियां से अलहदा होता है। उसमें भीड़ में भी अकेले खड़े होने का माद्दा और आदत होती है। वो अपनी कला को प्रथम स्थान पर रखता है ना कि व्यवसाय को। गुरुदत्त के सामने भी साहब बीबी और गुलाम के दौरान फिल्म के अंत को बदलने का दवाब था लेकिन गुरुदत्त ने आखिरकार कला के रास्ते को चुना। ऐसे लोग सही-ग़लत से ज़्यादा सच की परवाह करता है। कलाकार होने की कुछ शर्तें होतीं है। अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “कला की ज़रूरत” में कला मर्मज्ञ अर्न्स्ट फिशर लिखते हैं – “कलाकार होने के लिए अनुभव को पकड़ना, उस पर अधिकार करना, उसे स्मृति में रूपांतरित करना, और स्मृतियों को अभिव्यक्ति में, वस्तु को रूप में रूपांतरित करना आवश्यक है। कलाकार के लिए भावना ही सबकुछ नहीं है, उसके लिए निहायत ज़रूरी है कि वो अपने काम को जाने और उसमें आंनद ले; उन सारे नियमों को समझे, उन तमाम कौशलों, रूपों और परिपाटियों को समझे, जिनसे प्रकृति रूपी चंडिका को वश में किया जा सके। वह आवेग जो कलाप्रेमी को ग्रस लेता है, सच्चे कलाकार की सेवा करता है। कलाकार उस आवेग रूपी वन्य पशु के हाथों क्षत-विक्षत नहीं होता, बल्कि उसे वाश में करके पालतू बनाता है।”
चार्ली का बचपन बड़ा ही कष्टप्रद बीता था। मां-बाप के होते हुए भी वो अनाथालय में पलने को अभिशप्त थे। मां-बाप अलग हो चुके थे। मां पागलखाने में भर्ती थी। अमूमन आदमी अपने बचपन को बड़े ही रोमांस के साथ याद करता है लेकिन यदि इस्मत चुग़तई के शब्दों में कहें तो “बचपन जैसे-तैसे बीता। यह कभी पता न चला कि लोग बचपन के बारे में ऐसे सुहाने राग क्यों अलापते हैं। बचपन नाम है बहुत सी मजबूरियों का, महरुमियों का।” (इस्मत की आत्मकथा – कागज़ी है पैरहन) शायद बचपन की इन्हीं अनुभूतियों को कलात्मकता के साथ चार्ली अपनी फिल्म द किड में जगह-जगह प्रस्तुत कर रहे थे। यह फ़िल्म एक ऐसे बच्चे की कथा कहती है जिसे मां-बाप त्याग देते हैं।
चार्ली अपनी फिल्मों में अद्भुत विम्बों का प्रयोग करते हैं। अगर आपने उनकी फिल्म द किड देखी हो तो याद कीजिए फ़िल्म का पहला ही शॉट, आपको चार्ली की अद्भुत परिकल्पना का अंदाज़ा स्वतः ही हो जाएगा। फ़िल्म इस टाइटल से शुरू होती है – A picture with smile – and perhaps, a tear अर्थात् चार्ली आंसू और मुस्कुराहट को एक साथ मिलाकर सिनेमा बना रहे हैं। वैसे भी एक ही बात किसी के लिए ट्रैजडी होती है तो किसी के लिए कॉमेडी। सड़क पर चलता हुआ आदमी केले के छिलके पर पैर पड़ने से फिसलकर गिर पड़ता है और देखनेवाले मुस्कुरा देते हैं। गिरनेवाले के लिए यह ट्रेजडी है लेकिन देखनेवाले के लिए कॉमेडी। कोई भी कला एक रेखकीय अच्छी नहीं लगती बल्कि उसे एक वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसमें कई जड़ें, तना, पत्तियां और फूल आदि होते हैं। वैसे भी फ़िल्म केवल संवाद या कहानी फ़िल्माने की कला नहीं है बल्कि वो अपने चलती फिरती इमेज के साथ ही साथ कई अन्य बिंबों, प्रतीकों के के माध्यम से किसी अच्छी फ़िल्म को महाकाव्य में परिवर्तित करती है। चार्ली के सिनेमा का एक-एक फ्रेम बहुआयामी है।
