रचना विष्ट रावत एक किताब लिखती हैं – कारगिल अन्टोल्ट स्टोरी फ्रॉम वार. पुस्तक पेंग्विन भारत से प्रकाशित होती है और पढ़नेवाले इसे बड़े ही स्नेह से पढ़ते हैं. पुस्तक भारतीय वायुसेना की महिला पायलट गुंजन सक्सेना पर केन्द्रित है। ना मैंने वो किताब पढ़ी है और ना ही गुंजन सक्सेना को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और ना ही मेरी इस विषय में कोई रिसर्च किया है, इसलिए इस बारे में कोई राय न देना ही बेहतर है। जानता हूं कि यह बात आजकल के चलन के ख़िलाफ़ जाती है, क्योंकि आजकल हर आदमी हर विषय का विद्वान है और बिना जानकारी के ज्ञान बघारना तो आजकल फैशन में है; बड़े-बड़े लोग इस फैशन में टॉप ट्रेंड कर रहे हैं! जो जितना बड़ा अज्ञानी है, वो उतना बड़ा ज्ञानी है का दौर चल रहा है। चारों तरफ़ मूढ़ता की हरी-हरी फसल लहलहा रही है, जिसे कुछ जंगली पशु चर रहें हैं, लीद रहें हैं, उसके ऊपर उछल-कूद रहे हैं और ज़्यादातर को इसी में आनंद भी आ रहा है। लेकिन ज़माने के साथ चलने का हुनर सबको कहां आता है इसलिए उस बात छोड़कर बात सिनेमा पर आगे बढाते हैं, धर्मा प्रोडक्शन और ज़ी स्टूडियो मिलकर शरण शर्मा के निर्देशन में सिनेमा बनाता है गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल।
कोविड-19 की वजह से सिनेमाघर बंद पड़ जाता है तो फिल्म नेटफ्लिक्स पर आती है। यह फिल्म एक ऐसे वक्त में आती है जब सुशांत सिंह राजपूत के कारण परिवारवाद और इसका और उसका वहिष्कार का मुद्दा (?) ख़ूब ज़ोर बहस में है और अब तो सबकुछ किसी थ्रिलर फिल्म की तरह हो गया है या बना दिया गया है, जिसके निशाने पर धर्म प्रोडक्शन वाले करण जौहर भी हैं, और भी कई नाम तो हैं हीं। बाक़ी ज़ी तो घोषित रूप देशभक्त है ही, उनके बारे में क्या कहना। फिल्म में मुख्य भूमिका में एक तरफ़ बोनी कपूर और श्रीदेवी की बेटी जहान्वी कपूर है तो दूसरी तरफ़ पंकज त्रिपाठी, जो कि विशुद्ध रूप से किसी फिल्मी नहीं बल्कि बिहार के एक मध्यवर्गीय खानदान से आते हैं और उन्होंने जो भी मुक़ाम बनाए हैं, वो उनकी मेहनत और मौक़ा से बना है। अब यहां भी मामला अटक गया कि एक तरफ सितारा बच्चा (Star Kid) जहान्वी है तो दूसरी तरफ़ मिट्ठी की महक से मेहनत के सहारे धीरे-धीरे आगे बढ़े पंकज त्रिपाठी। अब फिल्म छोड़ें कि देखें, महा पेंच! वैसे फिल्म देखने या न देखने का निर्णय इस बात से नहीं होना चाहिए कि कौन किसका रक्त है बल्कि मूल सवाल यह होना चाहिए कि कोई भी सिनेमा, सिनेमा होने की कसौटी पर कितना खरा उतरता है। फिर सिनेमा आते ही वायु सेना ने भी आपत्ति दर्ज़ कर दी कि यह फिल्म उसकी गरिमा के अनुरूप नहीं है! इस पर बहस शुरू हो जाती है, कुछ पक्ष में हैं तो कुछ विपक्ष में, मतलब कि फ़िलहाल मामला यह कि कोविड19 के अलावा बाक़ी सबकुछ बहस में है। इन सबको थोड़ी देर किनारे रखके हम ज़रा सिनेमा की बात कर लेते हैं। उससे पहले एक बात यह कि जीवनीपरक सिनेमा, साहित्य, नाटक आदि बनाना काजल की कोठरी में प्रवेश करने के समान है, जिसमें कितना भी बचाव की चेष्टा कोई कर ले, कहीं न कहीं आस्तीन पर कालिख लगनी ही लगनी है और फिर कलात्मक छूट के नाम पर एक से एक कलात्मक घोटालों को अंजाम दिया गया है, अतीत में ऐसे कई उदहारण भरे पड़े हैं।
