देश में अभी गर्मागर्म 4जी किरांती हुई थी और उसी के बाद कुछ ओटीटी (over the top) प्लेटफार्म वजूद में आए थे। यह मामला मामला ऑनलाइन शॉपिंग जैसा है कि आप अपने पसंद के प्लेटफार्म पर जाइए और अपनी पसंद का माल क्लिक कीजिए और आनंद लीजिए। यहां बीच वाले यानि सेंसर बोर्ड, डिस्ट्रीब्यूटर, सिनेमाहॉल आदि का कोई काम नहीं था बल्कि माल सीधे फैक्ट्री से ही प्राप्त किया जा सकता है और हद यह कि उसके लिए कहीं जाना भी नहीं है, जहां जैसे हैं बस आपके पास उस ओटीटी प्लेटफार्म का सब्क्रिप्शन होना चाहिए और आपका नेट पैक चालू हालत में। ओटीटी को ध्यान में रखकर एक से एक कंटेंट भी बनाने लगे। अच्छे और बुरे, दोनों ही प्रकार के। अब चुकी यह सरकार की जकड़न से दूर था और इसे कोई भी कभी भी और कहीं भी देख सकता था तो इस बहती गंगा में सबने अपनी अपनी समझ, बुद्धि, विवेक और मूढ़ता के हिसाब से कंटेंट बनाने शुरू किए। कुछ ने बहुत ज़रूरी और अहम् काम भी किए तो कुछ ने सेक्स और हिंसा को बेचने और माल बनाने का काम भी शुरू किया। अब तक यह सेल्फ रेगुलेशन कोर्ड के आधार पर भारत में संचालित किया जा रहा था लेकिन अब भारत सरकार का सूचना प्रसारण मंत्रालय ने अपने दायरे में लेने कि घोषणा जारी किया है और हवाला दिया गया है सेक्स और हिंसा को! लेकिन क्या यही सच है?
सरकारी संस्थाओं को क्या सच में सेक्स, हिंसा या कला के नाम पर गोबर से समस्या है, इसका जवाब एकदम साफ है – नहीं, उन्हें इन सब चीज़ों से कभी कोई समस्या नहीं होती। अगर ऐसा नहीं होता होता तो पूरा भारतीय मनोरंजन उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा बेसिरपैर के बकवास से भरा नहीं होता। याद कीजिए फिल्मों का ज़्यादातर कंटेट क्या होता है जो सेंसरशिप से पास होकर बड़े ही शान से सिनेमाहॉल या मल्टीप्लेक्स में प्रदर्शित होती हैं। ज़्यादातर में बिना मतलब के मार-धाड़, ख़ुद ही न्याय करनेवाला हीरो-हिरोइन, बदले की भावना से पीड़ित चरित्र, अश्लीलता का तड़का लगाते फ़ालतू का नाच गाना और उसके एक से एक द्विअर्थी बोल। यह सब आज शुरू नहीं हुआ है बल्कि यह पुराना खेल है। सिनेमा में गुस्से का हस्तमैथुननुमा प्रयोग करके बड़े-बड़े लोग सुपरस्टार, मिलेनियम स्टार हो गए और पर्दे पर शो पीस बनकर एक से एक लड़कियां हिरोइन बन गईं, किसी को कभी कोई आपत्ति हुई – नहीं ना?