द किड में किसी चैरिटी हॉस्पिटल से अपने नवजात शिशु को लेकर एक मां निकलती है। एक दोराहे पर आके खड़ी हो जाती है फिर एक तरफ चल देती है और अगले शॉट में यीशु मसीह अपनी पीठ पर क्रॉस लादे दिखाते हैं। अब इन दोनों इमेज से चार्ली क्या कहना चाहते हैं यदि यह समझ में नहीं आया तो हम चार्ली की कोई भी फ़िल्म देखने के लिए अभी नादान हैं। हमें कला का असली आनंद लेने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित होना ही होगा वरना तो टके सेर भाजी और टेक सेर खाजा वाली बात ही होगी। द किड एक बच्चे को पैदा करने और पालनेवाले की कहानी है। जिसे महाभारत कृष्ण और कर्ण तथा बर्तोल्त ब्रेख़्त खड़िया के घेरे, भिखारी ठाकुर दूसरे तरीक़े से गबरघिचोर नाटक के माध्यम से उठाते हैं और चार्ली चैप्लिन चुपचाप वो कथा बड़ी ही शालीनता से कहते हैं; वो भी बिना ज़रूरत से ज़्यादा निर्णायक हुए। यह सब उस सोच से अलग है जहां स्थिति, समस्या और फिर उसका समधान की अवधारणा अवतरित होती है।
द गोल्ड रस में सोने की खोज में बर्फीले तूफ़ान में फंसे भूख से बिलबिलाते दो लोग। कोई चारा ना देखकर अन्तः जूता पकाया जाता है और उस पके जूते को खाया भी जाता है। विश्व सिनेमा में यह दृश्य अद्भुत और अनमोल है और इस दृश्य को अपनी लेखनी, निर्देशन, कल्पनाशीलता, प्रतिभा और अभिनय से रचा है चार्ली चैपलिन ने। सन 1925 में लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म है द गोल्ड रश। यह दृश्य विश्व सिनेमा में एक क्लासिक का दर्जा ना जाने कब का हासिल कर चुका है। वैसे इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिसकी नक़ल आजतक हो रही है। वैसा ही एक दृश्य है तूफान में कॉटेज का एक खाई के पास जाकर अटक जाना। इस दृश्य को अभी हाल ही में हिंदी फिल्म वेलकम में देखा जा सकता है। वैसे दुनिया में आज भी वैसे कलाकारों की कोई कमी नहीं जिनकी दाल-रोटी की वजह चार्ली चैप्लिन हैं।
चार्ली चैपलिन अपनी कला में दोषहीनता के लिए भी जाने जाते थे। वो अपनी फिल्मों के फिल्मांकन से तब तक संतुष्ट नहीं होते जब तक की वो दृश्य ठीक वैसे ही फिल्मा नहीं लिया जाता जैसा कि उन्हें ने अपनी कल्पना में उसे सज़ा रखा है। जैसे कहते है न कि सबसे ख़तरनाक है सपनों का मर जाना!(पाश) उससे भी ज़्यादा मुश्किल काम है अपनी कल्पनाओं को कला में साकार रूप देना। इसके लिए उन्हें जितनी भी मशक्कत करनी होती, जितना भी ख़र्च करना पड़ता – वो अवश्य ही करते। वैसे भी जैसे-तैसे कला की रचना नहीं होती और समझौतावादी और विशुध्द व्यवसायिक नजरिया तो कला का दुश्मन ही है। फिल्म सबसे पहले एक कला है उसके बाद कुछ और। हमें कला को समझने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित भी होना पड़ेगा नहीं तो हम कला के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार होकर रह जाएगें।
वो फिल्मों का शुरूआती दौर था और फ़िल्में आज की तरह डिजिटल नहीं थी और ना ही तकनीक के स्तर पर आज जैसा उन्नत ही। फिर भी चार्ली ने अपनी फिल्मों हर प्रकार से जिस तरह के प्रयोग किए वो आज भी कई फिल्म बनानेवालों के लिए एक प्रेरणाश्रोत से कम तो कताई ही नहीं है। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में बिना शब्द के सबकुछ महसूस करवा और कह देने की क्षमता रखतीं हैं और पर्दे पर जब चार्ली बोले भी तो क्या ख़ूब बोले। चार्ली कहते हैं – “हम सोचते बहुत हैं और महसूस बहुत कम करते हैं।”
चार्ली की फिल्म द गोल्ड रश दो भागों में आगे बढती है। पहला भाग सोने की तलाश में बर्फ के तूफानों में भटकते इन्सान रूपी जीव हैं तो दुसरे भाग में मज़ाक से शुरू हुआ एक प्रेम कहानी। चार्ली एक सामान्य अच्छे सकारात्मक और मानवीय आदमी के चित्रण के चितेरे हैं। ऐसे चरित्र का चित्रण आसान काम कभी नहीं रहा। यही कोशिश अपने महानतम उपन्यास बौड़म में करते हुए महान रुसी लेखक दोस्तोयेव्स्की लिखते हैं – “इस उपन्यास के विचार को मैं कब से अपने मन में संजोये रहा हूं, पर यह इतना कठिन था कि बहुत समय तक उसे हाथ लगाने का मुझे साहस नहीं हुआ। उपन्यास का मुख्य विचार सकारात्मक रूप से एक बहुत अच्छे इंसान का चित्रण करना है। दुनियां में इससे कठिन कोई दूसरा काम नहीं है; विशेष रूप से इस समय। जो सुन्दर है वह एक आदर्श है, और उसका अभी तक पूरा विकास नहीं हुआ है।”