हम सबको मालूम है कि गुंजन सक्सेना कारगिल युद्ध में भाग लेनेवाली महिला पाइलट हैं, अब वो पहली महिला हैं या नहीं यह सवाल इतिहास का विषय है और इस बात का इस सिनेमा से कोई ख़ास सरोकार भी नहीं है। गुंजन 1994 में वायुसेना से जुड़ती हैं और 1999 के कारगिल युद्ध में बहादुरी से अपनी भागेदारी करती हैं, जिनकी बहादुरी के लिए उन्हें कुछ सम्मान से भी सम्मानित किया जाता है। अब वो सम्मान कौन-कौन से हैं, फिल्म इसके बारे में भी नहीं है। अब इस फिल्म को लेकर जितनी भी बातें हो रहीं हैं, जब यह फिल्म उसके बारे में है ही नहीं तो फिर है किस बारे में? इसका सीधा सा जवाब यह है कि फिल्म उस बारे में है जिसका सामना हम सब रोज़ करते तो हैं लेकिन हममे से ज़्यादतर लोगों को यह कोई समस्या ही नहीं लगती, मतलब कि फिल्म के केंद्र में लैंगीकता है, पितृसत्तात्मक है, मर्दवाद है, मसल पावर है; जिसके हम इतने ज़्यादा सहज हो गए हैं कि जीवन को जीने का यही सही तरीका ही मान लिया गया है। याद कीजिए, गुंजन बचपन से लेकर पूरी फिल्म में किस बात से लड़ रही है? अगर उसके पिता और ट्रेनर उसके साथ खड़े नहीं होते और उसे बल नहीं देते तो क्या होता? पितृसत्तात्मक सोच हर जगह है, क्या घर और क्या बाहर। घर में उसकी मां और भाई है तो बाहर पूरा समाज! इन सबसे लड़ते लड़ते वो जब भी हारने लगती है तब कोई न कोई आकर उसे संभालता है और वो फिर से उठकर खड़ी हो जाती है।
कई बार तो पूरी तरह से अपने जीवन की दिशा ही बदल देना चाहती है जिससे उसके पिता उसे बाहर निकालते हैं। पिता पुरुष हैं लेकिन उनके भीतर पितृसत्तात्मकता का कोई अंश नहीं है बल्कि वो साफ़ तौर पर मानते हैं कि कोई भी काम चाहे लड़का करे या लड़की, काम काम होता है। याद कीजिए वो दृश्य जब गुंजन के शादी करके एक ख़ुशहाल जीवन बिताने की चाहत को किचन के पराठे बनाने का उदहारण देकर उसके पिताजी उसको टूटने से बचाते हैं। ऐसे अनेकों प्रकरणों से यह फिल्म भरी पड़ी है, जिसे देखना-समझना और अपने-अपने जीवन में लागू करना एक मुश्किल काम है, उनके लिए तो ख़ास तौर पर जिनके मन में कहीं न कहीं पितृसत्तात्मकता का अंश विद्दमान है और इस रोग से आज कहीं न कहीं हम सब पीड़ित हैं, स्त्री-पुरुष सब – कोई कम, कोई ज़्यादा। जो नहीं हैं, उन्हें सलाम। अब सवाल यह बनता है कि क्या भारतीय सेना में कोई भेदभाव है? इसका स्पष्ट जवाब है नहीं। सेना की नियमावली में निश्चित रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा लेकिन इस बात से भी कोई शायद ही इंकार करे कि नियमावली अपनी जगह पर है लेकिन