सन 1966 में तपन सिन्हा ने बांग्ला भाषा में एक फिल्म बनाई थी गल्पो होलो सत्ती। हिंदी में इस फिल्म को हृषिकेश मुखर्जी ने सन 1972 में बाबर्ची नाम से पुनर्निर्मित किया था। गल्प होलो सत्ती में जहां भानु बैनर्जी मुख्य भूमिका में थे वहीं बाबर्ची में राजेश खन्ना। बाद में गोविंदा की फिल्म हीरो नम्बर एक इससे प्रभावित थी और तमिल फिल्म स्मयाल्करण और कन्नड भाषा की फिल्म सकला कला वल्लभा और नम्बर 73 व शांति निवास नामक फिल्म के मूल में भी तपन सिन्हा की फिल्म ही थी। इज़ लव इनफ सर (फिल्म) के सन्दर्भ में इन फिल्मों को याद करने के पीछे वजह यह है इन सबके मूल में मालिक और घर में काम करनेवाला या करनेवाली है और जीवन को ख़ूब जम के जीने का फलसफा है। किसी ने कह भी है कि दिल का एक रास्ता जीभ और पेट से भी होकर जाता है; अब इस बात में कितनी सच्चाई है, मुझे नहीं मालूम।
वैसे बाक़ी सब फिल्मों और इस फिल्म में कुछ बातें एकदम अलग हैं और सबसे ज़्यादा ध्यान देने वाली बात है समाज और परिवार। बाक़ी फिल्मों में एक बड़ा परिवार देखने को मिलता है लेकिन इस फिल्म तक आते-आते यानि 2020 में वो परिवार अब एक व्यक्ति में सिमट गया है, जो एक सामाजिक सच्चाई भी है। अब इसके पीछे बहुत सारे सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत बातें ज़िम्मेदार हैं जो हम सबको पता है, और उसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है। दूसरा जो सबसे बड़ा बुनियादी फ़र्क है वो यह कि औरतें आत्मनिर्भर हुई हैं और अब वो भी कमाने के लिए घर से निकली हैं। इज़ लव इनफ सर (फिल्म) में रत्ना एक ऐसी ही स्त्री है, जो गांव की रहनेवाली है और बहुत कम उम्र में विधवा हो जाती है। भारतीय समाज में अमूमन मान्यता यह है कि इसके बाद एक स्त्री का जीवन समाप्त हो जाता है लेकिन आत्मनिर्भर महिलाओं ने इसे ग़लत साबित किया है और रत्ना ऐसी ही एक साहसी और ताकतवर महिला है, यह बात और है कि उसे बोल्ड शब्द का अर्थ नहीं पता।
रत्ना गांव से आकर शहर में अश्विनी के घर में काम करती है और अपनी कमाई से घर चलाती है। अश्विनी अकेला रहता है; उसकी शादी होनेवाली थी लेकिन हुई नहीं। रत्ना और अश्विनी एक ही फ्लैट में अपने-अपने दायरे में रहते हैं और दोनों एक दूसरे को व्यावहारिक रूप से जीवन का अर्थ समझते रहते हैं, वो भी बिना किसी प्रवचन और फ़ालतू के ड्रामें के। ऐसा करते हुए वो किसी भी मोर्चे पर कमज़ोर अमूमन नहीं पड़ते और ना ही एक दूसरे के ऊपर अपनेआप को आरोपित ही करते हैं। वो एक दूसरे को कमज़ोर नहीं बनाते बल्कि एक-दूसरे को समझते हैं और ज़्यादा ताकतवर बनाते हैं और अपने तथा एक दूसरे के सपनों का पीछा करने के लिए एक दूसरे की सहायता और प्रेरणा बनते हैं। यही वो बात है जो इस फिल्म को अलग और विशिष्ट बनाती है और इस फिल्म में आगे क्या होगा इसका अनुमान आसानी से नहीं लगता है।
इज़ लव इनफ सर (फिल्म) अपनी एक मध्यम गति से बिना किसी अति-नाटकीयता के चलती रहती है और आप उसके प्रभाव में साथ-साथ बहते रहते हैं। लगभग एक फ्लैट के कैद डेढ़ घंटे की यह फिल्म कब आपको अपनी पकड़ में सम्मोहित कर लेती है, पता भी नहीं चलता और इस दौरान बड़ी सरलता से इंसानी जीवन के गूढ़ अर्थ से साक्षात्कार करते रहती है। वैसे भी इंसानी वजूद दुनियाभर के बनाए धर्म, जाति, अमीरी, ग़रीबी, कैद और आज़ाद के खांचे से बहुत बड़ा और व्यापक है जिस तक पहुंचने के लिए सबसे ज़रूरी है इंसान का इंसान होना, जो बहुत कम इंसानों को ही हासिल है, ख़ासकर आज के समय में।
फिल्म का ज़्यादातर हिस्सा एक फ्लैट में है और उसमें अमूमन दो लोग ही हैं – रत्ना और अश्विनी। ऐसी फिल्मों में उत्सुकता बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे बड़ी ही कुशलतापूर्वक लेखक-निर्देशक रोहेना गेरा और सम्पादक व छायाकार ने भी इसे बख़ूबी पकड़ा है। यह फिल्म मोमेंट टू मोमेंट चलती है और ऐसी फिल्मों में घटनाओं पर घटनाओं का होना या होते रहना ज़रूरी नहीं है, बस कुछ बिखरे बिम्ब हैं अगर पकड़ में आए तो। बस फिल्म आख़िर में जाकर एकरसतावाद का शिकार होती है जहां इस सम्बंध को रिश्तों में बंधाने की चेष्टा शुरू होती है। इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी बल्कि अगर दोनों एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होते हुए एक दूसरे से जुड़े होते तो शायद इसकी व्यापकता और ज़्यादा विस्तार पाती। इसे सुखांत अंत के इस मोह को त्यागना चाहिए था क्योंकि इस क्षणिक सुख के बाद जो जीवन शुरू होगा वो भी अपनेआप में एक प्रकार की भयंकर एकरस्ता का शिकार होगा। क्योंकि उस जीवन की भी अपनी शर्ते हैं जिसको पूरा करते-करते इंसानी वजूद का क से कबूतर हो जाता है। वैसे भी जीवन सतत चलते रहने और संघर्ष करते रहने का नाम है, बिना कहीं रुके और बिना सुस्त और पस्त हुए। बहरहाल, फिल्म में तिलोत्मा शोमे और गीतांजली कुलकर्णी का काम शानदार है वहीं विवेक गोम्बर उचित ही प्रतीत होते हैं और बाक़ी अभिनेताओं के ज़िम्मे जितना भी काम है उन्होंने अच्छे से किया है। वैसे इस फिल्म की सबसे अच्छी बात यह है कि यह आपको इमोशनल ब्लैकमेल नहीं करती और इमोशन का वशीकरण मन्त्र नहीं फूंकती बल्कि व्यावहारिकता को ही अपना खेल का मैदान बनाती है।
इज़ लव इनफ? सर (फिल्म) नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
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