खोजी पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण और ख़तरनाक विधा है, जिऐसी पत्रकारिता की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है क्योंकि सच को खोदकर बाहर निकाल लेना ऐसी ही पत्रकारिता के बूते की बात होती है, लेकिन इस प्रकार की पत्रकारिता का सम्मान करनेवाले लोग हमेशा ही बहुत कम रहे हैं, अब और भी कम हो गए हैं। इसके पीछे का कारण यह होता है कि इस प्रकिया में आपको उतना ही सच नहीं पता चलता बल्कि सच का वो पहलु भी सामने आता है जिसको सच में बहुत ही कम लोग ही देखना, सुनना और समझना चाहते हैं। हम सब पूर्वनियोजित सच या झूठ में ही ख़ुश रहते हैं और किसी भी क़ीमत पर अपने विश्वास और मान्यताओं को टूटने नहीं देना चाहते हैं। फिर बात यह भी है कि कुछ भी सही रूप में, अच्छे, सटीक और ठीक से जान लेना, अपनेआप से दुश्मनी ठान लेना भी है। वो इसलिए कि हमारा काम अमूमन आंशिक सच और उसमें थोड़ी कल्पना, थोड़ा क़िस्सा, विश्वास और ढेरों झूठ के सहारे बड़े ही आराम से चल ही जाता है, तो ज़्यादा लोड़ भी क्यों लेना! खरी-खरी बात या जो बात जैसी है वैसी ही कहनेवाले लोग अमूमन ज़्यादा पसंद आते नहीं है, यह एक दुर्भाग्य है लेकिन सच है। अब बीच का कोई रास्ता होता हो या न होता हो लेकिन हमें सिखाया यही जाता है कि मध्यमार्गी बनों और जीवन को सफलता-शांति से जिओ। यह बात और है कि शांति न यहां है और वहां है; और उस रास्ते पर तो बिलकुल भी नहीं है जहां उसे होने का पाठ बार-बार पढ़ाया जाता है।
एस हुसैन ज़ैदी, देश के जानेमाने खोजी पत्रकार हैं और इन्होनें अपना ज़्यादातर काम मुंबई के माफियाओं पर केन्द्रित किया है और ब्लैक फ्राईडे, डोंगरी से दुबई, सिक्स डिकेड ऑफ मुंबई माफ़िया, मुंबई अवेंजर, माफ़िया क्वीन ऑफ मुंबई, माय नेम इज अब्बू सलेम और बायकुला टू बैंकौक नामक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं हैं। ज़ैदी क़िस्से, कहानियों के माध्यम से बड़ी ही सरलता के साथ मुंबई माफ़िया से जुडी बातों को ऐसे बताते हैं जैसे आपके सामने वो दृश्य सहजता से घटित हो रहे हों। क्राइम सिनेमा का एक बहुत ही ज़्यादा पसंदीदा विषय रहा है, इसलिए ज़ैदी की पुस्तकों की ओर सिनेमावालों का आकर्षण एक स्वाभाविक सी बात है।
क्लास ऑफ ’83 नामक यह फिल्म भी ज़ैदी की एक किताब पर ही आधारित है लेकिन समस्या तब शुरू हो जाती है जब सामने गॉडफादर जैसा महानतम सिनेमा का उदाहरण रखकर ख़्वाब देखा गया हो, भले ही उनके पास कपोला जैसी प्रतिभा और दृष्टी व विश्व के महानतम अभिनेताओं की फ़ौज हो या ना हो। लेकिन एक सत्य यह भी है कि जब अनुराग कश्यप ब्लैक फ्रईड़े जैसी महत्वपूर्ण फिल्म बनाते हैं तो उन्हें उस फिल्म को दर्शकों तक लाने के लिए इतने पापड़ बेलने होते हैं कि आगे से कोई भी फ़िल्मकार ऐसे किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर सत्य कहने की हिम्मत न करे। यह व्यवस्था है!