चार्ली इस सुन्दरता और सादगी को कैमरे में बड़ी ही शालीनता व कुशलता से कैमरे में कैद कर रहे थे, जिसे प्रस्तुत करना आजतक लोगों के लिए एक चुनौती बना हुआ है, बाक़ी सत्यम, शिवम, सुन्दरम का जाप तो अनगिनत काल से चल ही रहा है लेकिन काश जाप मात्र से संताप मिट पाता! चार्ली हिरोपंथी से परे सरलता और सहजता के कलाकार हैं। उनका नायक मानवीय दुःख-तकलीफ, खूबियां-ख़ामियों से लैश है। अमूमन उन्हें हास्य का मास्टर माना जाता है लेकिन उनकी फ़िल्में देखते हुए यह एहसास आसानी से होता है कि वो हास्य प्रस्तुत करते हुए हास्यास्पद नहीं होते और बड़ी ही कुशलता से हास्य में कभी करुणामय का अंश जोड़ देते हैं, तो कभी व्यंग का, तो कभी कोई और रस उसमें जुड़ जाता है और ऐसा करते हुए वो हमेशा संवेदशील बने रहते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद अगर बड़े गौर से देखिए तब पता चलता है कि एकांत भी उनकी फिल्मों का एक ज़रूरी अंग रहा है। जैसे वो बार-बार यह याद दिला रहे हों कि इस दुनिया के उथल-पुथल के बीच भी इंसान कहीं न कहें अकेला ही है। याद कीजिए फिल्म द गोल्ड रश का वह दृश्य जब नायिका के मज़ाक को सच समझकर चार्ली अकेले नए साल के भोज का प्रबंध करते हैं और फिर इंतज़ार की घड़ियों में सपनों में खो जाते हैं और जब सपना टूटता है तब वो इस यथार्थ जगत में अकेले हैं – नितांत अकेले। यह अकेलापन किसी भी सृजनशील कलाकार का नितांत अपना होता है। इसी अकेलेपन में वो निराशा होता है, रोता है, कुढ़ता है, चिंतन करता है, सपने देखता है और रचनाशील भी होता है। गौतम भी इसी एकांत की वजह से बुद्ध बने। प्रसिद्द जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के कहते हैं – “अपने एकांत को प्यार करो और उसकी उपजाई पीड़ाओं के बीच भी मगन रहना सीखो।” स्वयं चार्ली चैपलिन भी कहते हैं – “जीवन अद्भुत और रोमांचक बनेगा अगर लोग आपको अकेला छोड़ दें तो।” लेकिन आज हालात यह है कि एकांत होकर भी शायद ही कोई अकेला हो पाता है। अपने इन्द्रियों पर बुद्ध की तरह वश में कर पाना हर किसी के वश की बात भी नहीं है। इंसान जहां साधन बन जाने को अभिशप्त है वहां साधना का न मौसम है और ना ही माहौल और ना ही मिजाज़। पूंजीवादी समाज तो इन्सान को समूह से काटकर तमाम भौतिक चीजों के बीच एकांत में पटक देने के लिए कुख्यात है ही लेकिन यह एकांत भयानक है, सृजनात्मक नहीं। यहां पैसा ही भगवान होता है और इन्सान इस पैसे को किसी भी तरह अपने वश में कर लेना चाहता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसी पैसे के पीछे भागते हैं – अपनी जान और सेहत की परवाह किए बगैर। यहां मानवता और मानवीय संवेदना का कोई ख़ास महत्व नहीं होता। चार्ली की फिल्म द गोल्ड रश याद कीजिए। प्रतिकूल परिस्थियों की परवाह किए बैगैर सोने की खोज में लोग हजारों की संख्या में बर्फीले बियाबान में अपना लाव-लश्कर लेकर निकल पड़े हैं। सबको किसी ना किसी प्रकार वहां पाया जानेवाला सोना चाहिए। इस सोने के लिए एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या तक करने से नहीं चूकता। पहले ही शॉर्ट में सोने की तलाश में लम्बी कतार में जा रहा एक इंसान दम तोड़ देता है लेकिन किसी भी दुसरे इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और वो सोने की तलाश की अपनी यात्रा चालू रखता है। आगे लगभग आधे घंटे तक फिल्म में इंसान तो हैं लेकिन इंसानियत का कहीं नामोंनिशान तक नहीं। वहां है तो केवल सोना पा लेने की पूंजीवादी भूख। यह तब होता है जब इंसान इंसान न रहकर भौतिकता का गुलाम हो जाए, फिर उसे केवल माल और मुनाफ़ा दिखता है, इंसान और इंसानियत नहीं।