व्यावहारिकता अपनी जगह पर। सेना में भी इसी समाज से लोग जाते हैं तो वो सामाजिक कुरीतियों से पूरी तरह मुक्त होगें, ऐसा पुरे विश्वास से साथ कोई नहीं कह सकता है। फिल्म में लैंगिक भेदभाव के जाने/अनजाने जो भी दृश्य हैं वो अगर सच में गुंजन सक्सेना या किसी भी अन्य महिला के साथ घटित न हुए हों, इससे शानदार बात और क्या हो सकती है। वैसे भी यह फिल्म किसी को बदनाम, छवि ख़राब करने के उद्देश्य से नहीं बल्कि सतर्क करने के लिए है। अगर हम सच में चाहते हैं कि रोग का इलाज़ हो तो हमें सबसे पहले ख़ुद मानना पड़ेगा कि रोग है, इलाज उसके बाद ही शुरू हो सकता है और अगर हम रोग को माने ही नहीं तब तो रोग भी बढेगा और नुक़सान भी। फिल्म का वो दृश्य भी याद कीजिए जब युद्ध में महिला पायलट के विमान उड़ाने को लेकर मिडिया विमर्श शुरू हो जाता है और इज्ज़त का हवाला दिया जाने लगता है कि अगर युद्ध के दौरान वो बंदी बना ली जाती हैं, तो देश की इज्ज़त का क्या होगा! यह इज्ज़त का मसला ऐसा है जिसकी दुहाई देकर पूरी दुनिया भर की स्त्रियां पता नहीं कितनी सदियों से घरों की चारदीवारियों में कैद की गई हैं।
प्रसिद्द स्त्रीवादी चिंतक सिमोन द बुआर का एक कथन है – “उसके पर कुतर दिए गए और फिर उस पर इल्ज़ाम कि वो उड़ना नहीं जानती।”
यह एक ऐसी फिल्म है जो लगभग अच्छे से बनी है और सार्थक भी है। कई बार आपको आश्चर्य भी होता है कि यह सिनेमा के नाम पर हवाई मिठाई बेचनेवाले करण जौहर ने कैसे बना दी, वो भी ज़ी के साथ मिलकर; लेकिन अब क्या करें जो है सो है। बाक़ी जहां तक सवाल OTP के प्लेटफार्म पर देखने और न देखने का है तो आपके किसी एक फिल्म को देखने या म देखने से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता है, वैसे भी इन प्लेटफार्म की कमाई सदस्यता से होती है, किसी ख़ास फिल्म के पसंद और नापसंद से नहीं। इसलिए इसे देख लीजिए, महानतम सिनेमा नहीं है लेकिन ऐसी भी नहीं है कि देखा न जाए। बाक़ी बहसों का क्या है आजकल वैसे भी समय काटने और बहुत सारी ज़रूरी बातों से ध्यान भटकाने के लिए भी एक से एक बहसें अस्तित्व में परोसी जातीं हैं और हम सब ख़ूब चटखारे लेकर उसका रसास्वादन भी कर ही रहे हैं! हां, यह वो वाली भी फिल्म नहीं है जो किसी ख़ास प्रचार-प्रसार के लिए बनाई जाती है, जिसे हम अंग्रजी में प्रोपगंडा फिल्म कहते हैं।
फिल्म – गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल
बैनर – धर्म प्रोडक्शन और ज़ी स्टूडियो
पटकथा – निखिल मल्होत्रा और शरण शर्मा
गीत – कौसर मुनीर
संगीत – अमित त्रिवेदी
निर्देशक – शरण शर्मा
कलाकार – पंकज त्रिपाठी, जहान्वी कपूर, विनीत कुमार सिंह, मानव विज, अंगद बेदी, चन्दन आनंद, रीवा अरोरा आदि.
गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल फिल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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