एक घटना के पीछे कई घटनाएं होतीं हैं, लेकिन कोई अगर यह बताता है तो हम उसे अमूमन पसंद नहीं करते, क्योंकि हम सत्य नहीं मान्यताओं पर चलनेवाले लोग हैं और हमारी मान्यताओं को कोई धूमिल करे यह हमें किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त नहीं! हमारी भावना पता नहीं किस चीज़ की बनी है जो हमें कभी तार्किक होने ही नहीं देती!
अब सिनेमा का भी अपना और अलग ही सत्य है, वैसे यह सत्य समाज का भी है क्योंकि सिनेमा की हक़ीकत भी कोई समाज से अलहदा नहीं है, वो यह कि एक तरफ जहां बहुत सारी प्रतिभाएं एक अच्छे मौक़े के इंतज़ार में फ़ना हो जाती हैं वहीं दूसरी तरफ़ कुछ नामचीनों को इतने मौक़े दिए जाते हैं कि कहीं न कहीं तो फिट हो ही जाएगें, भले ही उनके भीतर कोई प्रतिभा हो या न हो। वैसे भी सिनेमा प्रतिभा का कम क़ारोबार का माध्यम अब ज़्यादा हो गया है, ख़ासकर हिंदी सिनेमा। यहां सितारे होते हैं, जिनके भीतर अपनी कोई रौशनी हो या न हो बहुत सारे सूर्य उन्हें अपनी रौशनी देकर चमकाने को तैयार रहते हैं और जबतक यह साबित होता है कि नहीं भाई यहां चमक पैदा हो ही नहीं सकती है तबतक वो कई दशक आसानी से इस उद्योग में गुज़ार लेता है और कई दर्ज़न फिल्मों और अनगिनत दर्शकों के स्वाद का बंटाधार कर चुका होता है। सिनेमा में नहीं चला तो सीरियल, वहां भी न चला तो अब ओटिपी या वेवसिरिज़ में घुसेड़ दिया। मतलब कि धक्का दे देकर चलाना ही है। वहीं यह भी संभव है कि एक बेहद शानदार प्रतिभा पूरी ज़िन्दगी “स्ट्रगलर” का टैग लगाकर जैसे-तैसे अपना जीवन काट भर दे या फिर ग़लती से मौक़ा मिला भी तो उसे कुछ सेकेंड की भूमिका में ही अपनेआप को साबित करते रहना है दस-पंद्रह साल तक, उसके बाद देखा जाएगा! अगर इतनी परीक्षा दे पाए तो ठीक वरना कहीं मर, खप और बिला जाओ, किसी को कोई चिंता नहीं।
अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा के दम पर हर दशक में कोई दो चार नाम उभरते हैं लेकिन हज़ारों नाम गुमनामी में फ़ना हो जाते हैं। यह दुनिया ही अब ऐसी बना दी गई है कि सुविधाओं और मौक़े का कारोबार ही ऊपर से शुरू होता है और नीचे तक जूठन ही आती है और वो भी बीच में ही कहीं समाप्त हो जाती है, और वो अंतिम आदमी जिसे सुविधाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है उसके पास जूठे प्लेट चाटने और किसी प्रकार अपनी भूख को शांत करने के अलावा कोई अन्य विकल्प हमने छोड़ा ही नहीं है; इसे ही हमने व्यवस्था नाम दिया है। यह एक अलग क़िस्म की माफ़ियागिरी है और यह जीवन के लगभग हर क्षेत्र में थोक में उपलब्ध है। तभी शायर नवाज देवबंदी यह लिखने को मजबूर होते हैं –
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
मां ने फिर पानी पकाया देर तक