इन्सान बाकी जीवों से इतर इसलिए नहीं है कि उसकी बनावट अलग है बल्कि इतर इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर बुद्धि और विवेक नामक अतिसंवेदनशील और अनमोल चीज़ का निवास होता है। एक संवेदनशील इंसान की दुनियां केवल अपने और अपनों तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाहित होता है। वो कहा भी गया है कि इंसान एक वैश्विक प्राणी है। लेकिन जब इंसानियत और मानवीय संवेदना से ज़्यादा पूंजी और किसी अलौकिक सत्ता की पूछ हो तो वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित और भयभीत होता है और बाकी सारी चीज़े उसके लिए या तो साधन होता है या फिर साध्य। हालत इस कदर ख़राब हो जाती है कि भूख लगने पर सामनेवाला इंसान भी उसे खाद्य-पदार्थ (मुर्गा) दिखाई पड़ता है। याद कीजिए फिल्म का वह दृश्य जब बर्फीले तूफान में फंसकर भूख से बिलबिलते दो व्यक्ति एक दुसरे को ही संदेह की नज़र से देखने लगते हैं। कौन, कब, कैसे दुसरे की हत्या कर दे – पता नहीं। यह शक, भय से उत्पन्न होता है और भय इतना भयानक होता है कि वो इंसान अपने-पराए तक में भेद नहीं करता। ब्रेख्त की एक एकांकी है – घर का भेदी। उसमें पति-पत्नी हिटलर की तानाशाही प्रवृति को लेकर बहस कर रहे होते हैं कि एकाएक उन्हें अपने एकलौते बेटे पर यह शक हो जाता है कि वो यह बात किसी को बाहर तो नहीं बता देगा। आज हमारे देश में भी ऐसा ही माहौल बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक से एक नकली आदर्श गढ़े जा रहे हैं। एक ख़ास व्यक्ति, वाद, धर्म या पार्टी की आलोचना, सत्ता से असहमति देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया जा रहा है। इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं कि आलोचना या असहमति लोकतंत्र की बुनियाद होती है। यहां विरोध का भी उतना ही महत्व होता है जितना सत्ता पक्ष का। लेकिन जब सत्ता पक्ष विरोधियों को कुचलने या ख़त्म कर देने तथा विरोध पक्ष किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज़ होने की कूटनीति में व्यस्त हो तो वहां लोकतंत्र की पास बिलखने के अलावा कोई और चारा नहीं रहता। आज तानाशाही की चाशनी में लोकतंत्र का फलूदा पकाया जा रहा है और हद तो यह है कि हम सब कोई विकल्प रचने और चीजों को और ज्यादा सुन्दर, कोमल और मानवीय बनाने के बजाए इस फालुदे में ड्राई फ्रूट्स डालने का काम कर रहे हैं। चैप्लिन कहते हैं – “आपको शक्ति (पॉवर) की तभी जरूरत होती है जब आप किसी को नुकसान पहुंचाना चाहे, अन्यथा प्यार काफी है हर काम को करने के लिए।”
चार्ली चैप्लिन का वर्ष 1889 से 1977 (सर चार्ल्स स्पेंसर चैप्लीन, जन्म 16 अप्रैल 1889 और मृत्यु 25 दिसंबर 1977) का कालखंड है। इस कालखंड में वैश्विक धरातल पर बहुत कुछ और भी घटित हो रहा होता है। साम्राज्यवाद अपना पैर पसारता है, पूंजीवाद प्रचंड रूप धारण करता है, बाज़ार और उद्योग का विस्तार होता है, सामंतवाद अपना स्वरुप बदलता है और एक नया केंचुल धारण करता है, साम्यवाद का सिद्धांत आता है, फासीवाद का क्रूरतम रूप सामने आता है और दुनिया दो-दो विश्वयुद्धों का साक्षी बनकर चीत्कार उठता है। यह वही काल है जब सिनेमा नामक कला कि शुरुआत होती है और वो विभिन्न-विभिन्न आयामों से गुज़रता हुआ एक लोकप्रिय कला माध्यम बन जाता है, और ख़ुद सिनेमा की भी यात्रा मूक से बोलती और बेरंग से रंगीन तक