अब ओटीटी प्लेटफार्म पर आते हैं। यहां खुली छूट मिली तो निश्चित ही दिमाग के स्थान पर शरीर के किसी और अंग से सोचनेवाले कला के बाज़ारू व्यवसायी भी सक्रीय हुए जो कुछ भी बेचकर केवल और केवल पैसा बनाने का काम करने को ही कला मानते हैं, लेकिन सच यह भी है कि ऐसे लोग ओटीटी से पहले भी टीवी पर सास बहू का कूड़ेदान ही बेचने का काम कर रहे थे। इस बात पर किसी को कोई आपत्ति हुई या इस बात पर किसी की भी भावना आहत हुई – नहीं ना! या एक से एक निर्माता, निर्देशक, अभिनेता थे या हैं जो हिंसा और अश्लीलता को ही अपना हथियार बनाकर लोगों के दिमाग में सिनेमा के नाम पर गोबर भरने का काम किया और कर रहे हैं, सेंसर ने भी इसे सिनेमा कहके पास किया और सर्टिफिकेट दिया। तो अब सवाल यह बनता है कि यह ओटीटी पर नियंत्रण से क्या हासिल किया जाएगा, उसका जवाब एकदम साफ़ है कि सरकार किसी न किसी पार्टी की होती है और उन पार्टियों की अपनी-अपनी कोई नीति और रणनीति होती है, कुछ मुद्दे होते हैं जिनका बार-बार राग अलाप के ये लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त करते हैं, ओटीटी प्लेटफार्म पर कुछ कंटेंट ऐसे आए हैं जो इनके इस राज़ का पर्दाफाश करते हैं और दरअसल कोई न कोई बहाना बनाकर दुनियाभर की सरकारें इसे ही अपने नियंत्रण में लेना चाहती हैं। इसे आप राजनीतिक सत्ता को सांस्कृतिक सत्ता पर नियंत्रण करना कह सकते हैं, यही खेल होना है बाक़ी सब कहने सुनने की बातें हैं। देखिए न्यूज़ के नाम पर आज ज़हर उगलनेवाले एंकर के पक्ष में पूरी की पूरी सत्ता खड़ी है, और अब वो न्यूज़ को भी नियंत्रित करेगें तो समझा जा सकता है कि हंटर निश्चित ही उन चैनल और एंकर पर चलना है और चल भी रहा है जो सरकार की गोदी में बैठने को तैयार नहीं हैं।
राजनीति का खेल एक तिलस्म पर आधारित होता है और किसी भी क़ीमत पर राजनीतिज्ञ इस तिलस्म को टूटने नहीं देना चाहते इसीलिए वो किसी न किसी बहाने से हर चीज़ को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। यह खेल पुराना है और हर वाद के लोग इसे बड़े ही चाव से खेलते हैं; क्या लेफ्ट, क्या राईट और क्या सेंटर किसी को भी अपनी आलोचना अच्छी नहीं लगती है। इसके लिए कानून और संविधान की मनमानी व्याख्या प्रस्तुत करती है और किसी न किसी बहाने अपनी दरबानी क़ायम करती है। वो किसी भी चीज़ को अपने नियंत्रण से दायरे से दूर नहीं रहने देना चाहते हैं, ना ओटीटी प्लेटफार्म, न सोशल मिडिया और ना ही अभिव्यक्ति का अन्य कोई माध्यम, अब तो आलम यह है कि क्या खाना है और क्या पहनना है यह भी राजनीति तय करने लगी है। सेल्फ रेगुलेशन कोर्ड ज़्यादातर के समझ में नहीं आती क्योंकि इसकी समझ होने के लिए सच्चा और वैज्ञानिक ज्ञान का होना बेहद ज़रूरी है और साथ ही साथ समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी के भान का होना भी, लेकिन व्यावसायिक मानसिकता और राजनीतिक धुर्विकरण से पीड़ित मस्तिष्क की समझ में यह कभी यह बात आई है और न आएगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता और सब सही से संचालित करने के नाम पर अपनी राजनीति सत्ता के स्थापना का खेल बहुत पुराना है, यही चल रहा है बाक़ी बातें हवाबाज़ी हैं। एक तिलिस्म है जो रचा जा रहा है लेकिन घोर आश्चर्य यह है कि इसकी कैद में हमें मज़ा आ रहा है जबकि हमें पता ही नहीं है कि आख़िरकार यह खेल कितना ख़तरनाक होगा बल्कि हो ही रहा है। संस्कृति राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल का नाम है अगर राजनीति ने इसे भी अपनी चपेट में ले लिया तो समझ लीजिए कि अन्धकार गहरा हो रहा है और सम्राट किल्विश का साम्राज्य पसर रहा है जहां बार-बार केवल एक ही वाक्य सुनाई पड़ेगा – अंधेरा क़ायम रहे!
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