क्लास ऑफ ’83 नेटफ्लिक्स और रेड चिलिज़ इंटरप्राइजेज़ के बीच करार से बनी है। इससे पहले इन दोनों ने मिलकर बार्ड ऑफ ब्लड और बेताल बनाई थी। बार्ड ऑफ ब्लड देखी नहीं है और बेताल के कुछ भाग देखते हुए कोई ख़ास बात लगी नहीं इसलिए उन दोनों को फ़िलहाल त्याग देते हैं और बात क्लास ऑफ ’83 की करते हैं। फिल्म पुलिस द्वारा माफियागिरी के तरीक़े से माफ़िया को ख़त्म करने की कहानी है, जिसमें राजनेता, पुलिस, समाज और माफ़िया का गठबंधन साफ़-साफ़ उभरकर आता है। कहानी में बहुत सारे तह हैं जिन्हें बहुत अच्छे से उभरने का अवसर मिला नहीं है इसलिए वो प्रभाव पैदा करने के बजाए सूचनात्मक होकर रह जातीं है। वैसे कुछ कहना और कुछ न कहना भी एक कलाकारी ही है। फिल्म को एक खास रंग से कलरिंग किया गया है वो भारत के लिए नई बात हो सकती है, विश्व सिनेमा के लिए यह बात भी दशकों पुरानी है। खान साहेब की रेड चिलिज़ इंटरप्राइजेज़ सिनेमा के नाम पर अमूमन ज़ायकेदार मसालेदार हवाई मिठाई बनाती है और करोड़ों की कमाई करती है, इसलिए वहां भी बहुत ज़्यादा विमर्श की संभावना नहीं है। अब रहा सवाल बॉबी देवल का तो इस फिल्म में शायद निर्देशक को शायद यह बात पता है कि उनका अभिनय नामक चीज़ से कभी कोई दूर का भी रिश्ता रहा नहीं है इसलिए उसने अधिकार समय देवल साहेब के चेहरे पर अंधेरे का साम्राज्य क़ायम रखा ताकि देखनेवालों को भ्रम में रखा जा सके। फिल्म नैरेटिव है तो बहुत सारी बातें केवल सूचना के लिए बोल दी जाती हैं, इससे अच्छे से न कोई चरित्र उभर पाता है और ना ही स्थिति, बाकी सवाल कथ्य का है तो जिन्हें कथ्य से ज़्यादा लगाव है उन्हें ज़ैदी साहब की किताब पढ़नी चाहिए, वो ज़्यादा ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और लेयर्स से भरपूर है। लेकिन मूल सवाल यह भी है कि कितने लोग पढ़ते हैं और कितने लोगों को किताब देखते ही बेहोशी छाने लगती है! वैसे सिनेमा अगर किसी के लिए टाईमपास माध्यम ही है तो कुछ भी देखा ही जा सकता है, क्या फ़र्क पड़ता है! वैसे किसी किसी का मानना है कि सम्पादन अच्छा है तो रेड चिलीज़ का इतना विशाल उद्योग है सिनेमा का तो वो जब फिल्म बनाएगें तो कुछ न कुछ तो अच्छा निकल ही आएगा!
फिल्म – क्लास ऑफ ’83
निर्देशक- अतुल सभरवाल
निर्माता – गौरी खान, शाहरुख खान, गौरव वर्मा
पटकथा – अभिजीत देशपांडे
आधार – हुसैन ज़ैदी लिखित किताब क्लास ऑफ ’83
संगीत – बीजू शाह
छायांकन – मारियो पॉजक
सम्पादन – मानस मित्तल
कंपनी – रेड चिलीज़ इंटरप्राइजेज
डिस्ट्रीब्यूटर – नेटफ्लिक्स
भाषा – हिंदी
अभिनेता – बॉबी देवल, अनूप सोनी, जॉय सेनगुप्ता, विश्वजीत प्रधान, मो. तिरेगार, हंस देव शर्मा, हितेश भोजराज, समीर परांजपे, निनाद महाजनी, पृथ्वीक प्रताप, भूपेंद्र जदवात आदि।
क्लास ऑफ ’83 फिल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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