पहुंचती है। इतने उथल-पुथल भरे समय में अर्थवान हास्य के माध्यम से अपनी बात कहनेवाले चैप्लिन वैश्विक धरातल पर एक अर्थवान नाम बनकर उभरते हैं। चार्ली कहते हैं – “हंसी टॉनिक है, राहत है, दर्द के लिए दर्द निवारक है।” इसका अर्थ साफ़ है कि वो अपनी कला को एक दवा के रूप में भी प्रयोग कर रहे थे, जिसे लोगों का भरपूर समर्थन और सहयोग मिला। वैसे भी किसी भी बात के उभरने या समाप्त होने के पीछे सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक कारण भी कहीं न कहीं सहायक होता है, अपनेआप हवा में कोई बात नहीं होती। वक्त की नज़ाकत को बड़ी नाजुकी से पकड़ने का हुनर और कलाकारी हर किसी के पास नहीं होती, इसलिए लोग सफल या असफल तो हो जाते हैं लेकिन सार्थकता हर किसी के पास नहीं फटकती। फिर व्यक्तिगत दुश्वारियां भी तो हैं जहां हर दूसरा इंसान पहले को कूट-कूटकर पता नहीं क्या बनाना चाहता है। कम से कम वो तो नहीं ही रहने देना चाहता, जो वो है। चार्ली का व्यक्तिगत जीवन कोई ख़ास सुखमय कभी नहीं रहा लेकिन जैसा कि मीर तक़ी मीर लिखते हैं –
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
चार्ली इन पंक्तियों के साक्षात मिसाल हैं। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी को अपनी कला के ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। यह एक दोहरी ज़िम्मेदारी है, कलाकार मन कोमल होता है और दुनिया स्वरुप है क्रूर से क्रूरतम. इन दोनों के सामंजस्य में बड़े-बड़ों की नैया डगमगा जाती है। ख़ुद उनके भी ना जाने कितनी बार सपने टूटे, आशियाना उजड़ा, फरेब और धोका मिला लेकिन उनकी कला हमेशा मानवता और त्याग के पक्ष में पुरज़ोर तरीक़े से खड़ी रही। अपने व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव से उन्होंने दुनियां को नहीं परखा बल्कि खुद शंकर की भांति विष ग्रहण किया लेकिन दूसरों के हिस्से अमृत ही छोड़ा। चार्ली एक स्थान पर यह भी कहते हैं कि “मुझे हमेशा बारिश में घूमना पसंद है, इसलिए कोई मुझे रोता हुआ नहीं देख सकता।” शायद यही है एक सच्चे कलाकार का दायित्व। जो अपना और अपनों के स्वर्थपूर्ती में ही बेचैन रहे वो कलाकार कम मुनाफाखोर व्यापारी ज़्यादा है। वैसे भी एक कलाकार की दुनियां में पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है, जहां उसके व्यक्तिगत सुख और दुःख के लिए बहुत ज़्यादा समय होता नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि कला में व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्तित्व महत्वपूर्ण होता है और एक सच्चे कलाकार को एक सार्थक कला रचाने के लिए सौ प्रतिशत ईमानदारी की आवश्यकता होती है और ऐसा करने के लिए उसे कई बार अपनी कलात्मकता के लिए स्वार्थी भी होना पड़ता है।
बचपन के अलावा चार्ली की फ़िल्में देखते हुए कभी ठहाका लगाया होऊंगा, मुझे याद नहीं आता। हां, एक दृश्य ज़रूर है जिसको याद आते ही मैं नींद में भी मुस्कुरा सकता हूं। वो दृश्य उनकी महानतम फ़िल्म द मॉडर्न टाइम्स में आता है जब वो सुबह उठकर नदी में नहाने के लिए कूदते हैं और पता चलता है कि नदी में पानी ही बहुत कम है। आज सोचता हूं कि बतौर अभिनेता अगर मुझे वो दृश्य करना होता तो क्या मैं कर पाता? और उसका जवाब है – नहीं। चार्ली का कोई भी एक्ट कर पाना बड़े से बड़े अभिनेता और कलाकार के कूबत से बाहर की चीज़ है तो हम जैसों की क्या विसात! चार्ली चैपलिन अभिनय के उस आदर्श का नाम है जहां तक पहुंचने का ख़्वाब एक अभिनेता पालता है, पालना चाहिए।
चार्ली अपने समय से कई सदी आगे के कलाकार हैं। उन्होंने प्रस्तुति से लेकर कथ्य तक में कई ऐसे प्रयोग किए जो आज भी लोगों के लिए एक आदर्श है। उनकी कई फिल्में न केवल आज की फिल्में लगती हैं बल्कि वो आज से आगे की भी फिल्म है। वैसे भी वो कलाकार ही क्या जो भविष्यद्रष्टा ना हो। 1936 में अपनी फ़िल्म मॉडर्न टाइम्स में जिस मशीनीकरण की परिकल्पना उन्होंने की और जिस तरह उसे फिल्माया, वहां तक तो हम आजकल नहीं पहुंच पाए हैं। सन् 1940 में जिस द ग्रेट डिक्टेटर की परिकल्पना चार्ली करते हैं हम आज उस तरफ कुछ कदम ज़रूर बढ़े हैं। अब हम पार्टियों और विचार को नहीं बल्कि व्यक्ति को वोट कर रहें हैं। चाहे प्रधानमंत्री का चुनाव हो, मुख्यमंत्री का या मुखिया का। लोकतंत्र में व्यक्ति को विचार और विचारधारा और पार्टी से ज़्यादा भाव देना एक ख़तरनाक संकेत है और मूर्खता की हद तो यह कि हमें इस पागलपन में आनंद भी आ रहा है। आज एक तरह से पूरी दुनियां में ही अधिनायकवाद की एक ऐसी लहर चल रही है जो विनाशकारी है। यह दुनियां धर्म, जाति, समुदाय के नाम पर एक और विश्वयुध्द नहीं झेल सकती। इस ख़तरनाक प्रवृति से यदि दुनियां को कोई उबार सकता है तो वो हैं हम आम जन। नेतागण तो हमें इस अंधी गली में धकेलकर और झूठे सच्चे ख़्वाब बेचकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लेकिन आम जन में ज्ञान की लौ जलानेवाला समूह आज किस हाशिए पर खड़ा है, मालूम नहीं। वैसे भी यदि लोकतंत्र सुचारू रूप से संचालित नहीं होता तो वहां अराजकता का राज होता है और वहां से तानाशाही प्रवृति का उदय होता है, जो दुनियां को एक ऐसे अंधेरी कोठारी में धकेल देती है जहां अमानवता के पास सिसकने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। ऐसी प्रवृति से हमें सच्चा ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना ही उबार सकता है बशर्ते अफवाहों और झूठे वादे को चीरकर हमारे अंदर सच का सामना करने की हिम्मत हो, ठीक उस हंस की तरह तो दूध में मिले पानी को अलग-अलग करने की क्षमता रखता है। सनद रहे, आस्थाएं अंधी होती हैं। सत्य का मार्ग ज़रा दुर्गम है। लेकिन बिना गहरे पानी में पैठ लगाए मोती हासिल किया भी नहीं जा सकता और जो कलाकार गहरे पैठने से बचे, वो कलाकार कैसा !!! कलाकार कहलाने की कुछ शर्तें और ज़िम्मेदारियां होतीं हैं। कला के क्षेत्र में घुसपैठ करनेवाला हर व्यक्ति कलाकार नहीं होता और ज्ञान संवेदनात्मक नहीं बल्कि ज्ञानात्मक होती हैं।
चार्ली चैप्लिन विश्व के इकलौते कलाकार लगते हैं जिन्होंने अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और संगीत में एक आदर्श स्थापित किया और दुनियां के तमाम अभिनेताओं को यह बताया कि देखो एक अभिनेता अपनी कला से क्या आदर्श रच सकता है। जब पूरी दुनियां विश्वयुद्ध के पागलपन में अंधी हुई पड़ी थी, हर ओर नफ़रत और साज़िश की बू थी, ठीक उसी वक्त एक कलाकार बिना भयभीत हुए अपनी कला से दुनियां को प्रेम, स्नेह, त्याग के साथ हास्य-व्यंग्य का अमृत पिला रहा था। जब पूरी दुनियां हिटलर के आतंक से आतंकित थी और बड़े से बड़ा कलाकार या तो हिटलर की चापलूसी करने में व्यस्त थे या फिर बेदर्दी से मौत के घाट उतारे जा रहे थे ठीक उसी वक्त द ग्रेट डिक्टेटर नामक फ़िल्म बनाकर पूरी दुनियां समेत ख़ुद हिटलर को यह एहसास करवाना कि देखो यह जो तुम दुनियां का मसीहा बनने की कोशिश कर रहे हो दरअसल तुम कितने झूठे और हास्यास्पद हो, यह कोई माज़क की बात नही है।
कट्टरपंथियों की मूल समस्या यह है कि वो अपने मूल रूप को कभी स्वीकार नहीं करते बल्कि जितना संभव है उसे छुपाकर रखने के लिए उन्हें एक अवतारी छवि गढ़ने की ज़रूरत पड़ती है, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि दुनिया का असली मसीहा वही है। इसके लिए वो तरह-तरह के तिकड़मों, रुढ़ियों, मौकापरस्ती और जनता की मासूमियत, अज्ञानता आदि युक्त मूढ़ता का सहारा लेता, इतिहास और वर्तमान की ग़लत व्याख्या बार-बार और ज़ोर-ज़ोर से प्रस्तुत करता है और इस प्रकार वो अपने असली और कट्टर रूप को छुपकर एक नायकत्व का आवरण धारण करता है और इस ज़हर को पुरे समाज में घोल देता है और एक बार जब यह ज़हर घुल जाए तब लोगों को तब तक होश नहीं आता जबतक कि सबकुछ अच्छे से तबाह नहीं हो जाता है। चार्ली अपनी फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर में इसी चेहरे से नक़ाब हटाने का काम करते हैं और ऐसा करते हुए वो बिना भय खाए, कलात्मक रूप से निर्मम और राजनैतिक रूप से सही और मानवीय होते हुए अपनी कला का उत्पादन करते हैं। कहा जाता है कि कट्टरपंथी अपनी छवि को लेकर बड़े सजग होते हैं क्योंकि उनका सारा खेल ही उस नक़ाब के भीतर संचालित होता है। इसलिए वो जिन दो बातों से सबसे ज़्यादा नफ़रत करते हैं, पहला है सही जानकारी और दूसरा है कि कोई उनका मज़ाक बना दे। चार्ली ने द ग्रेट डिक्टेटर में हिटलर का न केवल अच्छे से मज़ाक बनाकर रख दिया बल्कि यह भी दिखाया कि एक सच्चा प्रशासक कैसा होना चाहिए और उसके विचार क्या होने चाहिए। एक तानाशाह जो आज़ादी और अभिव्यक्ति के आगे अपनी पागलपन भरी सोच और हिंसा को रखता है, उसके लिए अपना इतना शानदार मज़ाक बनते हुए देखना बर्दाश्त के बाहर हो जाता है और बात और भी बड़ी और गंभीर तब हो जाती है जब विश्व का सबसे ज़्यादा लोकप्रिय कलाकार, जिसकी दुनियाभर से सबसे ज़्यादा प्रशंसक हों, वो ऐसा कर रहा हो और वो भी मुंह पर। चार्ली इस फिल्म में न केवल हिटलर के आसपास गढ़ी नकली कहानियों और आभामंडल की पोल खोल देते हैं बल्कि साफ़-साफ़ यह दिखाते हैं कि वो केवल एक कुंठित, उदंड और मुर्ख के सिवा और कुछ नहीं है।
हिटलर चार्ली चैप्लिन का फैन था। मान्यता यह भी है कि हिटलर चैप्लिन से प्रभावित होकर ही प्रथम विश्वयुद्ध के बाद चार्ली चैप्लिन जैसी मूंछ रखी थी। जब चार्ली ने द ग्रेट डिक्टेटर बनाई तो हिटलर ने उसे व्यक्तिगत रूप से देखने के लिए फिल्म की एक कॉपी मंगाई और उसे अपने पर्सनल थियेटर टवाइस में देखा। कहा जाता है कि फिल्म देखकर हिटलर बहुत दुःखी हुआ था, ख़ास तौर पर जिस प्रकार उसकी पोल खोली गई थी वो उसे चुभ सा गया था और उसके बाद चैप्लिन का नाम प्रोपगेंडा पुस्तक The Jews Are Watching You में disgusting Jew acrobat के रूप में मोस्ट वांटेड दुश्मनों की लिस्ट में आ गया था। जब यह फिल्म बननी शुरू हुई थी उस वक्त अमेरिका सीधे-सीधे द्वितीय विश्वयुद्ध में कूदा भी नहीं था, चार्ली चैप्लिन चाहते तो अपनेआप को सुरक्षित रखते हुए चुपचाप तमाशा देख सकते थे, लेकिन जब विश्व युद्ध में झोंका जा रहा हो तो उस वक्त कोई सच्चा कलाकार अपनी एक अलग आरामदायक और सुविधाजनक दुनिया में ख़ुद को सुरक्षित कैसे रख सकता है। एक सच्चा कलाकार सच कहने के लिए किसी की परवाह नहीं करता, विश्व के सबसे बड़े और ताकतवर प्रशंसक की भी नहीं। लेकिन यह भी सत्य है कि कलाकारों और अन्य विधाओं में भी मौकापरस्तों की कभी कोई कमी नहीं रही। यहां मौन होकर अपनेआप को सुरक्षित रखने की भी परम्परा है तो मौक़ा देखकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए चारण बनने की भी एक समृद्ध परम्परा है. शायद ऐसी ही बातों को मद्देनज़र दुष्यंत कुमार अर्ज़ करते हैं –
कुछ इस कदर बदहवाश हुए आंधियों में लोग
जो पेड़ खोखले थे उन्हीं से लिपट गए
चार्ली की कला का मूल स्वर हास्य-व्यंग्य है। बहुतेरे लोग जिसमें कुछ पढ़े-लिखे महाज्ञानी भी हैं, हास्य-व्यंग्य को बड़ा ही कमतर आंकते हैं। कुछ तो ज़्यादा भाव ही नहीं देते। शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय होता है और कोई भी व्यक्ति कभी भी हास्यास्पद होना पसंद नहीं करता। मौलियार अपने नाटकों में जब तथाकथित सभ्य लोगों को हास्यास्पद बनाते हैं, तो वो दरअसर शराफत के उस नकली परत को भेद रहे होते हैं जिसे ओढ़कर दोहरी मानसिकता में जीनेवाला समाज खुद को सुरक्षित, सुखी और संपन्न महसूस करता है। हमारे यहां बुद्धिजीवी तबका मुस्कुराने तक से परहेज़ करता है और दुनियां की ऐसी तैसी करते हुए किसी अंदरूनी बीमारी के मरीजों की तरह सड़ा हुआ चेहरा बनाए रखने में ही अपनी विद्वता समझता है। वहीं सामान्य जन की स्थिति यह है कि अवतारवाद के अफीम ने उन्हें ऐसे ग्रस्त लिया है कि वो कभी कोई लोड ही नहीं लेता। उसे तो हर बात में “मनोरंजन” चाहिए, घटिया या सतही ही सही और हास्य-व्यंग्य की स्थिति यह कि हरिशंकर परसाई से ज़्यादा सम्मान और प्रतिष्ठा टीवी पर किसी छिछोरे शो के एंकर का है। अकबर-बीरबल, गोनू झा, तेनालीराम, देवेन मिसिर आदि के किस्सों का मर्म समझना आज भी रहस्य बना हुआ है।
उनकी एक फिल्म द सर्कस एक प्रेम कहानी है। जहां प्रेम का अर्थ किसी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह हीरो या हीरोइन को हासिल कर लेना भर नहीं है बल्कि यहां उसकी ख़ुशी ज़्यादा मायने रखती है जिसे आप प्यार करते हैं। हालांकि, अमूमन भारतीय सिनेमा, सीरियल और ग्रंथ जैसे-तैसे हीरो-हीरोइन को मिलवा या हासिल कर लेने का आदर्श ही स्थापित करते हैं, उसके लिए चाहे उसे कितनी भी हत्या करनी पड़े। पति या प्रेमी अमूमन अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं को व्यक्तिगत संपात्ति से ज़्यादा महत्व नहीं देते। शैलेन्द्र जब हिरामन और हीराबाई की स्नेह कथा तीसरी क़सम बनाते हैं और अंत में हीराबाई शारीरिक रूप में हिरामन से दूर चली जाती है तो वितरक उनसे अंत बदलने को कहते हैं ताकि फ़िल्म का तथाकथित सुखद अंत हो और वितरक इस सुखद अंत को अफीम की तरह दर्शकों में बांट या बेच सकें। जब शैलेंद्र ऐसा नहीं करते तो फ़िल्म ढंग से रिलीज़ तक नहीं होती। वैसे भी एक ऐसे समाज में जो प्रेम की पूजा तो करता है लेकिन व्यवहार में उसकी मानसिकता सामंती और प्रेम विरोधी हो, वहां नकली सुख की ही प्रधानता ज़्यादा होती है। वहां नकली सुख बेचे और खरीदे जाते हैं।
ऐसी दुनियां में अभी से कई दशक पहले चार्ली चैप्लिन नामक यह कलाकार दुनियां के चेहरे पर मुस्कान लाते हुए सच्चे प्रेम का पाठ पढ़ता है। इस पाठ को आज भी पढ़ना और समझना ज़रूरी है। ख़ासकर जब लोग नफ़रत की खेती और ग़लतबयानी करके बड़ी आसानी से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। यह दुनियां नफ़रत और साजिशों की बदौलत नहीं बल्कि प्रेम, स्नेह और प्रकृति की वजह से ख़ूबसूरत है। इसे ख़ूबसूरत बनाना ही मानव और मानवीय कला का एकमात्र उद्देश्य हो सकता है। यह न हुआ तो यह दुनिया सच में एक सर्कस बन जाएगा और जोकर का चरित्र धारण किया हुआ इंसान दरअसल एक मानसिक बीमार होगा जो मुखौटा लगाकर न केवल हिंसक होगा बल्कि अपने आसपास हिंसक जोकरों की एक फौज तैयार कर लेगा और लगातार हत्या करते हुए बेहतरीन का सम्मान भी अपने नाम कर लेगा; और संभव यह भी है कि किसी दिन बहुत ज़्यादा निराश होकर चार्ली की तरह हम भी यह मान बैठे कि “अंत में सब कुछ एक ढ़कोसला है।”
फिल्मची के और आर्टिकल्स यहाँ पढ़ें।
For more Quality Content, Do visit Digital Mafia Talkies | DMT